(गौरव सैनी)
बाकू (अजरबैजान), 22 नवंबर (भाषा) संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन के समापन अवसर पर शुक्रवार को अमीर देशों ने विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्त को 2035 तक 100 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़ाकर 250 अरब अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष करने का प्रस्ताव रखा, जो बढ़ते जलवायु संकट से निपटने के लिए आवश्यक खरबों डॉलर से काफी कम है।
विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्त पैकेज पर एक नया मसौदा शुक्रवार दोपहर को सामने आया, जिसमें पहली बार विकसित देशों की ओर से ठोस आंकड़े पेश किए गए।
हालांकि, इस मसौदे में कहा गया है कि सभी विकासशील देशों द्वारा मांगे जा रहे 1.3 हजार अरब अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष जलवायु वित्त को सार्वजनिक और निजी दोनों स्रोतों से जुटाया जाएगा, तथा इसकी जिम्मेदारी पूरी तरह विकसित देशों पर नहीं डाली जाएगी।
इसमें निर्दिष्ट किया गया है कि 2035 तक प्रति वर्ष 250 अरब अमेरिकी डॉलर की धनराशि विकसित देशों द्वारा विभिन्न स्रोतों से जुटाई जाएगी, जिनमें सार्वजनिक और निजी, द्विपक्षीय और बहुपक्षीय, साथ ही वैकल्पिक स्रोत भी शामिल हैं।
वर्ष 2015 के पेरिस समझौते के कार्यान्वयन के हिस्से के रूप में, 190 से अधिक देश विकासशील देशों के लिए अमीर देशों द्वारा जलवायु वित्त दायित्वों पर बातचीत कर रहे हैं। यह समझौता ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करने के लिए सामूहिक कार्रवाई करने को बाध्य करता है, ताकि तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे सीमित रखा जा सके।
जलवायु नीति विशेषज्ञों और पर्यवेक्षकों ने इस प्रस्ताव की आलोचना करते हुए इसे विकासशील देशों के लिए हानिकारक बताया है तथा इसके तीव्र प्रतिक्रिया की भविष्यवाणी की है।
दिल्ली स्थित विचारक संस्था ‘काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर’ (सीईईडब्ल्यू) के वरिष्ठ अध्येता वैभव चतुर्वेदी ने कहा, “विकसित देशों से विकासशील देशों को 2035 तक प्रति वर्ष 250 अरब अमेरिकी डॉलर के प्रावधान में स्पष्ट वृद्धि अनिवार्य रूप से 2020 तक 100 अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर है, अगर 6 प्रतिशत वार्षिक औसत मुद्रास्फीति को ध्यान में रखा जाए। इसमें कोई अनुदान या कम लागत वाला वित्त घटक नहीं है।”
उन्होंने कहा, “यह विकासशील देशों के लिए एक बुरा सौदा है, भले ही अध्यक्ष इसे कैसे भी चित्रित करें।”
उन्होंने 1.3 हजार अरब अमेरिकी डॉलर के आंकड़े को भी “दिखावा” करार दिया।
भाषा प्रशांत रंजन
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