जीवों की मृत कोशिकाओं से उत्पन्न ‘बायोबॉट्स’ जीवन, मरण और चिकित्सा की सीमाओं से परे ले जाते

जीवों की मृत कोशिकाओं से उत्पन्न ‘बायोबॉट्स’ जीवन, मरण और चिकित्सा की सीमाओं से परे ले जाते

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  • Publish Date - September 15, 2024 / 04:32 PM IST,
    Updated On - September 15, 2024 / 04:32 PM IST

(पीटर ए नोबेल, वाशिंगटन विश्वविद्यालय और एलेक्स पोझित्कोव, सिटी ऑफ होप)

वाशिंगटन, 15 सितंबर (द कन्वरसेशन) जीवन और मृत्यु को पारंपरिक रूप से एक-दूसरे के विपरीत माना जाता है। लेकिन मृत जीव की कोशिकाओं से नए बहुकोशिकीय जीवन-रूपों का उद्भव एक ‘‘तीसरी अवस्था’’ का परिचय देता है जो जीवन और मृत्यु की पारंपरिक सीमाओं से परे है।

वैज्ञानिक आमतौर पर मृत्यु को किसी जीव के संपूर्ण रूप से सक्रिय रहने में अपरिवर्तनीय रुकावट मानते हैं। हालांकि, अंग दान जैसी प्रथाएं इस बात पर प्रकाश डालती हैं कि कैसे जीव की मृत्यु के बाद भी अंग, ऊतक और कोशिकाएं काम करना जारी रख सकती हैं। इस लचीलेपन से यह सवाल उठता है कि कौन सी क्रियाविधि कुछ कोशिकाओं को किसी जीव की मृत्यु के बाद भी काम करते रहने देती है?

हम अनुसंधानकर्ता हैं जो यह जांच करते हैं कि जीवों के मरने के बाद उनके अंदर क्या होता है। हमारी हाल ही में प्रकाशित समीक्षा में, हमने बताया है कि कैसे कुछ कोशिकाएं मृत्यु के बाद नए कार्यों के साथ बहुकोशिकीय जीवों में बदलने की क्षमता तब रखती हैं जब पोषक तत्व, ऑक्सीजन, बायोइलेक्ट्रिसिटी या जैव रासायनिक संकेत प्रदान किए जाते हैं।

जीवन, मृत्यु और कुछ नए का उद्भव

तीसरी अवस्था वैज्ञानिकों को कोशिका व्यवहार को समझने में चुनौती देती है। हालांकि, ‘कैटरपिलर’ का तितली में रूपांतरित होना या ‘टैडपोल’ का मेंढ़क में विकसित होना, परिचित विकासात्मक परिवर्तन हो सकते हैं, लेकिन ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं जहां जीवों में ऐसे परिवर्तन होते हैं जो पूर्वनिर्धारित नहीं होते।

ट्यूमर, ऑर्गेनोइड्स (एक त्रि-आयामी ऊतक संवर्धन होता है, जो स्टेम सेल से विकसित होता है) और कोशिका रेखाएं जो पेट्री डिश में अनिश्चितकाल तक विभाजित हो सकती हैं, जैसे हेला कोशिकाएं, उन्हें तीसरी अवस्था का हिस्सा नहीं माना जाता है क्योंकि वे नए कार्य विकसित नहीं करती हैं।

हालांकि, अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि मृत मेंढ़क भ्रूण से निकाली गईं त्वचा कोशिकाएं प्रयोगशाला में पेट्री डिश की नयी परिस्थितियों के अनुकूल ढलने में सक्षम थीं, और स्वतः ही बहुकोशिकीय जीवों में पुनर्गठित हो गईं, जिन्हें ‘जेनोबॉट्स’ कहा जाता है।

इन जीवों ने ऐसे व्यवहार प्रदर्शित किए जो उनकी मूल जैविक भूमिकाओं से कहीं आगे तक विस्तृत थे। विशेष रूप से, ये जेनोबॉट अपने सिलिया (छोटे, बाल जैसी संरचनाओं) का उपयोग अपने आस-पास के वातावरण में मार्गनिर्देशन करने और आगे बढ़ने के लिए करते हैं, जबकि एक जीवित मेंढ़क भ्रूण में, सिलिया का उपयोग आमतौर पर बलगम को स्थानांतरित करने के लिए किया जाता है।

जेनोबॉट्स गतिक स्व-प्रतिकृति तैयार करने में भी सक्षम हैं, जिसका अर्थ है कि वे बिना बढ़े अपनी संरचना और कार्य को शारीरिक रूप से दोहरा सकते हैं। यह अधिक सामान्य प्रतिकृति प्रक्रियाओं से भिन्न है जिसमें जीव के शरीर के भीतर या बाहर के आकार की वृद्धि होती है।

अनुसंधानकर्ताओं ने यह भी पाया कि अकेले मानव फेफड़े की कोशिकाएं छोटे बहुकोशिकीय जीवों में खुद को जोड़ सकती हैं जो इधर-उधर घूम सकते हैं। ये ‘एंथ्रोबॉट्स’ (मानव श्वासनली कोशिकाओं से बने छोटे रोबोट) नए तरीके से व्यवहार करते हैं और उनकी संरचना भी नयी होती है।

ये न केवल अपने आस-पास के वातावरण में भ्रमण करने में सक्षम हैं, बल्कि स्वयं की तथा आस-पास स्थित क्षतिग्रस्त न्यूरॉन कोशिकाओं की मरम्मत भी कर सकते हैं।

कुल मिलाकर यह दिखाती है कि कोशिका तंत्र की अंतर्निहित ‘प्लास्टिसिटी’ (पर्यावरणीय कारकों के जवाब में किसी जीव की अपनी समलक्षणी या रूप बदलने की क्षमता) को प्रदर्शित करते हैं और इस विचार को चुनौती देते हैं कि कोशिकाएं और जीव केवल पूर्वनिर्धारित तरीकों से ही विकसित हो सकते हैं। तीसरी अवस्था बताती है कि जीवों की मृत्यु समय के साथ जीवन में होने वाले परिवर्तनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।

पोस्टमॉर्टम की अवस्थाएं

कई कारक इस बात को प्रभावित करते हैं कि क्या कुछ कोशिकाएं और ऊतक किसी जीव के मरने के बाद भी जीवित रह सकते हैं और काम कर सकते हैं। इनमें पर्यावरण की स्थिति, चयापचय गतिविधि और संरक्षण तकनीकें शामिल हैं।

अलग-अलग तरह की कोशिकाओं के जीवित रहने का समय भी अलग-अलग होता है। उदाहरण के लिए, मनुष्यों में श्वेत रक्त कोशिकाएं व्यक्ति की मृत्यु के 60 से 86 घंटों बाद मरती हैं। चूहों में, कंकाल की मांसपेशियों की कोशिकाओं को 14 दिनों के बाद फिर से सक्रिय किया जा सकता है, जबकि भेड़ और बकरियों की फाइब्रोब्लास्ट कोशिकाओं को एक महीने या उससे अधिक समय तक संवर्धित किया जा सकता है।

चयापचय गतिविधि इस बात में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है कि क्या कोशिकाएं जीवित रह सकती हैं और कार्य कर सकती हैं। सक्रिय कोशिकाएं जिन्हें अपने कार्य को बनाए रखने के लिए ऊर्जा की निरंतर और पर्याप्त आपूर्ति की आवश्यकता होती है, उन्हें कम ऊर्जा आवश्यकताओं वाली कोशिकाओं की तुलना में संवर्धित करना अधिक कठिन होता है।

‘क्रायोप्रिजर्वेशन’ (कोशिकाओं, ऊतकों और अन्य जैविक नमूनों को बहुत कम तापमान पर जमा कर संरक्षित करने की प्रक्रिया) जैसी परिरक्षण तकनीकें अस्थि मज्जा जैसे ऊतक के नमूनों को जीवित दाता स्रोतों के समान कार्य करने में सक्षम बना सकती हैं।

अंतर्निहित उत्तरजीविता तंत्र भी इस बात में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं कि कोशिकाएं और ऊतक जीवित रहेंगे या नहीं। उदाहरण के लिए, शोधकर्ताओं ने जीवों की मृत्यु के बाद तनाव-संबंधी जीन और प्रतिरक्षा-संबंधी जीन की गतिविधि में उल्लेखनीय वृद्धि देखी है जो होमियोस्टेसिस (पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों के जवाब में किसी जीव में आंतरिक स्थिरता बनाए रखने की क्षमता) के नुकसान की भरपाई करने लिए हो। इसके अलावा, आघात, संक्रमण और मृत्यु के बाद बीता समय जैसे कारक ऊतक और कोशिका के जिंदा रहने की क्षमता को अहम तरीके से प्रभावित करता है।

आयु, स्वास्थ्य, लिंग और प्रजातियों के प्रकार जैसे कारक पोस्टमॉर्टम परिदृश्य को और अधिक आकार देते हैं। यह चयापचय रूप से सक्रिय आइलेट कोशिकाओं को संवर्धित करने और प्रत्यारोपित करने की चुनौती में देखा जाता है, जो अग्न्याशय में इंसुलिन का उत्पादन करते हैं।

अनुसंधानकर्ताओं का मानना ​​है कि स्वप्रतिरक्षी प्रक्रियाएं, उच्च ऊर्जा लागत और सुरक्षात्मक तंत्र का हृास, कई आइलेट प्रत्यारोपण विफलताओं के पीछे का कारण हो सकता है।

इन कारकों की परस्पर क्रिया किस प्रकार किसी जीव की मृत्यु के बाद भी कुछ कोशिकाओं को कार्य करना जारी रखने की अनुमति देती है, यह अभी भी स्पष्ट नहीं है। एक परिकल्पना यह है कि कोशिकाओं की बाहरी झिल्लियों में अंतर्निहित विशेष चैनल और पंप जटिल विद्युत परिपथों के रूप में कार्य करते हैं। ये चैनल और पंप विद्युत संकेत उत्पन्न करते हैं जो कोशिकाओं को एक-दूसरे के साथ संवाद करने और विकास और गति जैसे विशिष्ट कार्यों को निष्पादित करने में सक्षम बनाते हैं, जिससे वे जीव की संरचना को आकार देते हैं।

मृत्यु के बाद विभिन्न प्रकार की कोशिकाएं किस सीमा तक परिवर्तन से गुजर सकती हैं, यह भी अनिश्चित है। पूर्व के अनुसंधान में पाया गया कि तनाव, प्रतिरक्षा और एपिजेनेटिक (किसी जीव के विशिष्ट जीन या जीन-संबंधित प्रोटीन के रासायनिक संशोधन का अध्ययन) विनियमन में शामिल विशिष्ट जीन चूहों, ज़ेब्राफिश और लोगों में मृत्यु के बाद सक्रिय हो जाते हैं, जिससे विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं में परिवर्तन की व्यापक संभावना का पता चलता है।

जीव विज्ञान और चिकित्सा के लिए इसके मायने

तीसरी अवस्था न केवल कोशिकाओं की अनुकूलन क्षमता के बारे में नयी जानकारी प्रदान करती है, बल्कि नए उपचारों की संभावनाएं भी प्रदान करती है।

उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति के जीवित ऊतक से एंथ्रोबॉट्स प्राप्त किए जा सकते हैं, ताकि अवांछित प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को उत्प्रेरित किए बिना दवाएं दी जा सकें। इंजीनियर्ड एंथ्रोबॉट्स को शरीर में इंजेक्ट करने से एथेरोस्क्लेरोसिस के रोगियों की धमनी में मौजूद अवरोधक को संभावित रूप से नष्ट किया जा सकता है और सिस्टिक फाइब्रोसिस के रोगियों में अतिरिक्त बलगम को हटाया जा सकता है।

सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इन बहुकोशिकीय जीवों का जीवनकाल सीमित होता है, जो चार से छह सप्ताह के बाद स्वाभाविक रूप से नष्ट हो जाते हैं। यह ‘किल स्विच’ संभावित रूप से आक्रामक कोशिकाओं के विकास को रोकते हैं।

किसी जीव की मृत्यु के कुछ समय बाद भी कुछ कोशिकाएं किस प्रकार कार्य करती रहती हैं तथा बहुकोशिकीय इकाइयों में रूपांतरित होती रहती हैं, इसकी बेहतर समझ व्यक्तिगत एवं निवारक चिकित्सा को और विकसित करने की उम्मीद देती है।

(द कन्वरसेशन) धीरज नेत्रपाल

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