शहनाई के सुल्तान : बनारस के कोने-कोने में बसी हैं बिस्मिल्लाह खान की यादें

शहनाई के सुल्तान : बनारस के कोने-कोने में बसी हैं बिस्मिल्लाह खान की यादें

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  • Publish Date - March 20, 2025 / 06:42 PM IST,
    Updated On - March 20, 2025 / 06:42 PM IST

(मनीष सैन)

वाराणसी, 20 मार्च (भाषा) धूल भरी सीढ़ियां, समय के साथ जर्जर हो चुकी दीवारें और उसके ठीक सामने बह रही गंगा नदी, यही वह जगह हैं जहां युवा बिस्मिल्लाह खान घंटों रियाज किया करते थे।

यहां वह सुबह चार बजे से लेकर सूर्योदय होने तक और फिर दोपहर से लेकर सूरज ढलने तक रियाज किया करते थे।

उनकी शहनाई की गूंज नौबतखाने से बहुत पहले ही गायब हो चुकी है, लेकिन उस्ताद, जिन्होंने इसकी मधुर आवाज को विश्व फलक पर पहुंचाया और इसका पर्याय बन गए और आज भी इसके भीतर और बाहर मौजूद हैं।

भारत के महानतम संगीतकारों में शुमार किए जाने वाले उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शुक्रवार को 109वीं जयंती है। उनकी यादें इस मंदिर नगरी के कोने-कोने में बसी हुई हैं, जहां वह रहे थे, शिक्षा हासिल की और शहनाई को आगे बढ़ाया।

इस शास्त्रीय संगीतकार ने 15 अगस्त 1947 को जवाहरलाल नेहरू के ऐतिहासिक भाषण से पहले लाल किले की प्राचीर से राग ‘काफ़ी’ बजाकर भारत की स्वतंत्रता की घोषणा की थी।

‘शहनाई के सुल्तान’ कमरुद्दीन खान का जन्म 21 मार्च 1916 को बिहार के डुमरांव में हुआ था। उनके जीवन से जुड़ी कई कहानियां प्राचीन शहर बनारस या वाराणसी के घाटों और संकरी गलियों में सुनाई जाती हैं। शहर के निवासियों के लिए खान विश्व प्रसिद्ध संगीतकार थे, जिनमें से कुछ उन्हें जानते थे और कुछ जो उनके बारे में कहानियां सुनते हुए बड़े हुए हैं।

दिग्गज शहनाई वादक ‘गंगा जमुनी तहजीब’ के प्रतीक भी थे।

बालाजी और मंगला गौरी मंदिरों के चौराहे पर स्थित नौबतखाना शायद बिस्मिल्लाह खान का पहला पड़ाव था। वर्ष 2006 में उनके निधन के लगभग 19 साल बाद, कमरे का फर्श और उस ओर जाने वाला रास्ता जर्जर हो गया है।

मंगला गौरी मंदिर के मुख्य पुजारी पंडित नारायण गुरु ने ‘पीटीआई-भाषा’ को बताया, ‘‘यह वह स्थान है जहां बिस्मिल्लाह खान बैठते थे। उनका रियाज चार चरणों में होता था। वह अंदर एक कोने में दीया जलाते और सुबह चार बजे, दोपहर में, फिर शाम को और बाद में रात में शहनाई का रियाज करने बैठते थे।’’

युवा छात्र के रूप में तीन वर्षों से अधिक समय तक खान ने जो दिनचर्या अपनाई, वह हिंदुओं और मुस्लिमों की सुबह की धार्मिक दिनचर्या का एक अजीब मिश्रण थी, जिसमें गंगा में डुबकी लगाने से लेकर, पास की आलमगीर मस्जिद में सुबह की नमाज अदा करना और फिर दीया जलाने के बाद नौबतखाने में रियाज करना शामिल था।

बालाजी मंदिर का प्रबंधन करने वाले प्रभात कुमार शर्मा ने बताया, ‘‘खान नौबतखाने में और मंदिर के प्रवेश द्वार पर शहनाई बजाते थे, लेकिन अंदर कभी नहीं जाते थे। वह एक धर्मनिष्ठ मुसलमान थे, लेकिन कभी भी किसी हिंदू को अलग नज़र से नहीं देखते थे। वह हिंदुओं से उनका और उनके परिवार का हालचाल पूछा करते थे।’’

शहनाई वादक को सद्भाव की संस्कृति के सर्वोत्तम उदाहरण के रूप में याद करते हुए शर्मा ने कहा कि खान मंदिर के प्रसाद के लिए भी धन दान करते थे।

खान को 2001 में ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया था।

खान के 62 वर्षीय पोते मोहम्मद सिब्तैन ने कहा, ‘‘दादा जी, कभी हिंदू या मुसलमान में भेद नहीं करते थे। वह कहा करते थे, संगीत सबके लिए एक जैसा है। संगीत मेरा ईश्वर है और मैं सिर्फ उसी पर भरोसा करता हूं।’’

भाषा शफीक सुभाष

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