पंजाब सरकार की अनदेखी का दर्द अब भी है अर्जुन पुरस्कार विजेता सुचा सिंह को

पंजाब सरकार की अनदेखी का दर्द अब भी है अर्जुन पुरस्कार विजेता सुचा सिंह को

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  • Publish Date - January 19, 2025 / 10:08 AM IST,
    Updated On - January 19, 2025 / 10:08 AM IST

(नमिता सिंह)

नयी दिल्ली, 19 जनवरी (भाषा) भारत के पूर्व एथलीट सुचा सिंह को जब लंबे इंतजार के बाद शुक्रवार को अर्जुन पुरस्कार (लाइफटाइम) से नवाजा गया तो इसे मिलने की खुशी उनकी डबडबाई आंखों और रूंधी आवाज से महसूस की जा सकती थी लेकिन पंजाब सरकार की अनदेखी का दर्द अब भी उनकी जुबां पर आ ही जाता है।

अर्जुन पुरस्कार दिये जाने की घोषणा के बाद पंजाब के 74 साल के सिंह की सारी नाराजगी दूर हो गई थी क्योंकि आखिर देश ने उनकी उपलब्धियों को सम्मानित किया। अर्जुन पुरस्कार के लिए वह 10 साल तक फॉर्म भरते रहे और थककर उम्मीद छोड़ दी थी।

सिंह ने ‘भाषा’ से बातचीत में कहा, ‘‘अर्जुन पुरस्कार मिलने से पूरी जिंदगी की कड़ी मेहनत का फल मिल गया, देश के लिए पदक जीतने के लिए जीजान लगा दी थी लेकिन अपनी उपलब्धियों की अनदेखी किये जाने का गम था, जो अब इस पुरस्कार ने खत्म कर दिया। ’’

यह बोलते हुए उनकी आंखे डबडबा गई। उन्होंने अपने खेल के दिनों की बात याद करते हुए कहा, ‘‘जब मैं 1965 में जंग के समय सेना में भर्ती हुआ था तो ट्रेनिंग के साथ साथ अपनी स्पर्धा का अभ्यास भी करता था। मैं कबड्डी और दौड़ने में काफी अच्छा था, पर सेना के कोच ने मुझे दौड़ पर ध्यान लगाने के लिए कहा। मेरे पास दौड़ने के जूते नहीं थे जो तब 400 रुपये में आते थे और मेरी तनख्वाह थी 150 रुपये। ’’

पंजाब सरकार से भी उन्हें वो सम्मान नहीं मिला जिसकी उन्हें उम्मीद थी। उन्होंने कहा, ‘‘पंजाब सरकार ने कभी भी उस तरह सम्मानित नहीं किया जैसे अन्य राज्य सरकार करती हैं, मुझे मेरी उपलब्धियों के लिए 100 रूपये का लिफाफा मिला था जबकि मैंने इस समारोह में शिरकत करने के लिए 800 रूपये जोड़े थे जिसमें से 200 रूपये तो दोस्तों ने ही जश्न मनाने में खत्म करवा दिये थे। ’’

अपने समय में खिलाड़ियों को मिलने वाली सुविधाओं के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘तब खिलाड़ियों के लिए इतनी सुविधायें नहीं होती थीं, कोई प्रायोजक नहीं होता था। दौड़ने के लिए कोई ट्रैक नहीं होता था, 1982 में जब नयी दिल्ली में एशियाई खेलों की मेजबानी की गई तभी जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम बना था। मेरे पास दौड़ने के लिए जूते और ट्रैक सूट नहीं था। ’’

सिंह ने कहा, ‘‘पहले इतने कोच और अभ्यास के लिए उपकरण नहीं होते थे। अब दौर ही बदल गया है। अब खिलाड़ियों की उपलब्धियों का पूरा सम्मान होता है। ’’

उन्हें देश के लिए 1972 म्यूनिख ओलंपिक में प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया था लेकिन चोट के कारण वह इसमें हिस्सा नहीं ले सके और खेल के इस महासमर में खेलने का उनका सपना पूरा नहीं हो सका।

देश को 1970 में बैंकाक में छठे एशियाई खेलों में चार गुणा 400 मीटर रिले में रजत पदक दिलाने वाले सिंह अपने शुरूआती दिनों की बात करते हुए काफी उत्साह से भर जाते हैं कि किस जुनून और कड़ी मेहनत से वो देश को तमगा दिलाने में लगे रहते थे। आठ साल सेना में रहने के बाद वह 1973 में टाटा स्टील में जमशेदपुर चले गये जहां उनकी तनख्वाह 5000 रूपये हो गई।

सिंह ने कहा, ‘‘खेलों में शानदार प्रदर्शन के बावजूद मुझे सेना में ‘कमिशन’ नहीं मिला था। हालांकि पदोन्नति पर सिर्फ पांच रूपये बढ़ते थे। फिर मैं जमशेदपुर चला गया और जब तक टाटा स्टील में रहा, उनका सर्वश्रेष्ठ एथलीट रहा। ’’

उन्होंने इसी दौरान तेहरान में हुए 1974 में सातवें एशियाई खेलों में चार गुणा 400 मीटर रिले में रजत पदक और फिर अगले साल दक्षिण कोरिया के सोल में हुई दूसरी एशियाई एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक जीता।

सिंह हालांकि ओलंपिक में नहीं खेल पाये लेकिन उन्होंने वापसी करते हुए वेटरंस टूर्नामेंट में भी हिस्सा लिया। इससे पहले वह अर्जुन पुरस्कार के लिए लगातार 10 साल तक फॉर्म भरते रहे लेकिन फिर बंद कर दिया।

भाषा नमिता मोना पंत

पंत