वॉशिंगटन। अमेरिकी संसद भवन पर डोनाल्ड ट्रंप समर्थकों के हमले से दुनिया के लोग हैरान हैं, बीते बुधवार रात अमेरिकी कांग्रेस (संसद) ने राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे को प्रमाणित करने के लिए अपनी साझा बैठक शुरू की। इस मौके पर हजारों ट्रंप समर्थक वॉशिंगटन में रैली के लिए इकट्ठे हुए और उनमें से हजारों लोगों ने अचानक कैपिटल हिल पर धावा बोल दिया। वे संसद भवन के भीतर घुस गए और तोड़फोड़ करने लगे। वहां आंसू गैस का इस्तेमाल किया गया। फायरिंग होने की खबर भी मिली, जिसमें एक महिला की मौत हो गई। बुधवार की घटना देश के राजनीतिक और वैचारिक विभाजन को दिखाती है, जहां अराजकता की तस्वीरों ने शर्मिंदगी और ख़ुद में झांकने को मजबूर किया।
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संसद भवन के एक कर्मचारी ने बुद्धि-कौशल और फुर्ती का परिचय देते हुए चुनाव नतीजे के दस्तावेजों को दंगाइयों के हाथ लगने से बचा लिया। इससे अमेरिका ने राहत की सांस ली है। लेकिन ये सच भी सामने है कि अमेरिकी इतिहास में इसके पहले कभी ऐसी घटना नहीं हुई। इसके बावजूद ट्रंप और उनकी बेटी इवांका ट्रंप ने अपने सार्वजनिक बयानों में इस हिंसक भीड़ की तारीफ की और उसमें शामिल लोगों को देशभक्त बताया। ट्रंप के बयान को इतना भड़काऊ समझा गया कि ट्विटर और फेसबुक ने उनके जारी किए कंटेंट को अपने प्लेटफॉर्म से हटा दिया।
इतनी बड़ी घटना होने के बाद भी अमेरिकी समाज और राजनीति की समझ रखने वाले लोगों को इस पर ज्यादा हैरानी नहीं हुई है। उन्होंने इसे अमेरिका में लगातार बन रही स्थिति का परिणाम माना है। पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस घटना के लिए सीधे तौर पर रिपब्लिकन पार्टी और दक्षिणपंथी मीडिया इकोसिस्टम को दोषी ठहराया है। उन्होंने कहा कि इन लोगों की काल्पनिक कहानी अधिक से अधिक सच से दूर होती गई। ये कहानी वर्षों से बोए गए जहर से उपजी है। अब हम उसका नतीजा देख रहे हैं, जब हिंसा अपने चरम पर पहुंच गई है। पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भी कहा है कि कैपिटल हिल पर कब्जे की कोशिश दुष्प्रचार को फैलाते हुए की गई जहरीली राजनीति का नतीजा है। दरअसल, राष्ट्रपति ट्रंप तीन नवंबर को हुए राष्ट्रपति चुनाव के बाद इस प्रचार में जुटे रहे कि धांधली और धोखाधड़ी से उन्हें चुनाव में हराया गया। उनके समर्थकों ने इसको लेकर षडयंत्र की अनेक कहानियां समाज में फैलाईं।
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ये घटनाएं अभूतपूर्व जरूर हैं, लेकिन बिल्कुल अप्रत्याशित नहीं हैं। अमेरिकी समाज में गुजरे वर्षों में ध्रुवीकरण लगातार तीखा होता गया है। अब देश में दो ऐसे खेमे बन गए हैं, जो एक- दूसरे से नफरत करते हैं। डोनाल्ड ट्रंप को हाल के हुए राष्ट्रपति चुनाव में लगभग साढ़े सात करोड़ लोगों ने वोट दिया। इनमें बड़ी संख्या में ऐसे लोगों भी है, जो मानते हैं कि ट्रंप से चुनाव को चुरा लिया गया। बुधवार को जारी हुए इकॉनमिस्ट/ यूगव जनमत सर्वेक्षण में रिपब्लिकन पार्टी को वोट देने वाले 66 फीसदी लोगों ने ऐसी राय जाहिर की। ट्रंप के समर्थन में कुछ लोग चुनाव परिणाम के बाद से अलग-अलग अमेरिकी शहरों में सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन कर रहे हैं। बुधवार को वॉशिंगटन आई हजारों की भीड़ में बहुत से ऐसे लोग थे, जिन्होंने सैनिक गणवेश पहन रखा था। उनमें से कुछ लोगों ने कहा कि चुनाव से कोई लाभ नहीं हुआ। इसलिए अब डायरेक्ट एक्शन (सीधी कार्रवाई) की जरूरत है। वोटिंग मशीनों में धांधली के आरोप भी लगाए गए।
विश्लेषकों की माने तो ट्रंप समर्थक मीडिया ने ये माहौल बना रखा था कि सुप्रीम कोर्ट चुनाव नतीजे को पलट देगा। लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ, तब यह प्रचार किया गया कि कांग्रेस- खासकर उच्च सदन सीनेट में नतीजे को पलट दिया जाएगा। लेकिन कांग्रेस की बैठक से ठीक पहले रिपब्लिकन पार्टी के भी अनेक सदस्यों ने ऐसी मुहिम से खुद को अलग करने का एलान कर दिया। ट्रंप ने एक दिन पहले कहा था कि उप-राष्ट्रपति माइक पेन्स को चाहिए कि सीनेट के अध्यक्ष के रूप में अपने विशेष अधिकार का इस्तेमाल करते हुए चुनाव नतीजे को अस्वीकार कर दें। लेकिन बुधवार को पेन्स ने एक सार्वजनिक बयान में यह साफ कह दिया कि उन्हें ऐसा करने का अधिकार नहीं है। बताया जाता है कि इसके बाद ट्रंप समर्थक भीड़ बेसब्र हो गई और उसने कैपिटल हिल पर धावा बोल दिया।
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अब ये मांग भी उठ रही है कि अमेरिकी संविधान के अनुच्छेद 25 का इस्तेमाल करके ट्रंप को तुरंत राष्ट्रपति पद से हटा दिया जाए। अखबार द वॉशिंगटन पोस्ट ने भी अपने एक विशेष संपादकीय में इसकी वकालत की है। अब ये आशंका बढ़ गई है कि अपने कार्यकाल के बचे 13 दिन में ट्रंप देश को किसी और भी बड़े संकट में डाल सकते हैं। ये आशंका पहले से रही है कि कमांडर इन चीफ के रूप में वे सेना को दखल देने का आदेश दे सकते हैं। देश के जीवित सभी पूर्व रक्षा मंत्रियों ने तीन दिन पहले एक बयान जारी कर कहा था कि सेना को ऐसे किसी आदेश का पालन नहीं करना चाहिए।
विश्लेषकों का कहना है कि ये तमाम बातें पहले कल्पना से बाहर थीं। लेकिन आज ये हकीकत बन गई हैं, तो इसके लिए हालात लंबे समय में बने हैं। इसके लिए प्रमुख रूप से भले ट्रंप दोषी हों, लेकिन इसका एकमात्र दोष उन पर नहीं है। ये अंदेशा भी जताया गया है कि वॉशिंगटन में बुधवार को जो हुआ, वह ऐसी आखिरी घटना नहीं है। बल्कि आने वाले दिनों में देश के अलग- अलग हिस्सों में ऐसे नजारों का सामना अमेरिका को करना पड़ सकता है।
दुनिया के सर्वाधिक विकसित और आधुनिक विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र संयुक्त राज्य अमेरिका में छह जनवरी को जो कुछ घटित हुआ वह सिर्फ अमेरिका के लिए ही नहीं बल्कि संसार के सभी लोकतांत्रिक देशों के लिए चिंता का विषय है। जो देश पूरी दुनिया को लोकतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था का पाठ पढ़ाता हो, वहां जो हुआ उसकी कल्पना किसी भी लोकतांत्रिक देश में नहीं की जा सकती। इस घटना ने अमेरिका की लोकतांत्रिक प्रणाली और उसके मूल्यों पर गहरी चोट की है।
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पूरे विश्व ने इस घटना की निंदा की और अपने ही देश में खुद डोनाल्ड ट्रंप भी अकेले पड़ गए, क्योंकि उनकी पार्टी रिपब्लिकंस का भी एक बड़ा तबका इस घटना के खिलाफ हो गया है। यहां तक पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन, जार्ज बुश, बराक ओबामा समेत अनेक लोगों ने इसकी निंदा करते हुए इसे अमेरिकी लोकतंत्र के लिए शर्मनाक बताया है। अमेरिका न सिर्फ आधुनिक विश्व का सबसे पुराना लोकतंत्र है, बल्कि उसने दो महायुद्धों के बाद विश्व में लोकतंत्र की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है और आज भी पूरी दुनिया को लोकतांत्रिक मूल्यों को विकसित और सुरक्षित करने में उसकी अहम भूमिका है, उसे देखते हुए अमेरिका में ही इस तरह की घटना दुनिया भर की लोकतांत्रिक शक्तियों के लिए एक चुनौती है।
हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस घटना पर दुख प्रकट करते हुए इसकी निंदा की है। क्योंकि अमेरिका भारत का मित्र देश है और अमेरिका की ही तरह भारत में भी लोकतंत्र की जड़ें बेहद मजबूत हैं। इस घटना से अमेरिकी कानून व्यवस्था एवं सुरक्षा तंत्र को लेकर भी एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। जिस देश का रक्षा बजट 740 अरब डॉलर से ज्यादा हो और आधुनिक संचार एवं सूचना तकनीक में जो दुनिया में सबसे आगे हो, वहां इस तरह अराजक और हिंसक भीड़ सदन के भीतर घुस जाए और तोड़फोड़ करे यह पूरे तंत्र की विफलता को भी दर्शाता है।
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अमेरिकी कांग्रेस के दोनों सदनों (सीनेट और प्रतिनिधि सभा) के संयुक्त सत्र ने राष्ट्रपति पद पर जो बाइडन के निर्वाचन को औपचारिक रूप से प्रमाणित कर दिया। हालांकि यह महज एक वैधानिक औपचारिकता है और हर बार इसे बेहद शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न किया जाता रहा है, लेकिन इस बार शुरू से ही राष्ट्रपति ट्रंप के तेवरों ने इस प्रक्रिया को पूरा करने की एक बड़ी चुनौती अमेरिकी कांग्रेस के सामने पेश कर दी थी, जिसे उसने बहुत ही संयुमित और संतुलित तरीके से पूरा किया। जिस तरह ट्रंप समर्थकों की अराजकता के बावजूद अमेरिकी कांग्रेस ने अपनी जिम्मेदारी को अंजाम दिया, उसने अमेरिका की लोकतांत्रिक व्यवस्था की जड़ों की मजबूती का ही प्रमाण दिया है। खुद डोनाल्ड ट्रंप को भी अहसास हो गया कि वह बाजी हार चुके हैं और उन्होंने 20 जनवरी को शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण के लिए अपनी मंजूरी दे दी है।
हमेशा यह पूरी प्रक्रिया शांतिपूर्ण तरीके से ही संपन्न हुई और चाहे कितना भी विरोध चुनाव में रहा हो लेकिन सत्ता हस्तांतरण हमेशा प्रसन्न और हंसी खुशी के वातावरण में ही हुआ है। अब जब ट्रंप सत्ता हस्तांतरण के लिए मान गए हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि सब कुछ ठीकठाक और शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न होगा। अंत भला तो सब भला यह मानते हुए हमें उम्मीद की जानी चाहिए कि बाइडन प्रशासन के साथ भी भारत के रिश्ते उसी तरह और मजबूत होंगे जैसे कि क्लिंटन, बुश, ओबामा और ट्रंप के शासनकाल में होते रहे हैं।
उम्मीद की जानी चाहिए कि अमेरिका में अब कोई घटना नहीं होगी जिससे वहां के लोकतंत्र को धक्का लगे। क्योंकि अमेरिकी समाज बुनियादी तौर पर एक लोकतांत्रिक और खुला समाज है जिसे इस तरह की हिंसा और अराजकता पसंद नहीं है। वहां की व्यवस्था में जो चेक एंड बैलेंस हैं उनसे दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों ने सीख ली है। भारत ने भी अमेरिकी संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था की कई सकारात्मक बातें अपनाई हैं।