मुंबई, छह दिसंबर (भाषा) बंबई उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को अपने एक आदेश में टिप्पणी की, ‘‘नाम में क्या रखा है।’’ इसके साथ ही अदालत ने महाराष्ट्र चैरिटी कमिश्नर के उस आदेश को खारिज कर दिया, जिसमें परमार्थ संगठनों के अपने नामों में ‘भ्रष्टाचार उन्मूलन’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने पर रोक लगा दी गई थी।
चैरिटी कमिश्नर द्वारा जुलाई 2018 में जारी एक परिपत्र में कहा गया था कि कोई भी ट्रस्ट या परमार्थ संगठन अपने नाम में ‘भ्रष्टाचार निर्मूलन महासंघ’, ‘भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन’, ‘भ्रष्टाचार मुक्त भारत’ या ‘मानव अधिकार’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करेगा।
परिपत्र में कहा गया था कि ऐसे नाम वाले ट्रस्ट और अन्य संगठनों को इन शब्दों को नाम से हटा देना चाहिए। चैरिटी कमिश्नर ने नियम को उचित ठहराते हुए कहा कि भ्रष्टाचार को खत्म करना सरकार का काम है, किसी निजी संस्था का नहीं।
न्यायमूर्ति एम एस सोनक और न्यायमूर्ति जितेंद्र जैन की खंडपीठ ने मानवी हक्का संरक्षण और जागृति ट्रस्ट द्वारा दायर एक रिट याचिका पर यह फैसला सुनाया, जिसमें नियम को चुनौती दी गई थी।
परिपत्र को रद्द करते हुए पीठ ने कहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई या मानवाधिकारों को बनाए रखना ‘आम सार्वजनिक उपयोगिता वाले उद्देश्य’ की परिभाषा में आता है, जिसके लिए किसी धर्मार्थ ट्रस्ट या संगठन की स्थापना की जा सकती है।
फैसले में कहा गया, ‘‘हम यह कहकर मामले को समाप्त कर सकते हैं कि नाम में क्या रखा है, काम देखना चाहिए। अगर काम गलत हो तो सख्त कार्रवाई करनी चाहिए।’’
पीठ ने कहा कि अधिकारी किसी भी ऐसे संगठन के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए स्वतंत्र हैं, जो वास्तव में ‘‘कंगारू कोर्ट’’ (अवैध अदालत) की तरह काम करता है, लेकिन यह परिपत्र कानून के तहत ‘परमार्थ उद्देश्य’ की परिभाषा के विपरीत है।
पीठ ने कहा कि ‘भ्रष्टाचार विरोधी’ या ‘मानवाधिकार’ जैसे शब्दों वाले नाम केवल यह संकेत देते हैं कि संगठन की स्थापना मानवाधिकारों और भ्रष्टाचार उन्मूलन के मुद्दे को उठाने के लिए की गई है।
फैसले में कहा गया है कि भ्रष्टाचार कैंसर बन गया है, जो न केवल आम लोगों को प्रभावित कर रहा है, बल्कि देश की आर्थिक प्रगति और नौकरशाही के कामकाज को भी बाधित कर रहा है और ‘ऐसे किसी भी चलन को प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए।
भाषा अविनाश दिलीप
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