महाराष्ट्र चुनाव : विदर्भ में किसानों की आत्महत्याएं फिर बनी मुद्दा

महाराष्ट्र चुनाव : विदर्भ में किसानों की आत्महत्याएं फिर बनी मुद्दा

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  • Publish Date - November 1, 2024 / 04:37 PM IST,
    Updated On - November 1, 2024 / 04:37 PM IST

(दीपक रंजन)

यवतमाल (महाराष्ट्र), एक नवंबर (भाषा) महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में किसानों की खुदकुशी का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। प्रदेश में विधानसभा चुनाव के चलते यह मुद्दा एक बार फिर से सुर्खियों में है। किसान सरकार से कागजी घोषणाएं करने की बजाए मुद्रास्फीति की दर के आधार पर कपास और सोयाबीन की फसलों की उचित दर सुनिश्चित करने की अपील कर रहे हैं।

विदर्भ के कृषि संकट का चेहरा बनकर उभरीं कलावती बंदुरकर ने पीटीआई .भाषा से बातचीत में सवालिया लहजे में कहा,‘‘फसल की उचित कीमत नहीं मिलती, किसान कर्ज के जाल में फंसे हैं। उनसे खुदकशी के सिवाय और क्या उम्मीद की जा सकती है?’’

कलावती बंदुरकर यवतमाल के जलका गांव में एक किसान की विधवा हैं। राहुल गांधी 2008 में जलका गांव में उनके घर गए थे। इसके बाद वह विदर्भ के कृषि संकट का चेहरा बन गई थीं। उनका आरोप था कि किसान उपज की सही कीमत न मिलने की वजह से खुदकुशी कर रहे हैं।

कलावती बंदुरकर ने कहा, ‘‘किसानों की उपज का सही दाम नहीं मिलेगा तो आत्महत्याएं कैसे रुकेंगी? किसान फसल उगाने के लिए एक-दो लाख रुपये कर्ज लेते हैं। खेती करते हैं, लेकिन बदले में उन्हें क्या मिलता है? कपास की कीमतें 10 साल से जस की तस बनी हुई हैं। सोयाबीन के रेट भी वही हैं। किसानों के लिए उपज की कीमत में कोई बदलाव नहीं हुआ है।’

उनका कहना था, ‘ किसानों को उनकी फसलों की बेहतर कीमत मिलती तो वे समृद्ध होते और खुदकुशी नहीं करते, लेकिन अब किसान कर्ज के जाल में फंसे हुए हैं। आप उनसे खुदकुशी के सिवाय और क्या उम्मीद करते हैं।’

विदर्भ क्षेत्र कपास और सोयाबीन की खेती के लिए मशहूर है। पिछले कुछ दशकों में बेमौसम बारिश, कम न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी), फसल की कीमत में गिरावट और महंगाई की वजह से किसानों की आत्महत्या के मामले बढ़े हैं ।

किसानों का कहना था कि किसानों की आत्महत्याओं की समस्या के आधे-अधूरे ‘समाधान’ और इस संकट से निपटने के लिए एक व्यापक रणनीति की कमी ने इसे गंभीर बना दिया है। उनकी पीड़ा यह है कि बैंकों से रिण मिलने में कठिनाई और साहूकारों पर निर्भरता के कारण कर्ज में दबे किसान कोई चारा न देख कर जिंदगी खत्म कर देते हैं।

2001 से महाराष्ट्र सरकार विदर्भ के छह जिलों- अमरावती, अकोला, यवतमाल, वाशिम, बुलढाणा और वर्धा में आत्महत्या करने वाले किसानों का आंकड़ा रख रही है । पिछले दो दशक में इन जिलों में 22 हजार से अधिक आत्महत्याएं हुई हैं।

अमरावती संभागीय आयुक्तालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2024 में जनवरी से जून तक संभाग में कुल 557 किसानों ने आत्महत्या की। इनमें से सबसे अधिक 170 आत्महत्याएं अमरावती जिले में दर्ज की गईं। इसके बाद यवतमाल में 150, बुलढाणा में 111, अकोला में 92 और वाशिम में 34 किसानों ने आत्महत्या की।

सामाजिक कार्यकर्ता नितिन खडसे ने कहा ‘यहां किसानों की आत्महत्या एक बड़ा विषय रहा है। 10-15 साल से क्षेत्र के किसान एक ही दर पर अपनी फसल बेच रहे हैं। उन्हें फसल का सही दाम नहीं मिल रहा है।’’

उन्होंने कहा कि कपास का दाम कम से कम 10,000 रूपये प्रति क्विंटल के ऊपर होना चाहिए था लेकिन यह करीब सात हजार रूपये है। सोयाबीन के रेट भी काफी नीचे हो गए। अभी सोयाबीन 4,000 रू के अंदर बेच रहे हैं। लेकिन उर्वरक, कीटनाशक की कीमतें काफी बढ़ गई हैं। मजदूर नहीं मिल रहे हैं और मजदूरी दर लगातार बढ़ रही है। किसान एक ही दर पर हर साल माल बेचेंगे तो उनके पास पैसा कहां से आएगा?

खडसे ने कहा कि खेती की लागत बढ़ गई है लेकिन कीमत नहीं मिल रही है। ऐसे में उनका परिवार नहीं चल पा रहा है। बहुत सारी समस्याएं हैं।

जलका गांव के किसान पुरूषोत्तम डांगे ने बताया, ‘‘ बेमौसम बारिश में फसल खराब हो जाती है। माल का भाव नहीं है। क्या करें? कपास का भाव नहीं है। कपास के लिए बहुत सारा खर्चा करना पड़ता है। सोयाबीन के एक बैग बीज के लिए 4,000 देना पड़ता है। 1,500 रुपये खाद की कीमत है। और भाव क्या मिल रहा है… 4,000 रुपये प्रति क्विंटल। क्या करेंगे?’

यवतमाल में किसान मुख्य रूप से कपास और सोयाबीन की खेती करते हैं और पिछले कई वर्षो से विभिन्न कारणों से सोयाबीन की उपज में गिरावट देखी गई है। किसान 4000 रूपये प्रति क्विंटल की दर से सोयाबीन बेचने को मजबूर हो रहे हैं और बैंकों से रिण मिलने में कठिनाई के कारण काफी संख्या में किसानों को छोटे रिण के लिए निजी वित्तीय कंपनियों और साहूकारों पर निर्भर रहना पड़ता है जो इनसे भारी ब्याज पर वसूली करते हैं।

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव अगले महीने हैं। इससे पहले जिले में कपास किसानों की गंभीर हालत फिर से एक मुद्दा बन गयी है। किसानों का कहना था कि संकट के मूल कारणों से निपटने के लिए सरकार फौरन असरदार नीतियां बनाकर उन्हें लागू करे और संकट में फंसे किसानों की जल्द मदद की प्रक्रिया तय करे।

भाषा दीपक नरेश

नरेश