भोपाल : MP Politics: क्या दलित होना गुनाह है? ये सवाल इसलिए क्योंकि 21वीं सदी के भारत में दलित होने के नाम पर अगर कोई सजा दे, तो क्या हम इसे मंजूर करेंगे पर मप्र में बार-बार लगातार ये हो रहा है। छतरपुर जिले में एक बार फिर दलित व्यक्ति को भगवान की पूजा करने और प्रसाद बांटने पर सजा दी गई। उसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया। ये न कोई पहला मामला है और न ही शायद आखिरी संविधान हमें बराबर मानता है। धर्म सबको एक समान देखता है। तो ये भेद करने वाले और छोटे-बड़े की लकीर खींचने वाले कौन हैं। कौन इन्हें ताकत दे रहा है? कौन इन्हें अधिकार दे रहा है? क्यों बार-बार मप्र में दलितों के साथ अमानवीय बरताव हो रहा है। हमको आपको हम सबको इसके खिलाफ आवाज तो उठानी होगी। क्योंकि ये जान लीजिए कि आज अगर खामोश रहे तो कल सन्नाटा होगा।
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MP Politics: ये सवाल लाजमी है क्योंकि 21वीं सदी में भी दलित होने का दंश झेलना पड़ रहा है। सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है। सुनने में ये आपको भी हैरान करता होगा कि यही सच है। कुछ यही हुआ है, छतरपुर में। मामला अतरार गांव का है जहां तलैया बब्बा मंदिर में प्रसाद चढ़ाकर लोगों को बांटना जगत अहिरवार को मंहगा पड़ गया। गांव के सरपंच ने दलित परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया। इसी के साथ प्रसाद खाने वालों को भी शादी-विवाह में बुलाने पर रोक लगा दी। प्रसाद पिछले साल 20 अगस्त को चढ़वाया गया था। चढ़ाया भी पंडित जी ने था, लेकिन तब से लेकर अब तक जगन अहिरवार और उसका परिवार समाज से बहिष्कृत है। अब पीड़ित ने SP से शिकायत कर सरपंच पर कार्रवाई की मांग की है।
अब मामला दलितों से जुड़ा हो, तो सियासी पारा तो हाई होना ही था। हुआ भी ऐसा ही फिर वही राजनीतिक तलवारें खिंच गई। सरकार कह रही है कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। कड़ी कार्रवाई होगी, तो विपक्ष ने फिर से इसे सरकार का दलित विरोधी चेहरा करार दिया तो साथ ही मनु स्मृति की भी याद दिला दी गई।
MP Politics: हालांकि इस मामले के सामने आने के बाद अब पुलिस की तरफ से गांव में चौपाल लगाकर समाझाइश दी जा रही है, लेकिन 21 वीं सदी में भी यदि कहीं छुआछूत और जातिवाद हावी है। यदि आज भी छोटी जाति के लोगों के लिए मंदिर में प्रवेश और प्रसाद चढ़ाने पर रोक है, तो सवाल उठना तो लाजमी है कि आखिर ये कैसे समाज में हम जी रहे हैं। एक तरफ हम चांद पर जाने का माद्दा रखते हैं तो दूसरी तरफ एक दलित के प्रसाद चढ़ाने पर उसका बहिष्कार करते हैं। सवाल ये भी कि तमाम वादों-दावों, योजनाओं से इतर क्या वाकई दलितों की सूरत, उनके हालात आज भी नहीं बदले हैं क्या?