#ATAL_RAAG षड्यंत्र – त्रासदी की अंतहीन दास्तानों से भरी विभाजन….!

षड्यंत्र – त्रासदी की अंतहीन दास्तानों से भरी विभाजन…!

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल,

15 अगस्त सन् 1947 को भारत अंग्रेजी उपनिवेश से स्वतन्त्र हो गया, लेकिन यहाँ तक आने के साथ ही भारत विभाजन की विभीषिका के स्याह पन्ने झकझोर कर रख देते हैं। स्वतन्त्रता संग्राम में जिन वीर – वीराङ्गनाओं ने अंग्रेजों से लड़ाई लड़ते हुए अपना प्राणोत्सर्ग कर दिया। क्या 15 अगस्त को मिली स्वतन्त्रता उनके अनुसार थी? जब इतिहास के पन्नों पर दृष्टि डालते हैं तो असह्य वेदना का ज्वार स्वमेव उत्पन्न होने लगता है। तत्कालीन कालखण्ड के नेतृत्व एवं उनकी भूमिकाओं पर आधारित सत्य जब मुखरित होता है तो कई सारे प्रश्न उभरते हैं। क्या जब भारत शासन अधिनियम 1935 के अंतर्गत पृथक साम्प्रदायिक निर्वाचनों को कांग्रेस ने स्वीकार कर लिया और उसमें हिस्सा लिया । क्या इसी से भारत के विभाजन की नींव रख गई थी ? और अंग्रेज जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद — भारत को 1948 में स्वतंत्र करने की बात कह रहे थे। तो फिर ऐसा क्या हुआ कि एक वर्ष पूर्व 1947 में ही वे धार्मिक आधार पर देश का बंटवारा करने में सफल हो गए। फिर देश ‘विभाजन की विभीषिका’ के साथ स्वतंत्र हुआ।

 

क्या उस समय भारत की नियति को — माउंटबेटन, रेडक्लिफ, नेहरू , एडविना , जिन्ना और मुस्लिम लीग निर्धारित कर रहे थे ? महात्मा गांधी और सरदार पटेल जैसे नेतृत्व को आखिर क्यों और कैसे अप्रासंगिक सा! बना दिया गया था? नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस द्वारा ‘जिन्ना व अंग्रेजों द्वारा’ किए जाने वाले भारत विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार करना ; क्या किसी भी ढंग से – कभी भी उचित ठहराया जा सकेगा? और फिर जिन्ना से छुटकारा पाने की नेहरू की जिद के चलते — नेहरू द्वारा भारत विभाजन को स्वीकार किया जाना। भारत विभाजन के बाद हुए दंगों एवं पाकिस्तान बनाने वाली मुस्लिम लीग के नापाक मंसूबों को जानते हुए भी, गैर मुस्लिम आबादी को मौत के मुंह में झोंकना। उनके पुनर्वास – स्थानांतरण की समुचित व्यवस्था न करना। क्या यह नेहरू की अक्षमता – अकर्मण्यता – अदूरदर्शिता और मुस्लिम तुष्टिकरण में मदांध प्रवृत्ति का परिचायक नहीं है? और इसके चलते देश ने जो खामियाजा भुगता। उस समय अनगिनत हिन्दुओं – सिखों का नरसंहार – पाकिस्तान के हिस्से में हुआ। उसका दोषी कौन है? भारत विभाजनकारी – मुस्लिम तुष्टिकरण की मानसिकता के कितने भयावह दुष्परिणाम देश को भुगतने पड़े। आइए उन सब पर क्रमशः प्रकाश डालते हैं।

इन समस्त घटनाक्रमों की पड़ताल करने के सम्बन्ध में माउंटबेटन के प्रेस सलाहकार रहे एलन कैंपबेल-जोहानसन की पुस्तक ‘मिशन विद माउंटबैटन’ से कुछ गम्भीर तथ्य उभरकर सामने आते हैं।इन तथ्यों से हम उस समय की वस्तुस्थितियों पर तथ्यात्मक ढंग से प्रकाश डालेंगे। इस पुस्तक के अनुसार जोहानसन ने 1 जून 1947 को अपनी मां को एक पत्र लिखकर कहा कि — “यहां हम महत्वपूर्ण घटनाओं के द्वार पर खड़े हैं और सत्ता हस्तांतरण के बारे में माउंटबेटन की ऐतिहासिक घोषणा की प्रचार व्यवस्था को अंतिम रूप देने के काम में निरंतर डूबा हुआ हूँ। वातावरण बहुत ही क्षुब्ध है और अगर फैसला विभाजन के पक्ष में हुआ – जैसा कि निश्चित सा है – तो बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे हो सकते हैं।”

जोहानसन ने आगे लिखा, — “यह बात ध्यान देने योग्य है कि गुस्सा अंतरिम और आपसी है। अंग्रेज हिन्दू और मुसलमानों दोनों में जितने लोकप्रिय आज हैं, उतने पहले कभी नहीं थे।”

साथ ही पुस्तक में जवाहरलाल नेहरू की भूमिका पर जो सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न जोहानसन उठाते हैं, उसे समझने पर स्थिति और भी अधिक स्पष्ट हो जाएगी। जोहानसन ने पंडित जवाहरलाल नेहरू का जिक्र करते हुए लिखा कि — “नेहरु कहते हैं मोहम्मद अली जिन्ना को पाकिस्तान देकर वह उनसे मुक्ति पा लेंगे। वह कहते हैं कि ‘सिर कटाकर हम सिरदर्द से छुट्टी पा लेंगे।’ उनका यह रुख दूरदर्शितापूर्ण लगता था क्योंकि अधिकाधिक खिलाने के साथ-साथ जिन्ना की भूख बढ़ती ही जाती थी।”

माउंटबेटन के प्रेस सलाहकार रहे एलन कैंपबेल-जोहानसन के इस पत्र से प्रमुख रूप से कुछ बातें सामने आती हैं। इन बातों पर ध्यान देना,और उनके उत्तरों के विषय में विमर्श आवश्यक प्रतीत होता है। यदि भारत को अगस्त 1947 में ही स्वतन्त्र होना था , तो अंग्रेजों द्वारा ‘स्वतन्त्रता के स्थान पर ‘सत्ता हस्तांतरण’ शब्द क्यों लिखा और कहा जा रहा था? और माउंटबेटन की योजना — ‘सत्ता हस्तांतरण’ के रूप में ही क्यों प्रचारित की जा रही थी? यदि धार्मिक आधार पर भारत विभाजन से पूर्व ही अंग्रेजों का साम्प्रदायिक दंगों को लेकर इतना स्पष्ट अंदाजा था। तो क्या भारतीय नेताओं को इसका अंदाजा नहीं रहा होगा? तो ऐसा क्या हुआ कि — वीभत्स नरसंहार की कीमत पर विभाजन को स्वीकार कर लिया गया? और जब विभाजन हो गया — तो फिर इन दंगों को रोकने के समुचित प्रयास क्यों नहीं किए गए ?

 

आखिर ऐसा क्यों हुआ कि – देश की जिस स्वतन्त्रता के लिए असंख्य क्रांतिकारियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। अपने प्राणों की आहुति दी। जेलों की मर्मांतक यातनाएं सहीं। 1947 की अवधि आते – आते माउंटबेटन के साथ सांठ-गांठ कर – कांग्रेस और मुस्लिम लीग के ये नेता अंग्रेजों के दोस्त बन गए? और इन्होंने देश का विभाजन स्वीकार कर लिया। क्या पंडित जवाहरलाल नेहरू के लिए भारत विभाजन एक खेल मात्र ही था ? क्या नेहरू ने केवल जिन्ना से छुटकारा पाने के लिए देश को ही विभाजित करना स्वीकार कर लिया? और विभाजन के समय लाखों-करोड़ों हिन्दुओं/ सिखों ( गैर मुस्लिमों) को मरने-मारने के लिए छोड़ दिया। और जब उन सांप्रदायिक दंगों से लेकर सड़कों पर जानवर – इंसानी मृत शरीरों को नोचने पर जुट गए थे। क्या उस समय इस वीभत्स अपराध के दोषियों को चैन की नींद आ रही थी?

इसी पुस्तक से उस दौरान की एक और घटना को उध्दरित करना आवश्यक है। आखिर जब देश विभाजन, दंगों, गरीबी – भुखमरी की अंतहीन त्रासदियों से जूझ रहा था। उस समय भारत विभाजन के ये गुनहगार क्या कर रहे थे? दरअसल , उस दौरान वायसराय भवन यानी आज के राष्ट्रपति भवन में प्रायः बैठकों का दौर चलता ही रहता था। इन बैठकों में कांग्रेस सहित मुस्लिम लीग के सभी बड़े नेता शामिल हुआ करते थे। कैंपबेल-जोहानसन के अनुसार —

“ ये सभी नेता ( कांग्रेस व मुस्लिम लीग के नेता) अमेरिकी कारों में सवार होकर आते थे।”

उस समय जब अंग्रेज भारत विभाजन/ आजादी की रुपरेखा निर्धारित करने के लिए बैठकें आयोजित कर रहे थे। उस समय के इन तथाकथित नेतृत्वकर्ताओं का ‘आजादी के नाम पर विभाजन’ और महंगी गाड़ियों का शौक होना क्या जायज ठहराया जा सकता है? जबकि वह दौर भारत के इतिहास का सबसे कठिन एवं दरिद्रता – विपन्नता के संकट से जूझने वाला था।

ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार यह बात देश के कितने लोगों को पता है कि — उस समय भी पंडित जवाहरलाल नेहरु आमतौर पर ‘रोल्स रॉयल्स’ कार में यात्राएं करते थे। इस सन्दर्भ में इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि — यह कार एलिजाबेथ ने माउंटबेटन को उपहार में दी थी। और माउंटबेटन ने इस ‘रोल्स रॉयल्स’ कार को नेहरु को दिया था। सोचिए यह सब कैसे संभव हो रहा था? एक ओर नेहरु स्वतंत्रता के महान नेता और दूसरी ओर भारत विभाजन की विभीषिका रचने वाला वायसराय माउंटबेटन — नेहरू को इतनी महंगी गाड़ी, उपहार में दे रहा था। इतना ही नहीं जब देश का बंटवारा हो गया। उस समय विभाजन से उत्पन्न दंगों – नरसंहार के बीच 15 अगस्त 1947 को स्वतन्त्रता का जश्न मनाया जा रहा था। लेकिन इसी बीच देश में कुछ और भी हो रहा था,इसे जानना आवश्यक है। एलन कैंपबेल- जोहानसन लिखते हैं कि— “उस दिन दिल्ली की सड़कों पर ‘जय हिन्द’, ‘माउंटबेटन की जय’ और कहीं-कहीं पंडित माउंटबेटन की जय’ के नारे लग रहे थे।”

भारत की स्वाधीनता लिए 15 अगस्त यह दिन महत्वपूर्ण था। लेकिन तत्कालीन परिदृश्य की वस्तुस्थितियों के आधार पर यदि उपर्युक्त नारे पर चर्चा की जाए। तो क्या बात सामने उभरकर आती है? जब उस समय देश का एक बड़ा हिस्सा विस्थापन और विभाजन का दंश यानि विभीषिका की त्रासदियों से जूझ रहा था। उस समय वे कौन लोग थे जो इस अमानवीय क्रूरता ( विभाजन विभीषिका) के जिम्मेदारों – गुनहगारों के पक्ष में नारे लगा रहे थे? क्या वे कांग्रेस के ही लोग थे ? यह प्रश्न अब भी यक्ष प्रश्न बना हुआ है।

तत्कालीन कालखंड में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद अंग्रेजों को देश से खदेड़ने के लिए भारत की जनता आर- पार की लड़ाई में आ चुकी थी। राष्ट्रीयता के मन्त्र से दीक्षित स्वातन्त्र्य वीर-वीराङ्गनाएँ राष्ट्र की स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेने के लिए उद्यत हो चुके थे। स्वातन्त्र्य वीर सावरकर – नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आदि की विचार भूमि पर आधारित सशस्त्र क्रान्ति के आन्दोलन से अंग्रेज भयभीत हो चुके थे। इसी बीच जब अंग्रेजों को यह स्पष्टता हो गई कि वे अधिक दिन भारत में शासन नहीं कर सकते हैं। तो वे ब्रिटिश कैबिनेट मिशन के रूप में भारत में हिन्दुस्तानी सरकार की घोषणा के लिए अंग्रेज बाध्य हो गए। इस सम्बन्ध में ध्यातव्य है कि “द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन की कमजोर स्थिति ने भारत में स्वतंत्रता की राह सरल कर दी थी। जल्दी ही भारत के स्टेट सेक्रेटरी, पैथिक लारेंस ने 19 फरवरी 1946 को स्वशासन की दिशा में एक घोषणा की। ”
( यूनाइटेड किंगडम की संसद, भारत में कैबिनेट, 19 फरवरी 1946 )

ब्रिटिश कैबिनेट मिशन के अंतर्गत ब्रिटिश संसद ने तीन महत्वपूर्ण कदम उठाने के लिए निर्णय लिया था। पहला – संविधान तैयार करने के लिए ब्रिटिश भारत के निर्वाचित प्रतिनिधियों और रियासतों के साथ प्रारंभिक चर्चा करना। दूसरा -संविधान बनाने के लिए एक निकाय या व्यवस्था का गठन करना।और तीसरा यह कि एक ऐसी एग्जीक्यूटिव काउंसिल बनाना – जिसे मुख्य भारतीय दलों का समर्थन मिला हुआ हो।

इस सम्बन्ध में वी.पी. मेनन की पुस्तक से यह तथ्य सामने उभरकर आता है —“इसके लिए 24 मार्च को तीन वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारियों का एक कैबिनेट मिशन भारत आया। उन्होंने भारतीय नेताओं और रियासतों के महाराजाओं अथवा उनके प्रतिनिधियों से मिलना शुरू किया। अधिकतर रियासतों ने मिशन से वादा किया कि वे भारत में हो रहे इन परिवर्तनों में सहयोग देने के लिए तैयार है।”
( वी.पी. मेनन, द ट्रांसफर ऑफ पॉवर इन इंडिया, लॉन्गमैंन : बॉम्बे, 1957, पृष्ठ 264 )

अनेक मुलाकातों और उठा-पठक के बाद 16 मई को ब्रिटिश संसद ने कैबिनेट मिशन की रिपोर्ट के आधार पर भारत में संविधान सभा के गठन की सूचना दे दी थी। और इस प्रकार से इसके अन्तर्गत ए, बी,सी सहित ब्रिटिश चीफ कमिश्नर प्रांत और देशी रियासतों के प्रतिनिधित्व के प्रावधान किए गए थे।

भारत में तीन महीने व्यतीत करने के पश्चात कैबिनेट मिशन वापस लौट गया , और कांग्रेस ने इसकी सभी शर्तें मान ली थीं। वहीं वर्ष 1937 की भांति ही कैबिनेट मिशन को लेकर भी जवाहरलाल नेहरू अतिशय आतुरता दिखला रहे थे। इस सम्बन्ध में ये प्रमुख तथ्य सामने उभरकर आते हैं – “कांग्रेस कार्यसमिति की 6 जुलाई को बम्बई में बुलाई गयी बैठक में जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि यह प्रश्न अभी अथवा बाद में मिशन की शर्तों को मानने का नहीं हैं। यह केवल संविधान सभा में प्रवेश की सहमति का प्रश्न है।”
( वी. पी. मेनन, द ट्रांसफर ऑफ़ पॉवर इन इंडिया, लॉन्गमैंन : बॉम्बे, 1957, पृष्ठ 280 )

चैम्बर ऑफ प्रिंसेस की स्थाई समिति की बैठक में मिशन का स्वागत किया गया। कुछ शर्तों को स्पष्टीकरण के लिए जरूरी समझा गया और उसके लिए 21 नवम्बर को वार्ता – समिति बना दी गयी। इसमें चैम्बर के चांसलर भोपाल के नवाब के साथ पटियाला के महाराजा, नवानगर के जामसाहेब, सी.पी. रामस्वामी अय्यर, सुल्तान अहमद, मिर्ज़ा इस्माइल, डी.के. सेन, ए. रामस्वामी मुदालियार, के. एम. पणिक्कर, विलासपुर के राजा (मनुभाई मेहता के स्थान पर), डूंगरपुर के महरवाल (डूंगरपुर के महाराजा विदर्भ सिंह के स्थान पर), वी.टी. कृष्णमाचारी और रामचंद्र काक शामिल थे। हालांकि, चैम्बर पूरी तरह से सभी रियासतों का प्रतिनिधित्व नहीं करता था। कुछ रियासतें इसमें शामिल भी नहीं होना चाहती थी। कोचीन और बड़ौदा ऐसी रियासतें थी जिन्हें व्यक्तिगत तौर पर बातचीत करना अनुकूल लगा।
( एस. एम. गोखले, इंडियन स्टेट्स एंड कैबिनेट मिशन प्लान, पृष्ठ 61)

इस समय तकब्रिटिश संसद ने लगभग यह तय कर लिया था कि भारत का नया संविधान भारतीय ही तैयार करेंगे। और गठित होने वाली संविधान सभा में भी केवल भारतीय शामिल होंगे।हालांकि इस सम्बन्ध में आवश्यक शर्तों को अधिनियमित करने की शक्ति ब्रिटिश संसद के पास ही थी। आगे चलकर नेहरू की अदूरदर्शिता-अतिशय आतुरता के कारण परिणाम विभाजन के पक्ष में सामने आए।

जब जुलाई 1946 में संविधान सभा के गठन के लिए ब्रिटिश भारत में चुनाव हुए। तो कांग्रेस को सामान्य सीटों में बहुमत मिला जबकि मुस्लिम लीग मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों की 78 सीटों में से 72 में जीती। इसके पूर्व 1937 के साम्प्रदायिक चुनावों से भी नेहरू ने कोई सबक नहीं लिया। और मुस्लिम ली ग1946 के इन नतीजों से भारत विभाजन की आग से देश को दहलाने में जुट गई थी। जिन्ना ने 16 अगस्त 1946 से ही ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ का ऐलान करते हुए मुसलमानों को हिन्दुओं का नरसंहार करने के लिए निर्देशित कर दिया। सुहरावर्दी सहित तमाम मुस्लिम नेता हिन्दुओं के नरसंहार, बलात्कार, क्रूरता की पराकाष्ठाओं की अति पर उतारू हो चुके थे। इसकी वीभत्सकारी भयावहता तत्कालीन पंजाब व बंगाल क्षेत्र सहित मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में सर्वाधिक थी।

इस सन्दर्भ में यह ऐतिहासिक तथ्य भी महत्वपूर्ण है —
“मिशन के अनुसार संविधान सभा एकीकृत थी, जिसमें कांग्रेस, मुस्लिम लीग, अन्य दलों और रियासतों को शामिल होना था। शर्तों के अनुसार मुसलमानों के लिए अलग से कोई संविधान सभा नहीं थी। दूसरी ओर मुस्लिम लीग की एक अलग और पूरी तरह से स्वतंत्र संप्रभु देश की मांग भयावह रूप ले चुकी थी। मोहम्मद अली जिन्ना ने लीग के निर्वाचित सदस्यों को दिल्ली बुलाया। उन्होंने बंगाल, पंजाब, सिंध, नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस, असम और बलूचिस्तान को जोड़कर पाकिस्तान की मांग के साथ संविधान सभा में कभी हिस्सा न लेने की प्रतिज्ञा भी ली।”
( चौधरी खालिकज्मान, पाथवे टू पाकिस्तान, लॉन्गमैंन : लाहौर, 1961, पृष्ठ 340-41)

उस समय अन्य दलों और सशक्त कांग्रेसी नेताओं का मत था कि संविधान सभा का सत्र मुस्लिम लीग के बिना नहीं बुलाना चाहिए। और ब्रिटिश सरकार ने भी यह स्पष्ट कर दिया था कि बिना लीग के संविधान सभा नहीं बुलाई जाएगी। लेकिन नेहरू और उनके सहयोगियों पर अपनी ही सनक हावी थी। वे तो सितम्बर 1946 में ही पहला सत्र बुलाना चाहते थे। लेकिन 9 दिसंबर 1946 को संविधान सभा का पहला सत्र आहुत हुआ। जबकि इसमें मुस्लिम लीग , रियासतों की ओर से कोई भी प्रतिनिधि शामिल नहीं हुए। जवाहरलाल नेहरू की इस हठधर्मिता का परिणाम यह हुआ कि – भारत का विभाजन अपने आखिरी चरणों में पहुंच गया।

भारत विभाजन के अगले अध्याय के रूप में 20 फरवरी 1947 को ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स में भारत की स्वतंत्रता को लेकर चर्चा हुई। और ठीक, इसी दिन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने कहा था कि – जून 1948 से पहले हिंदुस्तानी सरकार को सत्ता सौंप दी जाएगी। हालांकि उस समय अंग्रेजों की सोच भारत को सम्पूर्ण रूप से स्वतन्त्र करने की नहीं थी। बल्कि ‘डोमेनियन स्टेट’ के रूप में ब्रिटेन के प्रभुत्व पर संचालित करने की थी। जो 15 अगस्त 1947 से लेकर 25 जनवरी 1950 तक यानि संविधान लागू होने के पूर्व तक ‘डोमेनियन स्टेट ‘ के रूप में कार्यरत रहा। 15 अगस्त 1947 से लेकर 21 जून 1948 तक लार्ड माउंटबेटन स्वतंत्र भारत के गर्वनर जनरल रहे। और गवर्नर जनरल के रूप में लार्ड माउंटबेटन का अनुमोदन उनके खास वफादार जवाहरलाल नेहरू की अस्थायी सरकार वाली कैबिनेट ने किया था।

भारत को डोमेनियन स्टेट के रूप में स्वतंत्र करने के लिए क्लीमेंट एटली ने तत्कालीन गवर्नर वेवल का त्वरित इस्तीफा लिया था। और उसके स्थान पर माउंटबेटन को भारत का गवर्नर जनरल बनाए जाने की बात एटली ने ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स में बताई थी। और यहीं से क्लीमेंट एटली – माउंटबेटन के खतरनाक मंसूबों का क्रम प्रारम्भ हो जाता है, जिसकी परिणति अन्ततोगत्वा भारत विभाजन की विभीषिका के रूप में हुई। डॉ. भीमराव अम्बेडकर की ‘पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक का पहला संस्करण 1945 में आया था। इसमें उन्होंने सन् 1945 में ही सचेत कर दिया था कि — “अगर भारत का विभाजन होता है तो पाकिस्तान में हिन्दुओं और सिखों का भविष्य सुरक्षित नहीं रहेगा।” लेकिन भारत विभाजन के गुनहगारों के लिए सत्ता लोलुपता प्रथम प्राथमिकता में थी। अतएव उन्होंने शुतुरमुर्ग की भांति रेत में सिर धंसाए हुए भारत का बंटवारा होने दिया। और वीभत्स नरसंहारों से देश की धरती को रक्तरंजित होने दिया..!

~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
( लेखक IBC 24 में असिस्टेंट प्रोड्यूसर हैं )

 

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