राजनीति में जो होता है हमेशा उसका मतलब वही हो यह जरूरी नहीं। द्रोपदी मुर्मू को देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति के रूप में देखा जा रहा है। वे फिलहाल एनडीए की ओर से बतौर प्रत्याशी मैदान में हैं। 21 जुलाई को फैसला हो जाएगा। मुर्मू को लेकर तमाम जानकारियां साझा की जा रही हैं। इनमें सबसे खास हैं वो फोटो और वीडियो जो उनकी घोषणा के तुरंत बाद शेयर किए गए। इनमें मुर्मू मंदिर में झाड़ू लगाती दिख रही हैं, तो कहीं शिव मंदिर में नंदी के कान में कुछ कहते हुए दिख रही हैं। बाद में मुर्मू के बहुत सारे चित्र आए, किंतु शुरुआत में यही दिख रहे थे। क्या इसका कोई मतलब है या यह महज एक संयोगभर है। यह चित्र किसी खास मकसद से ही जारी किए गए हैं, इसका प्रमाण ये है कि नवीन पटनायक ने अपनी इटली में पॉप से भेंट का फोटो इसी समय जारी किया है। बीजद ओडिशा के लगभग 3 फीसद ईसाइयों को यह संदेश नहीं देना चाहती कि उन्होंने मुर्मू का समर्थन धर्मांतरण वाले एंगल से किया है, बल्कि वे सिर्फ आदिवासी और ओडिशा मूल के कारण समर्थन में हैं। ये दो नेताओं की दो अलग तरह की फोटोज भी कुछ कह रही हैं।
प्रतीकों की सियासत के जादूगर मोदी चुनावी सियासत के बड़े तीरंदाज भी हैं। उनके तरकश में एक-एक तीर कइयों निशानों को साधने में सक्षम हैं। मुर्मू के शुरुआती इन चित्रों के पीछे की सियासत को सीधे तौर पर न सही किंतु परोक्ष रूप से धर्मांतरण सरकार की अहम पहल के रूप में जरूर देखना चाहिए।
इन फोटो और वीडियो को मैं धर्मांतरण से जोड़कर क्यों पेश कर रहा हूं, यह जानने के लिए आप पहले ये कहानी सुनिए। भारत में आजाद होते ही ईसाई मिशनरियों की संख्या में दोगुना दर से इजाफा हुआ था। प्यू इंडिया की रिपोर्ट कहती है साल 1942 से 1947 तक जहां भारत में 2271 ईसाई मिशनरियां काम कर रही थी तो 1947 से 1952 के बीच इनकी संख्या बढ़कर 4683 हो गई। यह तबका राजनीतिक रूप से बड़ा विषय बन गया था। इस विषय पर जहां तब के राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, गृहमंत्री केएन काटजू समेत राज्यों के नेता मुखर हो रहे थे तो वहीं नेहरू इसे सेकुलरिज्म के विरुद्ध मान रहे थे। यह मसला लगातार 4-5 सालों तक छाया रहा। अंततः सरकार ने 1955 में स्पष्ट किया कि जो मिशनरियां हैं वे रहेंगी, लेकिन बाहर से आने वालों को पहले भारत सरकार को बताना होगा। साथ ही यह भी हिदायत दी गई कि उनकी किसी भी गतिविधि में धर्मांतरण की चाहत नहीं झलकनी चाहिए। यह वो दौर था जब भारत में धर्मांतरण 29 फीसद की सर्वाधिक ऊंची दर से बढ़ा था। इसके बाद से लगातार घटकर यह 17 फीसद तक रहा। लेकिन एक बार फिर 1991 से 2001 के बीच में यह दर 22 फीसद तक जा पहुंच गई थी। अभी हाल ही आंकड़े कहते हैं, धर्मांतरण की दर 1947 से 2022 के बीच सबसे कम अब 2001 से 2011 के बीच 15 फीसद पर है। इन 70-75 वर्षों में भारत में कुल ईसाई जनसंख्या एक छत्तीसगढ़ राज्य के बराबर यानी 3 करोड़ तक पहुंच चुकी है। इस आंकड़े को लेकर अलग-अलग एजेंसियों में मतभिन्नता है। कुछ इसे 3 करोड़ 18 लाख तक मानती हैं, तो कुछ 3 करोड़ 40 लाख। जबकि 2011 के सेंसस के मुताबिक यह 2 करोड़ 78 लाख है।
यह कहानी हमें बताती है कि भारत में धर्मांतरण का मसला 70 सालों से भी अधिक पुराना है। ईसाई स्कॉलर इसे धर्मांतरण न मानकर स्वप्रेरणा मानते हैं। वे कहते हैं जनजातिय समाज का कोई धर्म नहीं होता। उनकी मान्यता है कि सन 52 में भारत में सबसे पहले सेंट थॉमस के रूप में ईसाई आए थे। वे केरल के मलबार तट पर रहे। इसे डॉक्यूमेंटेड बताया जाता है और उनकी हर वर्ष भारत आगमन की एनिवर्सिरी भी मनाई जाती है।
सबसे ज्यादा धर्मांतरण भारतीय जनजातियों में हुआ है। प्यू की रिपोर्ट कहती है, भारत में ईसाई बनने वालों में 9 फीसद अनुसूचित जाति और 33 फीसद अनुसूचित जनजाति के लोग हैं। जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग में आने वाली ईसाइयों की संख्या 25 फीसद है। सामान्य में आने वाले ईसाई 33 फीसद हैं। लेकिन यह आंकड़े सही नहीं लगते, क्योंकि नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की 2015 की रिपोर्ट में 21 फीसद दलितों ने खुद को ईसाई बताया था। यह आकड़ा भयावह है। वहीं जनजातियों में यह संख्या 30 फीसद के पार हो सकती है। इसका अर्थ साफ है, हिंदू या सनातनी समाज में जनजातियों को महत्व नहीं मिल रहा। नतीजतन वे धर्मांतरित हो रहे हैं। मुर्मु को पूजा करते हुए दिखाने से यह तर्क कमजोर होगा।
केरल के बाद सबसे ज्यादा ईसाई आबादी वाले राज्य पूर्वोत्तर में हैं। संख्या के हिसाब से यह भले ही कम हैं, लेकिन प्रतिशत में यह सबसे ज्यादा हैं। ईसाई जनसंख्या में 1951-61 के बीच 29 फीसद की दर से वृद्धि हुई थी। जबकि 1961-71 में सबसे ज्यादा 33 फीसद। 1971-81 में 17 फीसद। 1981-91 में 17.8 फीसद। 1991-01 में 22.6 फीसद और 2001-2011 के बीच यहदर 15.7 फीसद रही है। अनुमान है कि 2050 तक भारत में ईसाइयों की आबादी 18 फीसद तक हो जाएगी। इसमें 37 मिलियन की वृद्धि हो सकती है। आंकड़ों को देखें तो यह दर सामान्य जन्मदर की तुलना में बहुत ज्यादा है। जन्मदर से बढ़ने वाली आबादी की वृद्धि दर मृत्युदर में से सामान्य घटत के साथ 10 वर्षों में अधिकतम 5 फीसद तक ही हो सकती है। जबकि ईसाई आबादी की वृद्धिदर 15 फीसद से नीचे कभी नहीं रही।
मुर्मू का चयन एक तो जनजातिय समाज में बढ़ते धर्मांतरण के प्रभाव को कम करने के लिए मूल रूप से किया गया है। वहीं राजीतिक उद्देश्य यह तो है कि भारत की अधिकतम जनजातिय प्रभाव वाली सीटों पर अपनी पैठ मजबूत की जाए। दरअसल मुर्मू धार्मिक प्रतीकों के साथ दिखकर यह भी संदेश देना चाहती हैं कि भारतीय जनजातियां मूल रूप से हिंदू ही हैं। इसीलिए उनके मंदिरों से जुड़े चित्र-वीडियो ही पेश किए गए। मोदी सरकार के एजेंडे में अब यूनिफॉर्म सिविल कोड, धर्मांतरण जैसे मसले हैं, जिन्हें वह 2024 के बाद प्रगति के साथ आगे बढ़ाएगी।