नयी दिल्ली, 24 जनवरी (भाषा) क्या अदालतें मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 के प्रावधानों के तहत मध्यस्थता फैसलों को संशोधित कर सकती हैं, इस महत्वपूर्ण कानूनी मुद्दे को उच्चतम न्यायालय ने पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के विचारार्थ भेजा है।
प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने बृहस्पतिवार को एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए इस विवादास्पद मुद्दे पर स्पष्टता की आवश्यकता पर बल दिया।
यह मामला गायत्री बालासामी बनाम आईएसजी नोवासॉफ्ट टेक्नोलॉजीज लिमिटेड के वाद से उठा। अधिनियम की धारा 34 में प्रक्रियागत अनियमितताओं, सार्वजनिक नीति के उल्लंघन या अधिकार क्षेत्र की कमी जैसे सीमित आधारों पर मध्यस्थता फैसलों को रद्द करने का प्रावधान है।
न्यायालयों ने पारंपरिक रूप से इस धारा की संक्षिप्त व्याख्या की है, तथा मध्यस्थता के सिद्धांतों को कायम रखने के लिए फैसलों के गुण-दोष की समीक्षा से परहेज किया है।
धारा 37 मध्यस्थता से संबंधित आदेशों के विरुद्ध अपील को नियंत्रित करती है, जिसमें निर्णय को रद्द करने से इंकार करने के आदेश भी शामिल हैं। धारा 34 की तरह इसका उद्देश्य भी न्यायिक हस्तक्षेप को न्यूनतम करना है तथा निगरानी की आवश्यकता वाले असाधारण मामलों पर विचार करना है।
कानूनी अस्पष्टता इस बात पर केंद्रित है कि क्या ये प्रावधान न्यायालयों को मध्यस्थता संबंधी निर्णयों को संशोधित करने की शक्ति प्रदान करते हैं, या क्या न्यायालयों की भूमिका केवल उन्हें बरकरार रखने या खारिज करने तक ही सीमित है।
बृहस्पतिवार को प्रधान न्यायाधीश ने इस मुद्दे की जटिलता और मध्यस्थता न्यायशास्त्र के लिए इसके व्यापक निहितार्थ को स्वीकार किया तथा प्रतिवादियों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ किरपाल (जिन्हें कानूनी फर्म मेसर्स करंजावाला एंड कंपनी द्वारा सहायता प्रदान की गई थी) की दलीलों पर गौर करने के बाद मामले को पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को संदर्भित कर दिया।
किरपाल ने दलील दी कि इस मामले को पांच न्यायाधीशों की पीठ को भेजना उचित होगा क्योंकि पहले तीन न्यायाधीशों की पीठ ने ही इस मामले पर विचार किया था। याचिकाकर्ता गायत्री बालासामी का प्रतिनिधित्व वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद दातार ने किया।
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