भाकपा (माले) लिबरेशन के लिए सड़क राजनीति का मुख्य क्षेत्र बनी हुई है: दीपांकर भट्टाचार्य
भाकपा (माले) लिबरेशन के लिए सड़क राजनीति का मुख्य क्षेत्र बनी हुई है: दीपांकर भट्टाचार्य
(फोटो के साथ)
नयी दिल्ली, 23 जून (भाषा) भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने कहा है कि 20 साल के अंतराल के बाद पार्टी के दो सांसद जीते हैं, लेकिन इसकी राजनीति का मुख्य क्षेत्र सड़क ही है।
वर्ष 1973 में भाकपा (माले) में विभाजन के बाद अस्तित्व में आई भाकपा (माले) लिबरेशन ने इस बार ‘इंडिया’ गठबंधन के अंतर्गत लोकसभा चुनाव लड़ा और बिहार में दो सीटें जीतीं। पार्टी के उम्मीदवारों में काराकाट से राजा राम सिंह और आरा से सुदामा प्रसाद जीते।
‘पीटीआई’ के मुख्यालय में एजेंसी के संपादकों के साथ एक साक्षात्कार में भट्टाचार्य ने कहा कि पार्टी के दोनों सांसद संसद में लोगों से जुड़े मुद्दे उठाएंगे। भट्टाचार्य ने कहा, ‘‘हमारे लिए संसद वास्तव में राजनीति का प्राथमिक क्षेत्र नहीं है, हमारी राजनीति का मुख्य क्षेत्र सड़क है।’’
दोनों सांसद किसान नेता और बिहार विधानसभा में दो बार विधायक रह चुके हैं।
भाकपा(माले) लिबरेशन के पहले सांसद 1989 में इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आईपीएफ) के उम्मीदवार के रूप में आरा से निर्वाचित हुए थे। यह उस समय पार्टी का जन मोर्चा था, जब पार्टी भूमिगत थी।
इसके बाद जयंत रोंगई 1991 में असम के स्वायत्त जिला निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा सांसद बने और 2004 तक सांसद रहे।
वर्ष 1991, 1996 और 1998 में रोंगई स्वायत्त राज्य मांग समिति के उम्मीदवार के रूप में चुने गए। 1999 में उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा।
भट्टाचार्य ने कहा, ‘‘1989 में बिहार से हमारा एक सांसद था और हमारे लिए वह एक ऐतिहासिक क्षण था। हमने 80 के दशक के मध्य में ही चुनावों में हिस्सा लेना शुरू किया, तब तक हम चुनावों से दूर रहते थे।’’
उन्होंने कहा, ‘‘1980 के दशक के मध्य तक हमें यह एहसास होने लगा कि भूमि संघर्ष, मजदूरी, सामाजिक सम्मान के मामले में हम जिन लोगों के लिए लड़ते हैं, ये वे लोग हैं जिनके पास वास्तव में मतदान का अधिकार नहीं है। वे वंचित लोग हैं, खासकर भूमिहीन दलित और अन्य।’’
भट्टाचार्य के अनुसार पार्टी ने इस वर्ग के मताधिकार के लिए लड़ाई लड़ी और उसे सफलता तब मिली, जब भोजपुर में हजारों लोगों ने जीवन में पहली बार वोट डाला। उन्होंने कहा, ‘‘और इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। मतदान खत्म होने के बाद नरसंहार हुआ और 32 लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी गई।’’
पार्टी से अपने जुड़ाव के बारे में भट्टाचार्य ने कहा कि जब नक्सलबाड़ी आंदोलन शुरू हुआ था, तब वह अलीपुरद्वार में स्कूल में पढ़ रहे थे। इस आंदोलन के बारे में चर्चा और स्कूल जाते समय दीवारों पर लिखे गए नारों ने युवा नेता पर गहरा प्रभाव डाला।
उन्होंने कहा, ‘‘मेरे पिता रेलवे में कार्यरत थे…1967 में मैं एक प्राथमिक विद्यालय में पहली कक्षा में पढ़ता था। जब नक्सलबाड़ी की घटना हुई, तो इसका हम पर बहुत प्रभाव पड़ा। दीवारों पर बहुत सी बातें लिखी गईं, नारे लिखे गए। इससे मेरे मन में बहुत सी जिज्ञासाएं पैदा हुईं। मैं बहुत जल्दी प्रभावित हो गया।’’
भट्टाचार्य 1970 के दशक को आजादी के दशक के रूप में याद करते हैं। उन्होंने कहा, ‘‘1972 तक, जब भारत आजादी की रजत जयंती मना रहा था, तब यह सब हो रहा था। मैं अपने पिता से पूछता था कि भारत को फिर से आजाद कराने का सवाल क्यों है? क्योंकि यह एक आजाद देश है। मेरे पिता ने इस चर्चा में मुझे कभी हतोत्साहित नहीं किया।’’
भट्टाचार्य के अनुसार, 1977 सबसे निर्णायक वर्ष था, जब आपातकाल हटा लिया गया और लोकतंत्र की नयी भावना बहाल हुई। उन्होंने कहा, ‘‘पूरी तरह से यह भावना थी कि हमें अपना लोकतंत्र वापस मिल गया है।’’
जब उन्होंने कोलकाता के भारतीय सांख्यिकी संस्थान में दाखिला लिया, तब तक वह भाकपा (माले) के साथ जुड़ चुके थे।
भट्टाचार्य ने कहा, ‘‘1979 तक मैंने लगभग तय कर लिया था कि मुझे यही करना है। मैं तब भी छात्र था, मैंने 1984 में अपनी डिग्री प्राप्त की, लेकिन उस समय तक मैं पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता की तरह काम कर रहा था।’’
नक्सलबाड़ी आंदोलन ऐसे समय में हुआ जब भारत में वामपंथ के भीतर पुनर्गठन हो रहा था और चीन-सोवियत विभाजन सबसे तीव्र था। यह आंदोलन 1967 में दार्जिलिंग जिले के सिलीगुड़ी सब डिविजन के नक्सलबाड़ी ब्लॉक में हुआ एक सशस्त्र किसान विद्रोह था।
वर्ष 1973 में, मूल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) विभाजित हो गई और विनोद मिश्रा के नेतृत्व वाले गुट ने भाकपा (माले) लिबरेशन का गठन किया। भट्टाचार्य ने 1998 में संगठन के महासचिव का पद संभाला।
भाषा आशीष दिलीप
दिलीप

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