नयी दिल्ली, आठ नवंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे संबंधी मामले को नयी पीठ के पास भेजने का निर्णय लिया और 1967 के फैसले को खारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता क्योंकि इसकी स्थापना केंद्रीय कानून के तहत की गई थी।
प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने बहुमत का फैसला सुनाते हुए एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के मुद्दे पर विचार के लिए मानदंड निर्धारित किए।
प्रधान न्यायाधीश ने 4:3 के बहुमत के फैसले में कहा, ‘‘अजीज बाशा (1967 के फैसले) में अपनाया गया यह दृष्टिकोण कि यदि कोई शैक्षणिक संस्थान किसी कानून के माध्यम से अपना वैधानिक चरित्र प्राप्त करता है तो वह अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित नहीं है, खारिज किया जाता है।’’
प्रधान न्यायाधीश ने न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की ओर से फैसला लिखा।
पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1967 में एस अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में फैसला दिया था कि एएमयू एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘एएमयू अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान है या नहीं, इस पर फैसला इस निर्णय में निर्धारित सिद्धांतों के आधार पर किया जाना चाहिए।’’
निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश ने न्यायिक रिकॉर्ड को नियमित पीठ के समक्ष प्रस्तुत करने को कहा ताकि अल्पसंख्यक दर्जे के मुद्दे पर निर्णय लेने के अलावा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2006 के फैसले के खिलाफ अपीलों पर निर्णय लिया जा सके।
जनवरी 2006 में उच्च न्यायालय ने 1981 के कानून के उस प्रावधान को रद्द कर दिया था जिसके तहत एएमयू को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया था।
अदालत की कार्यवाही शुरू होने पर प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि चार अलग-अलग मत हैं जिनमें तीन असहमति वाले फैसले भी शामिल हैं।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने असहमति वाले अपने फैसले में कहा कि सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ द्वारा मामले को सात न्यायाधीशों की पीठ को सौंपा जाना सही नहीं है, जबकि न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने भी इसी तरह की राय व्यक्त करते हुए कहा कि इससे एक ‘‘खतरनाक मिसाल’’ कायम हो सकती है।
न्यायमूर्ति दत्ता ने प्रश्नात्मक लहजे में कहा,‘‘ कल दो न्यायाधीशों की पीठ कह सकती है कि मुझे मूल ढांचे (केशवानंद भारती फैसला) पर संदेह है। मैं इसे 15 न्यायाधीशों की पीठ के पास भेजता हूं। अगर हम बहुमत की राय स्वीकार कर लें तो वास्तव में यही होगा। क्या ऐसा किया जा सकता है?’’
न्यायमूर्ति दत्ता ने अपने फैसले के अंतिम भाग में लिखा,‘‘ अनुच्छेद 145 के खंड 5 के संदर्भ में यह मेरी दृढ़ राय है कि न केवल संदर्भों को उत्तर की आवश्यकता नहीं है बल्कि यह भी घोषित किया जाता है कि एएमयू अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान नहीं है और इसके लिए अल्पसंख्यक का दर्जा मांगने वाली अपीलें खारिज होनी चाहिए।’’
इस मामले पर अलग फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा ने संदर्भ बिंदु पर दो अन्य असहमत न्यायाधीशों से सहमति व्यक्त की।
न्यायमूर्ति शर्मा ने स्पष्ट किया, ‘‘ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मेरा निर्णय न तो सहमति वाला है और न ही असहमति वाला। यह कानून, उद्धृत निर्णयों तथा विषय पर तर्कों और तथ्यों पर आधारित मेरी व्यक्तिगत राय है।’’
एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे का मुद्दा पिछले कई दशकों से कानूनी रूप से उलझा हुआ है।
शीर्ष अदालत ने 12 फरवरी 2019 को विवादास्पद मुद्दे को सात न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया था और इससे पहले 1981 में भी इसी तरह का संदर्भ दिया गया था।
इस संस्थान को 1981 में संसद द्वारा एएमयू (संशोधन) अधिनियम पारित किये जाने पर अपना अल्पसंख्यक दर्जा पुनः मिल गया था।
केंद्र की कांग्रेस नीत संप्रग सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2006 के फैसले के खिलाफ अपील दायर की थी, जबकि विश्वविद्यालय ने इसके खिलाफ एक अलग याचिका दायर की थी।
भाजपा नीत राजग सरकार ने 2016 में उच्चतम न्यायालय को सूचित किया कि वह पूर्ववर्ती संप्रग सरकार द्वारा दायर अपील वापस लेगी।
उसने बाशा मामले में सर्वोच्च न्यायालय के 1967 के फैसले का हवाला देते हुए दावा किया था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है क्योंकि यह सरकार द्वारा वित्तपोषित एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है।
भाषा शोभना नरेश
नरेश