Nitish Kumar Tejashwi Yadav: पटना: लोकसभा चुनाव की तैयारियों को लेकर देश भर में चहल-पहल बढ़ने लगी है। इसी बीच बिहार की राजनीति में एक बड़ी चर्चा उभर रही है। लंबबे समय तक बिहार में शासन कर लालू यादव ने सामाजिक न्याय का कॉन्सेप्ट विकसित किया। लालू बिहार में जंगल राज के लिए ‘मशहूर’ रहे। तो नीतीश कुमार ‘सुशासन’ की वजह से पहचाने गए। दोनों धुर विरोधी फिलहाल एक साथ हैं। राजनीतिक शब्दावली में इस घालमेल को अब कौन-सा नाम दिया जाएगा पता नहीं लेकिन जो चीजें निकलकर आ रही हैं वे बिहार की राजनीति में उथल पुथल मचाने वाली है।
बिहार की सियासत के केंद्र में अभी नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू है। बीजेपी के साथ रह कर लगातार जेडीयू खूब पली बढ़ी। जेडीयू को पहली बार सदमा तब लगा, जब विधानसभा के वर्ष 2020 में चुनाव हुए। उसके साल भर पहले 2019 के लोकसभा चुनाव में जेडीयू ने भाजपा के साथ अपने संबंधों का भरपूर सियासी लाभ उठाया था। लोकसभा में जेडीयू ने बीजेपी के बराबर सीटों पर चुनाव लड़ कर 16 पर कामयाबी हासिल की थी। वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी जेडीयू सबसे खराब स्थिति में पहुंच गई। उसे भाजपा से तकरीबन आधी महज 43 सीटों पर कामयाबी मिली, जबकि भाजपा के बराबर सीटों पर जेडीयू ने भी चुनाव लड़ा था।
नीतीश कुमार ने 2010 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू को मिली सफलता के बाद ये मुगालता पाल लिया कि उनकी वजह से ही बीजेपी बिहार में पनप रही है। सच तो ये है कि बीजेपी ने बिहार को गैर दलीय व्यक्ति नीतीश कुमार के भरोसे ही छोड़ रखा था। उनका यही मुगालता आगे चल कर उनकी परेशानी का सबब बना। बीजेपी ने पीएम के लिए जब गुजरात के तत्कालीन सीएम नरेंद्र मोदी का नाम प्रस्तावित किया तो नीतीश कुमार बिदक उठे। उन्होंने इस फैसले पर अपनी आपत्ति जताई और बीजेपी से झटके में कट्टी भी कर ली। वर्ष 2014 का लोकसभा चुनाव जेडीयू ने अकेले लड़ा और अपनी असलियत भी पार्टी ने जान ली। जेडीयू के खाते में सिर्फ दो सीटें आईं।
वर्ष 2015 में हुए विधानसभा चुनाव आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस ने मिल कर लड़ा। सीटें आरजेडी से जेडीयू को कम मिलीं, लेकिन सीएम की कुर्सी की गारंटी नीतीश पहले ही आरजेडी से ले चुके थे। यानी नीतीश ने बीजेपी की तरह महागठबंधन को भी आजमा कर देख लिया। दो खेमों- एनडीए और महागठबंधन में रह कर नीतीश ने दोनों को जांचा-परखा। एनडीए में रहते उन्हें आरजेडी के साथ रहने जैसा दबाव कभी महसूस नहीं हुआ था। इसलिए आधा कार्यकाल पूरा करने से पहले ही उन्होंने आरजेडी को झटका दे दिया और दोबारा बीजेपी के खेमे में आ गए। इससे उनकी पूरे कार्यकाल के लिए कुर्सी सलामत रही।
नीतीश की छवि उनकी पलटी मार राजनीति के कारण खराब हो गई। महज 43 विधायकों के साथ बीजेपी के रहमो करम पर वे बिहार के फिर सीएम बन गए। हालांकि उन्होंने चुनावी नतीजों के बाद सीएम की अपनी दावेदारी वापस ले ली थी, लेकिन भाजपा ने उन्हें समझा-मना कर इसके लिए तैयार कर लिया। चूंकि, बीजेपी के विधायक जेडीयू से लगभग दोगुने थे, इसलिए बार-बार बीजेपी के नेता नीतीश को उनकी औकात का एहसास भी करा रहे थे। उन्हें भाजपा नेताओं के इस आचरण से भय था कि किसी दिन उनकी कुर्सी न चली जाए।
इसी बीच नीतीश ने आरजेडी को या ये कहें कि लालू यादव फैमिली को तुरंत लॉलीपॉप दिखा दिया कि 2025 का विधानसभा चुनाव उनके ही ‘घराने’ के तेजस्वी यादव के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। यानी कार्यकाल पूरा करने का बंदोबस्त नीतीश ने बड़ी चालाकी से कर लिया। आरजेडी नेताओं को अच्छी तरह पता है कि अगले विधानसभा चुनाव में नीतीश साथ रहें या न रहें, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। तब तक लालू परिवार के बेरोजगार चल रहे दो बेटों को मंत्रिमंडल में सम्मानजनक पद तो मिल जाएगा। इसीलिए, आरजेडी नीतीश की चालाकी समझने के बावजूद नासमझ बना रही।
नीतीश कुमार से पिंड छुड़ाने के लिए आरजेडी ने ऐसी चाल चली और विपक्षी गठबंधन का पीएम फेस बनाने का झुनझुना थमा दिया। नीतीश ने विपक्षी दलों को एकजुट किया। लेकिन वक्त के साथ कांग्रेस ने कमान झटक ली। इतना ही नहीं, नीतीश के सपने को चकनानचूर करने के लिए ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल को मोहरा बना दिया गया। ममता ने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का नाम पीएम पद के लिए प्रस्तावित किया तो अरविंद केजरीवाल ने समर्थन कर दिया। यानी राष्ट्रीय राजनीति में जाने के नीतीश के दरवाजे बंद हो गए। नीतीश को बिदकाने के लिए आरजेडी ने पहले अपने हुड़दंगी ब्रिगेड को सक्रिय किया।
अब आरजेडी ने नीतीश को हटाने के लिए लोकसभा चुनाव तक इंतजार करने का मन बनाया है। चुनाव बीतते ही नीतीश पर आरजेडी दबाव बढ़ाएगी। अगर उन्होंने खुद सीएम की कुर्सी नहीं छोड़ी तो उन्हें आरजेडी जबरन बेदखल कर देगी। लोकसभा चुनाव के परिणाम अगर एनडीए के पक्ष में आए, जैसा कि सर्वेक्षणों से पता चल रहा है और केंद्र में मोदी की सरकार बन गई तो जेडीयू के अस्तित्व पर ही खतरा उत्पन्न हो जाएगा। लंबे समय तक बीजेपी के साथ रहने के कारण जेडीयू के ज्यादातर नेताओं का झुकाव अब भी उसकी ओर अधिक है। जेडीयू को लोकसभा में कम सीटें आईं तो उसके नेता बिखर जाएंगे।
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