मनमोहन सिंह: आर्थिक सुधारों के जनक और एक दृढ़ राजनेता

मनमोहन सिंह: आर्थिक सुधारों के जनक और एक दृढ़ राजनेता

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  • Publish Date - December 27, 2024 / 01:32 PM IST,
    Updated On - December 27, 2024 / 01:32 PM IST

(फाइल फोटो के साथ)

नयी दिल्ली, 27 दिसंबर (भाषा) पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भारत में आर्थिक सुधारों के जनक, उसे लाइसेंस राज से मुक्त कराने वाले और देश को उस स्थिति से उबारने वाले उद्धारक के रूप में याद किया जाएगा जब इसका स्वर्ण भंडार भी गिरवी रख दिया गया था। एक दृढ़ राजनेता के तौर पर पहचान बनाने वाले डा. मनमोहन सिंह मौजूदा भारत के शिल्पकार और विद्वता के धनी इंसान थे।

विनम्र, विद्वान, मृदुभाषी और आमसहमति में यकीन रखने वाले मनमोहन सिंह का बृहस्पतिवार रात दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में निधन हो गया। वह 92 वर्ष के थे।

कांग्रेस नेता के रूप में उन्होंने 2004-2014 तक 10 वर्षों के लिए देश का नेतृत्व किया और उससे पहले वित्त मंत्री के रूप में देश के आर्थिक ढांचे को तैयार करने में मदद की। वह वैश्विक स्तर पर वित्तीय और आर्थिक क्षेत्र की एक मशहूर शख्सियत थे।

उनकी सरकार ने सूचना का अधिकार (आरटीआई), शिक्षा का अधिकार (आरटीई) और मनरेगा जैसी युग परिवर्तनकारी योजनाओं की शुरूआत की।

मनमोहन सिंह ने अभावों के बीच अपने जीवन की शुरूआत की। कभी बिजली से वंचित अपने गांव में मिट्टी के तेल के दीये की मंद रोशनी में पढ़ाई करने वाले मनमोहन सिंह आगे चलकर एक प्रतिष्ठित शिक्षाविद बने। वह एक अनिच्छुक राजनेता थे, जिन्हें मुख्यधारा की उबड़-खाबड़ राजनीति रास नहीं आती थी।

सोनिया गांधी ने अपनी पार्टी के अनुरोध के बावजूद प्रधानमंत्री पद स्वीकार करने से इनकार कर दिया था और जब उन्होंने इस शीर्ष पद के लिए मनमोहन सिंह को चुना तो हर किसी को बहुत हैरानी हुई। इस प्रकार अकादमिक नौकरशाह मनमोहन सिंह 2004 में भारत के 14वें प्रधानमंत्री बने।

उन्होंने पहली बार 22 मई 2004 को और दूसरी बार 22 मई, 2009 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली।

मनमोहन सिंह ने 10 साल तक देश का नेतृत्व किया और इस दौरान सोनिया गांधी और सिंह के बीच समीकरणों को अक्सर संतुलित साझेदारी के उदाहरण के तौर पर उद्धृत किया जाता है। दोनों के बीच की समझ इस बात की मिसाल है कि कामकाजी संबंध वास्तव में कैसे होने चाहिए।

सिंह का यह संतुलित दृष्टिकोण संप्रग के बाकी सहयोगी दलों के साथ भी नजर आया। अपरिहार्य तनावों के बावजूद सिंह गठबंधन के धर्म को निभाने में कामयाब रहे।

जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल एन एन वोहरा ने कहा कि सिंह हमेशा नैतिक मार्ग पर चलने के लिहाज से चट्टान की तरह मजबूती से खड़े रहे, भले ही उन्हें उस राजनीतिक दल से परेशानी का सामना करना पड़ा जिसका वह प्रतिनिधित्व करते थे।

वर्ष 2014 में भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोप के बीच संप्रग को सत्ता से बाहर होना पड़ा, जिसके बाद से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सत्ता केंद्र में स्थापित हुई।

1990 के दशक की शुरुआत में भारत को उदारीकरण और निजीकरण की राह पर लाने के लिए सिंह की सराहना की गई, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों पर आंखें मूंद लेने के लिए सिंह की आलोचना भी हुई।

प्रधानमंत्री के रूप में उनके पहले कार्यकाल के दौरान जब भारत ने अमेरिका के साथ एक असैन्य परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए, तो गठबंधन में दरार आनी शुरू हो गई। वाम दलों के संप्रग से बाहर निकलने के कारण उनकी सरकार पर खतरा मंडराया लेकिन सरकार बच गई।

संप्रग सरकार को 22 जुलाई 2008 को पहले विश्वास मत का सामना करना पड़ा जब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के नेतृत्व वाले वाम मोर्चे ने भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के लिए भारत के आईएईए के पास जाने पर समर्थन वापस ले लिया।

संप्रग ने विपक्ष के 256 वोट के मुकाबले 275 वोट हासिल करके विश्वास मत जीता, 10 सांसद अनुपस्थित रहे थे।

प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में जब उन्हें 2जी घोटाले जैसे विवादास्पद मुद्दों पर अपनी सरकार के रिकॉर्ड और कांग्रेस के रुख का बचाव करते देखा गया, तो सिंह ने पुरजोर शब्दों में अपनी बात रखी और घोषित कर दिया कि वह कमजोर नहीं हैं।

जनवरी 2004 में उन्होंने कहा था, ‘‘मैं ईमानदारी से आशा करता हूं कि इतिहास मेरे प्रति समकालीन मीडिया या संसद में विपक्षी दलों की तुलना में अधिक दयालु होगा।’’

दो दशक से अधिक समय के बाद कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने ‘एक्स’ पर एक मार्मिक पोस्ट के साथ सिंह के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘निस्संदेह, इतिहास उदारतापूर्वक आपके साथ न्याय करेगा, डॉ. मनमोहन सिंह जी!’’

सिंह के नेतृत्व वाले दशक को व्यापक रूप से अभूतपूर्व विकास और समृद्धि का युग माना जाता है। भारत के शासन और राजनीतिक शक्ति के शिखर पर पहुंचने तक की उनकी यात्रा भारत के राजनीतिक इतिहास में अद्वितीय है।

हमेशा नीली पगड़ी में नजर आने वाले सिंह को 1991 में नरसिम्हा राव सरकार में भारत का वित्त मंत्री नियुक्त किया गया था। आर्थिक सुधारों की एक व्यापक नीति शुरू करने में उनकी भूमिका को अब दुनिया भर में मान्यता प्राप्त है।

जनवरी 1991 में, भारत को अपने आवश्यक आयात, विशेष रूप से तेल और उर्वरकों के आयात, और आधिकारिक ऋण चुकाने के लिए संघर्ष करना पड़ा। जुलाई 1991 में, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने 40 करोड़ अमेरिकी डॉलर जुटाने के लिए बैंक ऑफ इंग्लैंड और बैंक ऑफ जापान के पास 46.91 टन सोना गिरवी रखा।

मनमोहन सिंह ने जल्द ही कुशलता के साथ अर्थव्यवस्था की कमान संभाली और कुछ ही महीनों बाद तुरंत उसे पुन: खरीद लिया।

वोहरा, जो उस समय रक्षा और गृह सचिव थे, ने कहा कि उन्हें प्रतिदिन तत्कालीन वित्त मंत्री सिंह के दरवाजे पर जाना पड़ता था। वोहरा ने कहा, ‘‘मैं अपने विभाग के लिए एक तरह से कुछ वित्तीय राहत की भीख मांग रहा था।’’

अविभाजित भारत (अब पाकिस्तान) के पंजाब प्रांत के गाह गांव में 26 सितंबर, 1932 को गुरमुख सिंह और अमृत कौर के घर जन्मे सिंह ने 1948 में पंजाब में अपनी मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की। उनका शैक्षणिक करियर उन्हें पंजाब से ब्रिटेन के कैंब्रिज तक ले गया जहां उन्होंने 1957 में अर्थशास्त्र में प्रथम श्रेणी में ऑनर्स की डिग्री हासिल की। ​​सिंह ने इसके बाद 1962 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के नफील्ड कॉलेज से अर्थशास्त्र में ‘डी.फिल’ की उपाधि प्राप्त की।

उन्होंने अपने करियर की शुरुआत पंजाब विश्वविद्यालय और प्रतिष्ठित ‘दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स’ के संकाय में अध्यापन से की। उन्होंने ‘यूएनसीटीएडी’(अंकटाड) सचिवालय में भी कुछ समय तक काम किया और बाद में 1987 और 1990 के बीच जिनेवा में ‘साउथ कमीशन’ के महासचिव बने।

वर्ष 1971 में सिंह भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार के रूप में शामिल हुए। इसके तुरंत बाद 1972 में वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में उनकी नियुक्ति हुई।

उन्होंने जिन कई सरकारी पदों पर काम किया उनमें वित्त मंत्रालय में सचिव; योजना आयोग के उपाध्यक्ष, भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर, प्रधानमंत्री के सलाहकार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष के पद शाामिल हैं।

उनका राजनीतिक करियर 1991 में राज्यसभा के सदस्य के रूप में शुरू हुआ जब वह 1998 से 2004 के बीच नेता प्रतिपक्ष रहे। दिलचस्प बात यह है कि दो बार के प्रधानमंत्री 33 साल तक सांसद रहे, लेकिन केवल राज्यसभा सदस्य के रूप में। उन्होंने कभी भी लोकसभा चुनाव नहीं जीता और एक बार 1999 में दक्षिण दिल्ली निर्वाचन क्षेत्र से भाजपा के वी के मल्होत्रा ​​से हार गए।

सिंह पर अक्सर भाजपा द्वारा ऐसी सरकार चलाने का आरोप लगाया जाता था जो भ्रष्टाचार से घिरी हुई थी। पार्टी ने उन्हें ‘मौनमोहन सिंह’ कहा और आरोप लगाया कि उन्होंने अपने मंत्रिमंडल में भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ आवाज नहीं उठाई।

आरोपों के बावजूद सिंह ने सदैव अपनी और अपने पद की गरिमा बनाये रखी।

उनके परिवार में पत्नी गुरशरण कौर और तीन बेटियां हैं। उन्हें सुर्खियों में रहना कभी नहीं भाया और यही कारण है कि देश उनके परिवार के बारे में बहुत कम जानता था। सिंह प्रकृति से शांत, लेकिन दृढ़ थे। उनके करीबी सूत्रों ने कहा कि सिंह ने सितंबर 2013 में तब प्रधानमंत्री पद छोड़ने का लगभग मन बना लिया था, जब राहुल गांधी ने दोषी राजनेताओं को चुनाव लड़ने की अनुमति देने के लिए अध्यादेश लाने के केंद्रीय मंत्रिमंडल के फैसले को ‘पूरी तरह से बकवास’ करार दिया था और इसे फाड़ने की सिफारिश की थी। सिंह उस समय विदेश में थे।

सिंह ने 2016 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा की गई नोटबंदी की अत्यधिक आलोचना की और इसे ‘संगठित लूट और वैध लूट’ करार दिया।

वर्ष 2008 में अपनी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के जवाब में सिंह ने दार्शनिक अंदाज में कहा था, ‘‘ हम सभी प्रवासी पक्षी हैं! हम आज यहां हैं, कल चले जाएंगे! लेकिन थोड़े समय के लिए भारत की जनता ने हम पर भरोसा करके जो यह जिम्मेदारी सौंपी है, इन जिम्मेदारियों के निर्वहन में ईमानदार और निष्ठावान रहना हमारा कर्तव्य है।’’

भाषा संतोष नरेश

नरेश