(समीर कुमार मिश्रा)
Bharat ratna karpoori thakur: नयी दिल्ली, 24 जनवरी। बिहार जैसे संवेदनशील राज्य के दो बार मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर से मिलना मेरे और उनसे मुलाकात चाहने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए लिए हमेशा आसान था। उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ के लिए चुना गया है, यह मेरे लिए और यहां तक कि उनके प्रशंसकों के लिए भी थोड़ा हैरान करने वाला है।
‘जन नायक’ कर्पूरी ठाकुर का नाम मरणोपरांत ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किये जाने वाले महापुरुषों की सूची में शामिल हो गया है जिनमें लालबहादुर शास्त्री, पंडित मदनमोहन मालवीय, लोकप्रिय गोपीनाथ बोरदोलोई और लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसे नाम हैं।
स्कूली छात्र के रूप में मैंने उन्हें बिहार की राजधानी के कदम कुआं स्थित जगत नारायण लाल मार्ग पर जयप्रकाश नारायण के विशालकाय आवास पर कई बार देखा था।जब मैं 1986 में पीटीआई से जुड़ा था तो ठाकुर विपक्ष के नेता थे।
वह 1970 के दशक में दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके थे, लेकिन उन्हें समाचार संस्थानों, विशेषकर पीटीआई के कार्यालय तक आने के लिए साइकिल-रिक्शा लेने में कोई हिचक नहीं होती थी।
मिलनसार और उत्साही ब्यूरो प्रमुख एसके घोष, जिन्हें प्यार से मंटू दा कहा जाता था, ठाकुर के मित्र थे। जब मैंने समाजवादी विचारधारा के सबसे मुखर नेताओं में से एक ठाकुर को पहली बार साइकिल रिक्शा पर हमारे कार्यालय में आते देखा था, उस समय मंटू दा इस दुनिया में नहीं थे। उस समय एसडी नारायण ब्यूरो प्रमुख थे।
ठाकुर अकेले और चुपचाप अपने रबर-सोल वाले सैंडल पहनकर समाचार कक्ष में आते थे। वह बड़ी सहजता से उस रिक्लाइनर पर बैठते थे जिसे मंटू दा ने अपने लिए मंगाया था। इसके बाद वह हमसे एक कागज मांगते थे जिस पर अपनी प्रेस विज्ञप्ति लिखते थे। इसके बाद उसी तरह शांति से लौट जाते थे।
बिहार में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की राजनीति के सूत्रधार माने जाने वाले ठाकुर खानपान के शौकीन थे और उन्हें राज्य विधानसभा कैंटीन में बनने वाली गरमा गरम बालूशाही और लड्डू बहुत पसंद थे।
ठाकुर के निजी सचिव अब्दुल बारी सिद्दीकी हमें बताते थे कि जब ठाकुरजी के मेहमान उनकी ओर से परोसा गया भोजन खाते थे तो वह खुश होते थे। सिद्दीकी बाद में मंत्री और लालू प्रसाद की पार्टी राजद के प्रदेश अध्यक्ष बने। समाजवादी नेता शरद यादव उनके शिष्य की तरह थे।
एक बार जब मैं जनवरी की सर्द शाम में ठाकुर से मिलने गया तो उन्हें खांसी की समस्या थी। वह अपने बंगले के बरामदे में कंबल लपेटकर बैठे थे। उन्होंने अपने गले को राहत देने के लिए तुलसी और काली मिर्च से बना काढ़ा पीया। मैं और यादव उनसे बातचीत का इंतजार कर रहे थे।
ठाकुर ने विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा राम मंदिर आंदोलन के तहत सोमनाथ से अयोध्या तक लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को विफल करने के लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने से बहुत पहले पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के अधिकारों के बारे में जोरदार तरीके से बात रखी थी।
मुख्यमंत्री के रूप में ठाकुर के कार्यकाल को मुंगेरी लाल आयोग की सिफारिशों के कार्यान्वयन के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है, जिसके तहत 1978 में राज्य में पिछड़े वर्गों के लिए कोटा लागू किया गया था। इसके बाद मंडल आयोग आया था। मुंगेरी लाल और बी पी मंडल दोनों बिहार से थे, जिस राज्य का समाजवादी संघर्षों का लंबा इतिहास रहा है।
ठाकुर ने नवंबर 1978 में बिहार में सरकारी सेवाओं और शैक्षणिक संस्थानों में 26 प्रतिशत आरक्षण की शुरुआत की और इसके 12 साल बाद वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की घोषणा की थी। इससे भाजपा की ‘कमंडल राजनीति’ का विरोध करने वालों को एक हथियार मिल गया।
बिहार में गहराई तक पैठ रखने वाली ऊंची जातियों ने इस पर उग्र प्रतिक्रिया व्यक्त की। चारों ओर प्रदर्शन होने लगे और ठाकुर के खिलाफ जातिवादी नारे भी लगाए गए।
इनमें एक नारा था, ‘‘कर्पूरी कर पूरा, छोड़ गद्दी, पकड़ उस्तरा’’। इसमें ठाकुर के ‘नाई’ समुदाय को निशाना बनाया गया।
एक समय ठाकुर के निजी सचिव रहे वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर बताते हैं कि समाजवादी नेता ने 24 जनवरी, 1924 को अपने जन्म से लेकर 17 फरवरी, 1980 को अपने निधन तक खुद के लिए एक भी घर नहीं बनाया था।
बिहार की 13 करोड़ से अधिक की आबादी में ठाकुर की जाति की हिस्सेदारी 2 प्रतिशत से भी कम है, जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मोध-घांची तेली जाति के समान ही है, जिसकी गुजरात की जनसंख्या में बहुत छोटी हिस्सेदारी है।
ठाकुर को देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से सम्मानित करने के मोदी सरकार के फैसले ने शायद कुछ लोगों को नाराज कर दिया हो क्योंकि इससे बिहार में आगामी लोकसभा चुनावों के दौरान पिछड़े वर्गों को बड़े पैमाने पर लुभाने की भाजपा की मंशा के बारे में संदेश गया है, जहां नीतीश-लालू गठबंधन जाहिर रूप से प्रभाव रखता है।