#ATAL_RAAG_धर्मयोद्धा-धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा

धर्मयोद्धा-धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

भारतीय इतिहास के विभिन्न कालक्रमों में ऐसे-ऐसे महापुरुष ,प्रवर्तक, समाजसुधारक ,दैवीय अवतार हुए हैं जिन्होंने सुप्त पड़ी भारतीय चेतना को जागृत किया। धर्म की स्थापना की और विकृतियों के उन्मूलन के लिए समाज को प्रेरित किया। साथ ही ऐसे श्रेष्ठ मानक स्थापित किए हैं जो इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों और लोक के अन्दर रच- बसकर सम्पूर्ण भारतीय समाज को आन्दोलित एवं पथप्रदर्शित करते आ रहे हैं।

धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा अपने समय के उन्हीं अग्रदूतों में से एक थे। एक ऐसे योद्धा जिन्होंने भारतीय सनातन परम्परा को पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिए छोटा नागपुर पठार के क्षेत्र में निवास करने वाले मुंडा समाज को संगठित किया। हिन्दू होने के बोध और राष्ट्र संस्कृति की ज्वाला से स्वातन्त्र्य, धर्मरक्षा की मशाल को प्रज्वलित किया। केवल 25 वर्ष की आयु में संघर्षों और क्रांति का इतना विराट स्वरूप ग्रहण किया कि – वह किसी ईश्वरीय चमत्कार से कम नहीं लगता है। उन्होंने जिसजनजातीय स्वत्व का अनुपमेय उदाहरण प्रस्तुत किया। वह राष्ट्र के जन-जन में, जनजातीय समाज के जीवन में लहू बनकर घुला मिला हुआ है।

झारखंड के छोटा नागपुर स्थित उलीहातु गाँव में 15 नवम्‍बर, 1875 को बृहस्पतिवार के दिन जन्म होने के चलते उनका नाम ‘बिरसा’ रखा गया। खेती बाड़ी करने वाले सुगना मुंडा और माता करमी हातू के घर जन्मे बिरसा दो भाई थे। और उनकी दो बहनें थी। यह ऐसा क्षेत्र था जहां ब्रिटिश सरकार के साथ – साथ ईसाई मिशनरियां सक्रिय थीं। जो वनवासी समाज की निर्धनता का फायदा उठा कर कन्वर्जन के कुचक्र रच रहे थे। अत्याचार कर रहे थे। मिशनरियों ने अंतत बिरसा के पूरे परिवार का कन्वर्जन करा लिया। उनके पिता सुगना मुंडा का नाम मसीह दास रखा गया। पादरियों ने बिरसा का बपतिस्मा कर उनका नाम ‘डेविड बिरसा ‘ रखा। इसके बाद ही उन्‍हें चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में प्रवेश मिला। यहां उन्‍होंने सन् 1886 से 1890 तक मिशनरी स्कूल में उच्च शिक्षा प्राप्त की। इन पाँच वर्षों में सभी कन्वर्टेड विद्यार्थियों की भांति उन्हें भी अंग्रेजी, ईसाई कार्य और प्रार्थनाएं सिखाई गईं। इस दौरान ईसाई मिशनरियां यह विशेष ध्यान रखती थीं कि किसी भी प्रकार से कन्वर्टेड विद्यार्थियों को वनवासी संस्कृति-मूल संस्कृति से दूर रखा जाए। किन्तु मिशनरी स्कूल में हिन्दू धर्म – संस्कृति के घोर अपमान, कन्वर्जन ने उन्हें इतना उद्वेलित किया कि – बिरसा ने स्कूल छोड़ दिया। मिशनरी टीचर्स को चुनौती दी। क्रमशः उनका वह स्वरुप बनता गया जिसके निमित्त उनका जन्म हुआ था। स्कूल छोड़ने के बाद बिरसा ने जो कुछ अपनी माँ से कहा वह आज भी क्रांति की ज्वाला के भाव उत्पन्न करता है। उन्होंने घर पहुँचकर अपनी माँ से कहा – “मैं ईसाइयत स्वीकार नहीं करता। मुझे किसी धर्म से घृणा नहीं है, लेकिन माँ मैं उस धर्म को ढूँढ़ूंगा, जिस धर्म की कहानियाँ मैंने आपसे सुनी है, नानी से सुनी है, मौसी से सुनी है। मैं उस धर्म को ढूँढ़ निकालूँगा’’।

इसके प्रत्युत्तर में उनकी माँ कहती — “तू कैसी बातें करता है? इस स्कूल के लिए तुम्हारे पिता सुगना मुंडा ने कहाँ-कहाँ नहीं घुटने टेके, कहाँ कहाँ नहीं सर झुकाए? ” इस पर बिरसा ने जो कहा वह आज भी अमिट लकीर बनकर हमारे समक्ष उपस्थित है — “उन्होंने (पिता ) गलत किया, अच्छा होता कि वे मुझे मेरी परंपरा का ज्ञान कराते। ये चर्च, ये टोपी, ये लूथेरियन, ये Protestant, ये कैथोलिक ये बिरसा को नहीं बदल सकते, बिरसा जरुर इनका रास्ता बदल देगा, तुम देख लेना माँ’’। अभिप्राय यह कि बिरसा – ब्रिटिशों के आतंक और ईसाई मिशनरियों के षड्यंत्रों को भली भांति जान और पहचान गए थे। इसीलिए वो बारंबार अपने संभाषणों में कहते थे कि — “टोपी टोपी एक हैं। ये जितने टोपी-हैट पहनने वाले हैं, ये मिलजुलकर साजिश करते हैं। ये मत समझो कि ब्रिटिश प्रशासन अलग है, और चर्च अलग है। ये दोनों एक ही हैं और ये सब मिलकर षड्यंत्र कर रहे हैं”।

आगे सन् 1891 में बिरसा मुंडा की भेंट भारतीय धर्म और अध्यात्म के मर्मज्ञ आनंद नामक विद्वान व्यक्ति से हुई। बिरसा मुंडा ने उन्हें अपना गुरु बनाया और उनसे शास्त्र , तप – साधना के मूल की शिक्षा ली‌ । आत्मसात किया और पुनः अपने विराट शाश्वत सनातन हिन्दू धर्म के अनुसार जीवन जीने लगे। इस प्रकार उन्होंने अपना पथ ढूंढ़ लिया। यह तो उनकी प्रारंभिक निर्मिति थी जो उनके विराट प्रयोजन की भूमिका रच रही थी।

किन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि इतिहास लेखन में और शासन सत्ताओं द्वारा उनके विविध पक्षों की घनघोर उपेक्षा की गई। यदि इसे षड्यंत्र कहें तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। बिरसा मुंडा के संघर्षों,कार्यों के विविध पक्षों के पूर्ण स्वरूप से ज्यादातर समाज आज भी अनभिज्ञ है। उनके जीवन के कई पहलुओं को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और पाठ्यक्रमों से विलोपित कर दिया गया। इस प्रकार उनके संघर्ष एवं क्रांति के सम्पूर्ण वांङ्गमय से भारतीय समाज को परिचित न कराकर उन्हें एक पँक्ति में – आदिवासी नेता एवं ‘उलगुलान’ के दायरे में समेटने का कार्य किया गया। उनकी स्मृतियों को उनके संपूर्ण अवदान को लोक के समक्ष लाने के कार्य नहीं किए गए। यह क्यों और किस मानसिकता के कारण हुआ – उसके बारे में लगभग सभी को ज्ञात ही है। स्वातंत्र्योत्तर भारत की सरकार और उपनिवेशवाद की मानसिकता से ग्रस्त ‘सरकारी तन्त्र’ के लिए भला बिरसा क्या मायने रखते? अगर मायने रखते तो जनजातीय नायकों का वैसा ही चरित्र चित्रण होता जैसा नेहरू – गांधी विरासत का हुआ है। यद्यपि 15 नवंबर 2021 को नरेंद्र मोदी सरकार ने भगवान बिरसा मुंडा की जयंती के अवसर पर ‘जनजातीय गौरव दिवस’ की शुरुआत कर नई लीक खींची। प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु – बिरसा मुंडा की जन्मस्थली पर पहुंचने वाले पहले प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति कहलाए। 15 नवंबर 2024 को बिहार के जमुई में प्रधानमंत्री मोदी ने भगवान बिरसा मुंडा के सम्मान में एक स्मारक सिक्का और डाक टिकट का अनावरण किया। इसके साथ ही संसद भवन परिसर में भगवान बिरसा मुंडा की प्रतिमा के साथ -साथ देश भर में उनकी स्मृतियों – गौरव गाथाओं को संजोने के काम दिखाई देते हैं।


संभव है पूर्व में बिरसा मुंडा के अवदान की इसलिए भी सुनियोजित ढंग से उपेक्षा की गई। क्योंकि ब्रिटिश सरकार के साथ ईसाई मिशनरियों के सबसे बड़े शत्रु के रूप में उभरे।उनका संपूर्ण जीवन भारतीय संस्कृति के इन्हीं दो शत्रुओं के समूलनाश करने में आहुत हो गया। यदि बिरसा मुंडा का यह स्वरूप जन-जन तक पहुंच जाता तो ‘कन्वर्जन’ के लिए जनजातीय समाज के बीच फैलाई जाने वाली अलगाव की भावना विफल हो जाती। क्योंकि जब बिरसा मुंडा के धर्मयोद्धा वाले क्रांतिकारी पृष्ठों को पलटा जाता तब सहज ही उनकी धर्मनिष्ठा का संकल्प जगमगा उठता। अंग्रेजी मिशनरियों के कुत्सित कृत्यों का चिठ्ठा खुल जाता। बस यही वह वजह रही कि इतिहासकारों (गल्पकारों) ने भारतीय इतिहास के महानायकों के जीवन संघर्ष को याकि एक पंक्ति में लिखा। याकि उनके एक पक्ष को फौरी तौर पर दर्ज कर अपने एजेंडें को लेकर आगे चलते बने । किन्तु जो इतिहास लोक में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आता रहा। भला, उसे कैसे हटा पाते ? बस यही कारण है कि धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा का सम्पूर्ण जीवन चरित्र भारतीय आदर्श के रुप में किताबों में न सही किन्तु लोक के ह्रदय में तो रचता-बसता चला गया।

प्रधानमंत्री मंत्री मोदी ने भी इस पर गंभीर सवाल खड़े करते हुए कहा — “आजादी के बाद जनजातीय समाज के योगदान को इतिहास में वो स्थान नहीं दिया गया जिसका मेरा जनजातीय समाज हकदार था। जनजातीय समाज वो है जिसने राजकुमार राम को भगवान राम बनाया। जनजातीय समाज वो है जिसने भारत की संस्कृति और आजादी की रक्षा के लिए, सैकड़ों वर्षों की लड़ाई को नेतृत्व दिया। लेकिन आजादी के बाद के दशकों में जनजातीय इतिहास के इस अनमोल योगदान को मिटाने के लिए कोशिश की गई। इसके पीछे भी स्वार्थ भरी राजनीति थी। राजनीति ये कि भारत की आजादी के लिए केवल एक ही दल को श्रेय दिया जाए। लेकिन अगर एक ही दल, एक ही परिवार ने आजादी दिलाई तो भगवान बिरसा मुंडा का उलगुलान आंदोलन क्यों हुआ था? संथाल क्रांति क्या थी? कोल क्रांति क्या थी?”
( 15 नवंबर 2024, जमुई बिहार)

कुछ इसी प्रकार की अभिव्यक्ति राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने 15 नवंबर 2024 को अपने लिखे एक लेख में व्यक्त की । उन्होंने लिखा —
“एक समय था जब भगवान बिरसा मुंडा और अन्य ऐसी विभूतियों का नाम इतिहास के ‘गुमनाम नायकों’ में था। हाल के दिनों में मातृभूमि के लिए उनके पराक्रम और बलिदान को अधिक से अधिक लोगों द्वारा सही मायने में सराहा जाने लगा है। आजादी के अमृत महोत्सव के दौरान हमने अपनी संस्कृति और उपलब्धियों के गौरवशाली इतिहास का उत्सव मनाया। इससे देशवासियों, विशेषकर युवा पीढ़ी को ऐसे महान देशभक्तों के वीरतापूर्ण योगदान के बारे में अधिक जानकारी मिली, जिनके बारे में पहले कम लोग जानते थे। इतिहास के साथ इस नए जुड़ाव को तब बढ़ावा मिला, जब सरकार ने 2021 में जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान का स्मरण करने के लिए बिरसा मुंडा की जयंती-15 नवंबर को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाने का फैसला किया।”

इन्हीं संदर्भों के आलोक में प्रश्न यह भी हैं कि क्या बिरसा मुंडा को किसी सीमित दायरे में समेट कर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का मूल्यांकन करना चाहिए? बिरसा मुंडा को क्या हम जमींदारों और अंग्रेजों के विरुद्ध केवल जंगल-जमीन एवं वहाँ के संसाधनों के लिए संघर्ष करने वाले नायक के तौर पर ही देखना चाहते हैं? क्या बिरसा मुंडा के संघर्ष को नागपुर के पठार की सीमित परिधि में ही देखना चाहिए?

जब इन प्रश्नों की पड़ताल करते हैं तो हमें उनके अतीत के सारे पक्षों की ओर लौटना पड़ जाता है। जब सूक्ष्म दृष्टि से उनके जीवन के विभिन्न पक्षों का अध्ययन करते हैं लोकश्रुति के माध्यम से बिखरे हुए तारों को एक -एक कर जुटाने लगते हैं तब जो हम पाते हैं। उससे हम गर्व के साथ भर तो उठते ही हैं । साथ ही उनके जीवन के संघर्षों को हम भारतीय अतीत के महानायकों यथा- छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप ,वीरांगना लक्ष्मीबाई , सिख गुरुओं की पँक्ति में खड़ा हुआ पाते हैं। स्वातंत्र्य यज्ञ में जिस प्रकार इन महानायकों ने धर्मरक्षा के संकल्प एवं क्रांति का सूत्रपात किया था । उसी प्रकार भगवान बिरसा मुंडा का जीवनचरित है। इसीलिए उन्हें किसी निश्चित परिधि में समेटकर नहीं बल्कि समेकित तौर पर विस्तृत तरीके से — उनके कार्यों को देखना -समझना और जानना पड़ेगा।

 

बिरसा मुंडा को हमें धर्मरक्षक ,क्रांतिवीर ,वनवासी नेता ,भगवान ,समाजसुधारक जैसे कई आयामों के अन्तर्गत देखना पड़ेगा। उनकी लड़ाई महज जंगल के संसाधनों पर मुंडाओं, वनवासी समाज के अधिकार के लिए जमींदारों और अंग्रेजी व्यवस्था के विरुद्ध ही नहीं थी। बल्कि उनका संघर्ष — कन्वर्जन, धार्मिक और सांस्कृतिक अस्मिता, धर्मरक्षा एवं स्वायत्तता के लिए था। उन्होंने समूचे मुंडा समाज को संगठित कर योजनाबद्ध तरीके से जमींदारों, अंग्रेजी शासन और ईसाई मिशनरियों से लड़ाई लड़ी। हमें इस बात पर गंभीरता के साथ चिन्तन-मनन करना पड़ेगा कि — आखिर एक चौदह वर्षीय बालक जिसके पूरे परिवार का ईसाइयत में धर्मान्तरण हो चुका था । जब उसके स्कूल में उसके धर्म एवं समाज को अपमानित किया जा रहा था तब उसके अन्दर प्रतिशोध की आग कैसे जली? वह आखिर क्या था जिसके चलते कन्वर्ट होने के बावजूद उसके द्वारा अपने धर्म और समाज को अपमानित होते हुए नहीं देखा जा रहा था?

वह कौन सा हेतु या तत्व था ?जिसके कारण 14 वर्षीय बिरसा ने अपने स्कूल के ईसाई शिक्षकों के विरुद्ध प्रतिकार का रास्ता अपनाया। वो बिरसा जिनका पूरा का पूरा परिवार कन्वर्ट हो गया था। वहां केवल एक 14 वर्षीय बालक ने कन्वर्जन के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का निश्चय कर लिया। यह अपने आप में बड़ा प्रतिमान है। स्पष्ट है उस बालक के अन्दर वह तत्व था जिसे उसके पुरखों ने संस्कारों के माध्यम से संचारित किया था। जब उस स्वाभिमान और धर्मतत्व पर ईसाइयों ने घात किया तब उसकी अन्तरात्मा की आवाज ने उसे उसके मूल का स्मरण करवाया ‌। फिर बिरसा मुंडा षड्यंत्रों के व्यूहों को भेदने के लिए उठ खड़े हुए तो आजीवन धर्मरक्षा के पथ से नहीं डिगे।

चौदह वर्षीय बिरसा मुंडा ने अंग्रेजी शासन और ईसाई मिशनरियों की कुटिलता के लिए कहा था — “साहेब -साहेब एक टोपी है” अर्थात् ईसाई मिशनरी जो ‘कन्वर्जन’ में लगी है। और अंग्रेजी शासन जो जमींदारों के साथ मिलकर वनसंसाधनों को छीन रही है‌ । जनजातीय वनवासी समाज का जीवन मुश्किल कर रहे हैं
वे दोनों एक ही हैं। दोनों का उद्देश्य वही है — “दमन और उनकी धार्मिक पहचान छीनना” ।

बिरसा मुंडा जिन्होंने कन्वर्टेड मुंडा समाज की व्यापक स्तर पर पुनः सनातन हिन्दू धर्म की शाखा- वैष्णव धर्म में वापसी करवाई । इतना ही नहीं उन्होंने कन्वर्जन (धर्मान्तरण) के विरुद्ध जनजागरण चलाया। भारतीय परंपरा के मूल्यों, मानबिंदुओं, आस्था केन्द्रों के प्रति समाज को जागृत कर रहे थे‌ । धर्म और कर्म का मर्म सिखा रहे थे। उन्होंने धार्मिक आचरणों और उपासना पध्दति के प्रति निष्ठावान एवं पालनकर्ता होने का कार्य कराया। बिरसा मुंडा ने समूचे मुंडा समाज को तुलसी पूजा, गौ-रक्षा ,गौहत्या पर रोक, मांसाहार त्याग ,स्वच्छता , शुद्धता, सात्विकता ,धार्मिक और पौराणिक ग्रंथों के अध्ययन की ओर मोड़ा। साथ ही वो कथाओं के श्रवण ,गीता पाठ और देवी -देवताओं की उपासना करने की जीवनशैली को अपनाने पर जोर देते रहे। समाज के धार्मिक एवं सामाजिक गौरव को प्रतिष्ठित करने का आह्वान किया। वे जितने बड़े शूरवीर थे उतने ही बड़े आर्युवेद की परंपरा के ज्ञाता भी थे। वो कहा करते थे कि — “तुम्हारी प्रकृति में वो सबकुछ है जो तुम्हें प्राणवान बनाती है। इन वृक्षों में आग मत लगाना। ये वृक्ष सबकुछ हैं। ये फल-फूल ही नहीं देते। इनसे तुम्हारे सारे रोग, बीमारियाँ ठीक होती हैं। सब वृक्ष, सब फल, सब प्रकार की चीजों की अपनी उपयोगिता है इसलिए वन में इसको कहीं से नष्ट मत होने दो।” अभिप्राय यह की रत्नगर्भा प्रकृति की संतान होने के साथ साथ भारतीय ज्ञान परम्परा और प्रकृति के संरक्षण सम्वर्द्धन के लिए भी बिरसा प्रतिबद्ध थे।

उनका एक दैवीय एवं चमत्कारिक अवतार के तौर पर स्थापित होना कोई साधारण बात नहीं थी। बल्कि इसके पीछे उनके असाधारण कार्य थे जिसके चलते समूचे मुंडा समाज में जागृति ,धार्मिक सुव्यवस्थित जीवनशैली का सूत्रपात हुआ। साथ ही विभिन्न बीमारियों से रक्षा के लिए बिरसा मुंडा ने जो उपाय बतलाए उससे मुंडा समाज सशक्त हुआ। उन्हें उनके संसाधनों के अधिकार दिलवाए व उनके मूलस्वरूप को पुनर्जीवित -पुनर्प्रतिष्ठित करने का अतुलनीय साहसिक कार्य किया। अब ऐसे में उन्हें भगवान का दर्जा देना कोई बड़ी बात नहीं है । क्योंकि जो जीवन का उत्थानकर्ता होता है। वही हमारा ईश्वर होता है और उसमें ईश्वरीय अंश ही होता है । जो जीवन को अनगढ़ से सुडौल स्वरूप में गढ़ता है।

बिरसा मुंडा के अनुयायी “बिरसाइत” कहलाए जो हिन्दू जीवनादर्शों के प्रचारक के साथ-साथ ‘शस्त्र-शास्त्र’ शिक्षण की भारतीय सनातनी परंपरा को प्रसारित किया। उन्होंने
आंदोलनकारियों को तीन श्रेणियों में बाँटा – प्रचारक या गुरु, पुरानक या पूराने और ननक। प्रचारक या गुरु श्रेणी में अत्यंत विश्वासपात्रों को शामिल किया गया। इनके पवित्र घरों में ही बिरसा-समर्थकों की गुप्त मंत्रणाएँ होती थीं। प्रायः ये मंत्रणाएँ बृहस्पतिवार और रविवार को रात के समय होती थीं। पुरानक या पुराने श्रेणी में आर-पार के युद्ध के लिए हर क्षण तैयार रहने वाले शामिल थे। ननक श्रेणी के लोगों को बिरसा प्रस्तावों के विषय में जानकारी देकर आवश्यक कार्य सौंपते थे।

इसी दिशा में धर्म और परंपराओं के पालन के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा और आस्था दृष्टव्य होती है। बिरसा मुंडा अपने पूर्वजों की राजधानी नवरतनगढ़ से मिट्टी और पानी लाए तो चुटिया के मन्दिर से तुलसी के पौधे ,जगन्नाथपुर के मन्दिर से चन्दन लाए और समूचे मुंडा समाज को अपने प्रतीकों ,मूल्यों ,आदर्शों को संजोने का संकल्प दिलाया । अंग्रेजों,ईसाई मिशनरियों, जमींदारों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा खोलकर उनका संहार किया।

विश्व प्रसिद्ध उड़ीसा में स्थित जगन्नाथपुरी को वनवासी जनजातीय समाज अपनी आस्था का महत्वपूर्ण केन्द्र मानते आ रहे थे। जगन्नाथपुरी को वे अपना पैतृक मंदिर मानते थे। यहां मुंडा-पूर्वज विभिन्न भेंटें लेकर आते थे और ईश्वर की पूजा करते थे। आगे चलकर अंग्रेजों ने ‘फूट डालो राज करो’ की नीति की कुटिल चाल चली। जगन्नाथपुरी में वनवासी जनजातीय समाज के जाने पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके विरुद्ध बिरसा मुंडा ने अपने समर्थकों सहित जगन्नाथपुरी की ओर प्रस्थान किया। उस समय उन्होंने पारंपरिक दृष्टि से हल्दी से रंगी हुई धोती पहनी । अपनी अनन्य धर्मनिष्ठा के साथ उन्होंने पुरी के मंदिर में 15 दिन तक अन्न-जल का पूर्णतः त्याग कर कठोर तपस्या की‌। इस दौरान उन्होंने समाज में व्‍याप्‍त कुरीतियों के
विरुद्ध लोगों को जागरूक करने का संकल्प लिया। वे अपने अनुयायियों को आस्था केन्द्रों के विषय में कहते थे — “ तुम्हारे परिक्षेत्र के ये तीन मंदिर चुटिया का मंदिर, जगन्नाथ का मंदिर, रतनगढ़ का मंदिर जिसे कभी तुम्हारे पूर्वजों ने इस आटविक प्रदेश में, इस वन्य प्रदेश में स्थापित किया है, ये तुम्हारी उपासना के तीर्थ हैं।”

तना ही नहीं अपने अनुयायियों के मध्य तीन बातों को दृढ़तापूर्वक कहते थे। वे समाज प्रबोधन करते हुए कहते थे — “‘पूर्व में ब्रह्मा तुम्हें आवाज दे रहे हैं। पश्चिम में विष्णु तुम्हें आवाज दे रहे हैं। उत्तर में काली तुम्हें आवाज दे रही हैं। दक्षिण में दुर्गा तुम्हें आवाज दे रही हैं। हर दिशाओं से तुम्हारे बोंगा तुमको आवाज दे रहे हैं।” साथ ही उन्होंने सम्पूर्ण समाज में चैतन्यता के लिए ‘महादेव बोंगा’ और ‘चंडी बोंगा’ के आदर्शों को आत्मसात करने पर जोर दिया। जहां वे स्त्रियों से कहते थे — ‘वह जननी जो महादेव बोंगा की पत्नी हैं, तुम उस चंडी के समान बनो।’ तो वहीं पुरुषों से कहते थे — ‘वो सीता के पति तुम्हें आह्वान कर रहे हैं, तुम्हें आवाज दे रहे हैं, तुम उनकी सुनो।” वस्तुत: महादेव मुंडा, महादेव बोंगा, चंडी बोंगा ये स्थानीय भाषाओं में देवताओं के नाम थे। इनके मूल में भगवान महादेव और झारखंड के टांगी नाथ हैं। बाबा वैद्यनाथ हैं।

आगे चलकर उन्होंने 24 दिसंबर 1899 को उलगुलान! क्रांति में नारा दिया- “हेन्दे राम्बडा रे केच्चे केच्चे-पुण्ड्रा राम्बडा रे केच्चे-केच्चे ” अर्थात् – काले ईसाइयों को काट दो-गोरे ईसाइयों को काट दो ”

क्या यह नारा कन्वर्जन की क्रूरतम त्रासदी के विरुद्ध प्रतिशोध एवं प्रतिकार की हुँकार नहीं थी?उनका यह नारा केवल नारा ही नहीं बल्कि उनके ह्रदय का वह ज्वार था। जो अंग्रेजों, ईसाई मिशनरियों, जमींदारों के दमन और कन्वर्जन के षड्यंत्रों के कारण उत्पन्न हुआ। उनकी क्रान्ति से घबराई अंग्रेजी सरकार ने बिरसा मुंडा के प्रति दमन ,बर्बरता सहित छल की नीतियाँ अपनाई ।
19 नवम्बर 1895 को उन्हें रांची के हजारीबाग कारावास में बन्द कर पागल घोषित करवाया। भीषण यातना देते हुए मुंडा समाज के सामने उनकी प्रदर्शनी लगाकर शेष मुंडा समाज का उनके प्रति विश्वास खत्म करने और अपना भय स्थापित करने के लिए उन पर अत्याचार किए गए। किन्तु अंग्रेजो की भीषण यातनाएँ भी बिरसा मुंडा को न तोड़ सकीं और न ही उनके अन्दर के स्वाभिमान ,धर्मरक्षा के अखंड संकल्प को दबा पाए।

भगवान बिरसा मुंडा की क्रान्ति ज्वाला इतनी प्रखर थी कि ब्रिटिश सरकार भयाक्रांत थी।उनकी गिरफ्तारी पर लेफ्टिनेंट गवर्नर ने जो बयान दिया वह उनकी गाथा को सुस्पष्ट करता है। गवर्नर ने कहा — “वहाँ सरकार के पास तोपें भी थीं, सिविल गन्स भी थीं, मोर्टायर भी थीं लेकिन यहाँ बिरसा के साथियों का साहस था कि वो कुल्हाड़ी और धनुष के साथ संघर्ष में थे और स्त्रियाँ भी संघर्ष में थीं।”

तत्कालीन डिप्टी सुपरिटेंडेट जी आर के मेयर्स ने भी अपने बयान में कहा — “बिरसा के इतिहास और संघर्ष के कालक्रम में क्या हुआ, ये सभी जानते हैं। बिरसा मुंडा के लोगों ने सिंबुआ में, डोंबारी में, तमाड़ में, खूँटी में, चाइबासा में रक्त रंजित संघर्ष में भाग लिया। इतना ही नहीं मेयर्स ने यहां तक कहा कि — “जब तक बिरसा मुंडा कारावास में है, तब तक यह न समझें कि सबकुछ शांत है। वास्तव में बिरसा को बंदी बनाकर सरकार बारूद के ऐसे ढेर पर बैठ गई है, जिसे उसके संग्राम की एक चिनगारी पल भर में जला‍कर भस्‍म कर देगी।”

बिरसा मुंडा जब 30 नवम्बर 1897 को जेल से छूटे तो उन्होंने मुंडाओं के अन्दर उस बीज को रोपने का कार्य किया जिसमें प्रत्येक मुंडा -एक बिरसा मुंडा ही बने। ताकि वह अपने दृढ़ निश्चय, क्रांति, धर्मरक्षा के पथ से कभी न हटे जिसका मुंडाओं ने पालन भी किया। बिरसा मुंडा ने 8 जनवरी 1899 को डोम्बारी पहाड़ में हजारों मुंडाओं को संगठित कर ‘बीरदाह’ (पवित्र जल) से दीक्षित कर पुनः क्रांति का बिगुल फूँका। इस दौरान अंग्रेजी थानों और शासन को वीर मुंडाओं ने नष्ट कर दिया।किन्तु अंग्रेजों की ओर से तोप,बन्दूकों, बारूदी गोलों का सामना भाला,तीर-कमान ज्यादा समय तक नहीं कर पाए ।हजारों मुंडाओं को अंग्रेजों ने मौत की नींद सुला दी जिसमें बच्चे, बूढ़े,नौजवान, महिलाएं सभी शामिल थे। तत्पश्चात षड्यन्त्रपूर्वक बिरसा मुंडा को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया । उन्हें जेल में मर्मान्तक यातनाएँ दी गई। अन्त में ‘एशियाटिक हैजा’ का प्रपञ्च रचते हुए 9 जून 1900 को उनकी कारावास में जहर देकर हत्या कर दी गई।

उस समय ब्रिटिश अधिकारियों ने अंग्रेजी सरकार को बिरसा के विरूद्ध जो रिपोर्ट भेजी। उसमें जनजातीय अस्मिता के साथ क्रांति और कन्वर्जन के विरुद्ध बिरसा मुंडा की हुंकार परिलक्षित होती है। उस रिपोर्ट में लिखा गया कि
1. बिरसा वनवासियों को खेती करने से मना करता है।
2. वनवासियों को ईसाई रिलिजन छोड़कर हिन्‍दू बनने के लिए प्रेरित कर रहा है।
3. मांसाहार को प्रतिबंधित कर दिया है।
4. वह लोगों को उकसाते हुए कहता है कि अंग्रेजों के अधीन जंगलों को वह अपने अधिकार में ले लेगा। जो लोग कड़ाई से अपने धर्म का पालन करेंगे, केवल उन्हें ही उन जंगलों में रहने की अनुमति मिलेगी।

यानी सारे उद्धरण और तथ्य भगवान बिरसा मुंडा की यशस्वी अमरकाया की गौरवगाथा को प्रस्तुत करते हैं। अंग्रेजों ने भौतिक तौर पर बिरसा मुंडा की हत्या तो की। लेकिन वे उन बिरसा मुंडा को नहीं मार पाए जिन्होंने अपनी धार्मिक- सामाजिक ,सांस्कृतिक और वन संसाधनों की स्वायत्तता की लड़ाई का बिगुल फूँका । जो समूचे भारतवर्ष में क्रांति और धर्मरक्षा की अमिट लकीर बना। इसी के चलते बिरसा मुंडा वनाञ्चलों में निवास करने वालों के साथ -साथ समूचे भारतवर्ष के लिए एक आदर्श जननायक, भगवान के तौर पर स्थापित हुए। भगवान बिरसा मुंडा के अभूतपूर्व त्याग, बलिदान और पुरुषार्थ से परिपूर्ण क्रांति जन-जन में सदा जागृत रहेगी ।
वे समूचे भारतवर्ष के लिए एक ऐसे महानायक के तौर पर जाने जाते रहेंगे जिन्होंने – राष्ट्र रक्षा समं पुण्यं, राष्ट्र रक्षा समं व्रतम्। राष्ट्र रक्षा समं यज्ञो,दृष्टो नैव च नैव च।। मन्त्र को चरितार्थ करते हुए अपने जीवन की आहुति से राष्ट्र का पथप्रदर्शित एवं आलोकित किया है।आवश्यकता है उनकी गौरवगाथा के सूत्रों को आत्मसात कर राष्ट्र और समाज के कल्याण के गतिमान होने की।

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

(लेखक IBC 24 में असिस्टेंट प्रोड्यूसर हैं)
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Disclaimer- आलेख में व्यक्त विचारों से IBC24 अथवा SBMMPL का कोई संबंध नहीं है। हर तरह के वाद, विवाद के लिए लेखक व्यक्तिगत तौर से जिम्मेदार हैं।

सन्दर्भ ग्रन्थ : बिरसा मुंडा, लेखक- गोपी कृष्‍ण कुँवर, प्रभात प्रकाशन
* Amritmahotsav.in
* https://www.indiaculture.gov.in/