हनुमानगढ़ी में सदियों पुरानी परंपरा टूटी, पीठ के महंत मंदिर से बाहर निकले

हनुमानगढ़ी में सदियों पुरानी परंपरा टूटी, पीठ के महंत मंदिर से बाहर निकले

हनुमानगढ़ी में सदियों पुरानी परंपरा टूटी, पीठ के महंत मंदिर से बाहर निकले
Modified Date: April 30, 2025 / 05:14 pm IST
Published Date: April 30, 2025 5:14 pm IST

अयोध्या, 30 अप्रैल (भाषा) सदियों पुरानी धार्मिक परंपरा से हटने के एक ऐतिहासिक एवं भावुक अवसर में अयोध्या के हनुमानगढ़ी मंदिर के पीठाधीश महंत प्रेम दास अक्षय तृतीय के अवसर पर पहली बार मंदिर परिसर से बाहर निकले। 300 से अधिक वर्षों में यह पहला ऐसा मौका है जब हनुमानगढ़ी का कोई महंत मंदिर परिसर से बाहर निकला है।

नवनिर्मित राम मंदिर में जाने के लिए महंत प्रेम दास के नेतृत्व में शाही जुलूस निकला। इससे पूर्व महंत ने 52 बीघा का हनुमानगढ़ी परिसर अपने जीवनकाल में कभी नहीं छोड़ने की एक अटूट परंपरा शुरू की थी।

हाथी, घोड़े और ऊंटों को लेकर गाजे बाजे के साथ निकले इस जुलूस में हजारों की संख्या में नागा साधु, श्रद्धालु और उनके शिष्य शामिल हुए। यह आध्यात्मिक यात्रा सरयू नदी के तट से शुरू हुई जहां महंत प्रेम दास और अन्य साधु संतों ने राम मंदिर में पूजा अर्चना से पूर्व पवित्र सरयू नदी में स्नान किया।

 ⁠

हनुमानगढ़ी के महंत संजय दास ने कहा, “इस परंपरा का 1737 से (288 साल) पालन किया जाता रहा है। महंत की भूमिका स्वयं को भगवान हनुमान को समर्पित करने की है। एक बार पीठ पर विराजमान होने के बाद वह इस मंदिर परिसर में ही जीता और मरता है। उसका शरीर मृत्यु के बाद ही यह परिसर छोड़ सकता है।”

वर्ष 1925 में बने हनुमानगढ़ी के संविधान के अनुसार इन परंपराओं को नागा साधुओं द्वारा मान्यता दी गई और इन्हें लागू किया गया।

संजय दास ने कहा, “यहां तक कि दीवानी मामले में भी अदालतों ने इस परंपरा का सम्मान किया है।”

उन्होंने कहा, “आवश्यकता पड़ने पर इस अखाड़े का प्रतिनिधि अदालत में पेश होता है। वास्तव में, 1980 के दशक में अदालत ने महंत का बयान दर्ज करने के लिए हनुमानगढ़ी के भीतर सुनवाई की थी।”

हालांकि, हाल के निर्णय को हल्के में नहीं लिया गया। निर्वाणी अखाड़ा के पंच परमेश्वर ने सर्वसम्मति से राम लला के मंदिर में जाने की महंत की इच्छा स्वीकार की।

निर्वाणी अखाड़ा के प्रमुख महंत रामकुमार दास ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, “पीठासीन महंत की राम मंदिर जाने की इच्छा दिल को छू गई। धार्मिक परिचर्चा और आम सहमति बनने के बाद अखाड़ा ने जीवन में एक बार की यह अनुमति दी।”

इस जुलूस में अखाड़ा के निशान और प्रतीक चिह्न भी साधु संतों के हाथों में दिखे। महंत के साथ बड़ी संख्या में नागा साधु, मंदिर के सेवादार, स्थानीय दुकानदार, श्रद्धालु इस जुलूस में शामिल हुए।

भाषा

सं, राजेंद्र, रवि कांत रवि कांत


लेखक के बारे में