विश्व पर्यावरण दिवस: पृथ्वी और पर्यावरण पर बढ़ती चुनौती, जिम्मेदार कौन? पूर्व मंत्री चंद्रशेखर साहू

विश्व पर्यावरण दिवस: पृथ्वी और पर्यावरण पर बढ़ती चुनौती, जिम्मेदार कौन? पूर्व मंत्री चंद्रशेखर साहू

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  • Publish Date - June 4, 2021 / 04:06 PM IST,
    Updated On - November 29, 2022 / 08:36 PM IST

रायपुर: जब बारिश की बूंदे धरती पृथ्वी पर पड़ती है हमारा रोग-रोम पुलकित हो जाता है, पृथ्वी खुशी से मुस्कराने लगती है और ईश्वर का धन्यवाद करती है, लेकिन पर्तमान हालात में पृथ्वी को मुस्कराने पर नहीं बल्कि सिसकने पर मजबूर कर दिया है। वजह साफ है सजीवों को जीवन प्रदान व पोषित करने वाली अनावी और सुन्दर पृथ्वी को चारों ओर से क्षति पहुंचाने का कार्य चरम पर है जो प्राकृतिक आपदा का प्रमुख कारक है। मानव यह मूलता जा रहा है कि पृथ्वी हमसे नहीं, बलिया पृथ्वी से हम है। यानि कि यदि पृथ्वी का अस्तित्व है तो हमारा अस्तित्व है अन्यथा हमारा कोई मूल्य नहीं। यह मानव अपने मन-मस्तिष्क से निकाल व नजरअंदकर भारी गलती कर रहा है और इसका नतीजा मानप भुगत भी रहा है। दुनिया भर में प्रदूषण से लगभग 21 लाख लोग हर साल मौत की गोद में समा जाते हैं। यह जानते हुए भी हम पृथ्वी के अस्तित्व से खिलवाड़ करने पर लगातार उतारू है।

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कुल मिलाकर पृथ्वी को मुख्य पर चीजों से खतरा है। पहला ग्लोबल वार्मिंग है। विषेशज्ञ यह आशंका व्यक्त कर चुके हैं कि मौसम को और भी मारक बना दिया है और आने वाले वर्षों में मौसम में अहम बदलाव होने की पूरी संभावना है। चक्रवात, लू, अतिवृष्टि और सूखे जैसी आपदाएं आम हो जायेंगी। धरती पर विद्यमान ग्लेशियर से पृथ्वी का सामान संतुलित रहता है, लेकिन बदलते परिवेश में इसे असंतुलित कर दिया है। तापमान में बढ़ोतरी का अंदाजा वर्ष दर वर्ष सहज ही महसूस कर सकते हैं। कुछ दशक पहले अत्यधिक गर्मी पड़ने पर भी 38 से 40 डिग्री सेल्सियस तापमान हुआ करता था, लेकिन अब यह 50 से 55 डिग्री सेल्सियस तक जा पहुंचा है। लगातार बढ़ते तापमान से ग्लेशियर पिघलने लगा है और वह दिन दूर नहीं जब पूरी पृथ्वी को जलप्रलय अपने आगोश में ले लेगा। संयुक्त राष्ट्र की इंटर-गवर्मेट पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि धरती के बढ़ते तापमान और बदलती जलवायु के लिए कोई प्राकृतिक कारण नहीं, बल्कि इंसान की गतिविधिया ही जिम्मेदार हैं। इसलिए अभी भी वक्त है कि हम समय रहते सभल जाएं।

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आज हर तरह से विकास की कीमत प्रकृति को ही चुकानी पड़ रही है। संसाधनों की क्षतिपूर्ति के लिए इतनी गंभीरता से नहीं सोचा जाता, जितनी गंभीरता से प्रकृति का दोहन किया जा रहा है। बढ़ती जनसंख्या के कारण जीवनोपयोगी सामग्री की मांग भी बढ़ जाती हैं और उस मांग की पूर्ति करने के लिए विज्ञान प्रतिदिन नए-नए आविष्कार कर रहा है और इसकी वजह से वह प्रकृति का दोहन करने में लगा हुआ है। प्रकृति के दोहन करने की प्रक्रिया अनेक प्रकार के प्रदूषण को जन्म दे रही है। विज्ञान के नए-नए आविष्कारों ने हमारे पर्यावरण को प्रदूषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज पर्यावरण प्रदूषण हमारे लिए एक भयंकर चुनौती बन गई है।

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वर्तमान संदर्भ में पर्यावरण संकट
देश के पश्चिमी और पूर्वी भाग अभी चक्रवात का ताइव झेल रहा है। तौकते और यास जैसे चक्रवाती तूफानो से तटीय क्षेत्रों के राज्य के अलावा अनेक राज्यों का जन-जीवन काफी प्रभावित रहा है यद्यपि इन तूफानों से हुए क्षति व जनधन की हानि का अनुमान कई हजार करोड़ में है किन्तु पर्यावरणीय क्षति का आंकलन किया जाना है। अब प्रश्न है कि प्राकृतिक विपदा के विकरालता का पर्यावरणीय अध्ययन एव: निष्कर्ष क्या है और उसके समाधान की दिशा क्या है आज समूचा विश्व पर्यावरण संकट से घिरा है की बादल फटने, प्रलयकारी जल प्रवाह, घनघोर बारिश तो कहीं अन्य तूफानो ग्लेशियर पिघलने की घटना निरंतर हो रही है। विश्व को हर कोने में ऐसी विपदा का समाधान प्रभावकारी क्यों नहीं पा रहा है इसका उत्तर भी आज शेष है। पर्यावरण का विषय पर समाधानकारक तंत्र सभवतः नहीं बन पाया है। जबकि समूचे राष्ट्र के लिये एवं समाज जीवन को झझकोरने वाला मुद्दा वैश्विक परिदृश्य में भी पर्यावरण बिगाड़ने वाले कारक बहुत अधिक चिंहित नहीं है और सम्पन्न देश तो जवाबदेही टालने की नीति पर टिके हुये है। इससे यह सकट सर्वग्राही बन चुका है। हवा पानी प्रदूषण बनी का खात्मा घटती जैवविविधता लगातार पृथ्वी को गंभीर रूप से आघात पहुंचाने के बावजूद आज भी पर्यावरण का मुददा समाज एवं सरकार का केन्द्रीय एजेण्डा नहीं बन पाया है, भले ही संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) के द्वारा प्रतिवर्ष वैश्विक सम्मेलन के माध्यम से सभी राष्ट्रों को एक गंध दिया जाता है। जलवायु परिवर्तन के लिए स्थायी फोरम भी बना हुआ है। पिछले दो दशक में चार अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन और अनेक गोलियों में मुझे भाग लेने का अवसर मिला है। डेनमार्क के COP-15 से लेकर ब्राजील के रियोडिजनेस में पृथ्वी सम्मेलन में शामिल होकर मुझे समृद्ध देशों की बुलमुल नीतियों को देखकर अंतहीन प्रश्न ही मिला है। अब जब दुनिया की आबादी में कोराना कालखंड का दौर चल रहा है पर्यावरण और पृथ्वी पर इस संकट से उबरने के लिए जिम्मेदारी निभाने का वक्त आ गया है।

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बढ़ते तापमान से न केवल जलवायु परिवर्तन होने लगा है कि पृथ्वी पर वीजन की मात्रा ही कम होने लगी है। इससे कई बीमारियों का बोलबाला बढ़ता जा रहा है और इसका मुख्य कारण है ग्रीनहाउस गैस बढती मानवीय गतिविधियां और लगातार कर रहे जंगल। पेड़ों की कटाई एवं सिमटते जंगलों की वजह से भूमि बजर और रंगिस्तान में तब्दील होती जा रही है। यदि भारत की ही बात करें तो यह पिछले नौ सालों में 279 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र विकास की भेंट चढ़ गये जबकि यहां पर कुल दन क्षेत्रफल [6,90,899 वर्ग किलोमीटर है। वन न केवल पृथ्वी पर मिट्टी की पकड बनाए रखता है, बल्कि बाढ़ को भी रोकता है और मृदा को उपजाऊ बनाये रखता है। साथ हो. वन ही ऐसा अनमोल चीज है जो बारिश कराने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देकर हमे पानी उपलब्ध कराता है। धरती पर पानी की उपलब्धता की बात करें तो धरती पर 140. अरब घन किलोमीटर पानी है। इसमें से 975 फीसदी चारापानी समुद्र में है 15 फीसदी पानी बाई के रूप में है। इसमें से ज्यादा ध्रुवों एवं ग्लेशियों में है।

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दूसरा है ओजोन परत में छिद्र सूर्य की खतरनाक पैराबैंगनी किरणों से ओजोन की छतरी हमे बचाती है, लेकिन मानवीय गतिविधियां एवं प्रदूषण ने इसमें लगातार छिद्र होने पर मजबूर कर दिया है। इस महत्वपूर्ण परत मे छिद्र आकार लगातार बढ़ता ही जा रहा है, जो भयंकर विनाश की ओर इशारा करती है। देखा जाये तो ओजान क्षरण के लिए क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस और खेती में इस्तेमाल की जाने वाला पेस्टीसाइड मेथिल ग्रोमाइड जिम्मेदार है। रैफीजरेटर से लेकर एयरकंडीशनर तक क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस का उत्सर्जन करते हैं और इन उपकरणों के प्रचलन में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। बढ़ते प्रदूषण ने लोगों का सांस लेना दूभर कर दिया है। येल यूनिवर्सिटी के ग्लोबल इनवॉयर्नमेंट परफॉरमेंट इंडेक्स (ईपीआई) 2014 के मुताबिक, दमघोंटू देश जहां भारत 155वे स्थान पर है, वहीं नेपाल 139वें स्थान पर है।

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तीसरा है प्राकृतिक संसाधनों का दोहन धरती का गर्म दिन-प्रतिदिन खोखला होता जा रहा है, जिसका मुख्य कारण है खनिज पदार्थों का दोहन प्राकृतिक संपदाओं की तलाश आदि। विशेषज्ञ इस बात की आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि धरती के उपरी परत का आवरण कमजोर पड़ता जा रहा है, जिससे धरती बिखर सकती है। खदानों और बोरवेल के दौर में पहाड़, नदी, पेड़ और जंगल लगभग समाप्त होने के कगार पर पहुंच चुके हैं।

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