भोपाल: मध्यप्रदेश की सियासत में इस वक्त एक बड़ा फैक्टर बने हुए हैं सिंधिया। पूर्व सीएम और दिग्गज कांग्रेसी दिग्विजय सिंह ये मानते हैं कि सिंधिया के जाने से पार्टी को नुकसान तो हुआ, लेकिन साथ ही ये भी दावा है कि उनके जाने के बाद पार्टी ने नए, काबिल और जनाधार वाले नेताओं को आगे आने का मौका मिला है। वहीं, दूसरी तरफ भाजपा में ज्योतिरादित्य सिंधिया का बढ़ता कद पार्टी के भीतर असंतोष और पुराने दिग्गजों को बैचेन करने की वजह बन रहा है। विपक्ष का दावा है कि जल्द ही ये असंतोष सत्तापक्ष को भारी पड़ेगा। बड़ा सवाल ये है कि सिंधिया के साथ भाजपा या सिंधिया के बिना कांग्रेस किसके लिए संतुलन साधना ज्यादा चुनौतीपूर्ण है? क्योंकि जिसने ये चुनौती साधी वो अगले चुनाव में मजबूती से उभरेगा।
IBC24 को दिए अपने इंटरव्यू में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने ये माना कि जब सिंधिया कांग्रेस में थे तो कई लोगों को मौके नहीं मिलते थे। कांग्रेस में उस वक्त पूरे ग्वालियर चंबल में सिंधिया का ही वर्चस्व था, लिहाजा संगठन में संतुलन बनाए रहने के लिए वहां से कांग्रेस का कोई और बड़ा नेता कभी उभर नहीं पाया। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। कांग्रेस के मुताबिक ग्वालियर चंबल में कांग्रेस के नए और ऊर्जावान नेता सामने आ रहे हैं, जिनकी छवि अच्छी होने के साथ ही उनका व्यापक जनाधार भी है, जिसका लाभ कांग्रेस को मिलेगा।
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उपचुनाव में ग्वालियर-चंबल संभाग में कांग्रेस ने 7 सीटें जीती, एक सीट मात्र सवा सौ वोटों के अंतर से गंवाई है। इससे साफ है कि सिंधिया और भाजपा की सम्मलित ताकत भी कांग्रेस का उतना नुकसान नहीं कर पाई, जितने की आशंका जताई जा रही है। जबकि कांग्रेस के पास उस वक्त दोनों संभागों में कोई कद्दावर नेता नहीं था। वहीं बीजेपी सत्ता में रहकर चुनाव लड़ रही थी। किसान आंदोलन को लेकर कांग्रेस श्योपुर,मुरैना,भिंड में लगातार सक्रिय है। पूर्व मंत्री गोविंद सिंह,रामनिवास रावत,अशोक सिंह,सतीश सिकरवाई,राकेश मावई के जरिए पार्टी जातिगत संतुलन बनाने में जुटी है। जाहिर तौर पर सिंधिया का न होना कांग्रेस और कांग्रेसियों के लिए एक मौका है।
इधर, सिंधिया के बीजेपी में आने से सरकार और संगठन का तालमेल बिगड़ा है। मौजूदा दौर में शिवराज कैबिनेट में 30 में से 9 मंत्री सिंधिया समर्थक हैं। जबकि बीजेपी की 402 सदस्यों वाली कार्यसमिति में पूर्व में मंत्री रहीं इमरती देवी, गिर्राज दंडोतिया और एंदल सिंह समेत 68 सदस्य सिंधिया खेमें से हैं। वहीं बीते दिनों मंत्रियों के प्रभार बंटवारे में भी ग्वालियर अंचल के 08 में से 06 जिलों का प्रभार सिंधिया समर्थकों के पास है। जाहिर तौर पर नई बीजेपी में सिंधिया का प्रभाव तो बढ़ रहा है, लेकिन उसके साथ पुराने नेताओं का सामंजस्य बैठाना संगठन के लिए बड़ी चुनौती है।
संकेत साफ हैं, प्रदेश सरकार और भाजपा संगठन के बाद अब जिला कार्यकरणी और निगम मंडल में भी सिंधिया का असर दिखना तय लग रहा है। दूसरी तरफ कांग्रेस भी ग्वालियर-चंबल अंचल समेत प्रदेश में सिंधिया जाने के बाद बने हालात में मजबूत होकर उभरने का मौका छोड़ना नहीं चाहती। बड़ा सवाल ये कि कौन सा दल संतुलन बनाने में ज्यादा कामयाब हो पाता है?