’घोटुल’ जहां मांदर की थाप पर नृत्य करते हुए जश्न मनाते हैं ’चेलिक’ और ’मोटियारी’, जानिए बस्तर में क्यों प्रचलित है यह प्रथा?

’घोटुल’ जहां मांदर की थाप पर नृत्य करते हुए जश्न मनाते हैं ’चेलिक’ और ’मोटियारी’, जानिए बस्तर में क्यों प्रचलित है यह प्रथा?

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  • Publish Date - January 31, 2021 / 11:18 AM IST,
    Updated On - November 29, 2022 / 08:18 PM IST

रायपुरः बस्तर की कुछ परम्पराएं तो आपको एक रहस्यमय संसार में पंहुचा देती हैं। वह अचंभित किए बगैर नहीं छोड़ती। वनवासियों के तौर तरीके हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि चांद पर पहुंच चुकी इस दुनिया में और भी बहुत कुछ है, जो सदियों पुराना है और अपने उसी मौलिक रूप में जीवित है। तो चलिए आज आपको छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासियों की एक ऐसी प्रथा के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसे ’घोटुल’ कहा जाता है। यह प्रथा मुख्यतः बस्तर के मुरिया और माड़िया जनजाति के आदिवासियों में प्रचलित है। बता दें कि आदिवासियों की इस संस्कृति का सहेजने के लिए छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कोंडागांव प्रवास के दौरान 10 जनवरी को इलाके में 100 पक्के नए घोटुल बनाने का ऐलान किया है। तो चलिए जानते हैं कि क्या है घोटुल और क्या है ये प्रथा?

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क्या है ‘घोटुल’
घोटुल उस स्थान को कहा जाता है, जहां आदिवासी उत्सव मनाते हैं। घोटुल गांव के किनारे बनी एक मिट्टी की झोपड़ी होती है। कई बार घोटुल में दीवारों की जगह खुला मण्डप होता है। लेकिन आजकल आधुनिकता के दौर में कुछ स्थानों पर आजकल पक्का घोटुल भी देखने को मिलेगा। यहां आदिवासी समुदाय के लोग समय-समय पर उत्सव मनाने आते हैं, साथ ही यहां बच्चों को यहां आदिवासी संस्कृति का भी ज्ञान दिया जाता है। घोटुल में आने वाले लड़के-लड़कियों को अपना जीवनसाथी चुनने की छूट होती है। घोटुल को सामाजिक स्वीकृति भी मिली हुई है।

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’घोटुल’ में ऐसे मनाते हैं उत्सव
सूरज ढलने के कुछ ही देर बाद युवक-युवतियां धीरे-धीरे एकत्रित होने लगते हैं। गांव के मांदर की थाप और ढोल नगाड़ों में नाच गाना करते हुए आदिवासी समुदाय के लोग घोटुल तक पहुंचते हैं। यहां कुंवार युवकों और युवतियों का अलग-अलग समुह बनता है। एक दो गीतों के बाद ये समूहों में बातचीत करते एवं गांव की समस्याओं पर चर्चा करते दिखाई पड़ते हैं। समूह में गीत एवं नृत्य पुनः प्रारम्भ हो जाता है। घोटुल में युवक एवं युवतियों के साथ कुछ अधेड़ एवं वृद्ध लोग भी आते हैं, लेकिन वे दूर बैठकर ही नृत्य इत्यादि देखने का आनंद लेते हैं। वे गीत एवं नृत्य में भाग नहीं लेते। इन्हें घोटुल का संरक्षक माना जा सकता है। कुछ स्थानों पर घोटुल के युवक ‘चेलिक’ एवं युवतियाँ ‘मोटियारी’ के नाम से पुकारी जाती हैं।

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घोटुल में इसके सदस्य युवक-युवती आपसी मेल मिलाप एवं अपने से वरिष्ठ सदस्यों से जीवन उपयोगी शिक्षा, कृषि संबंधी जानकारी, नृत्य-गान के साथ ही साथ यौन शिक्षा भी प्राप्त करते हैं। घोटुल आदिवासी समाज में जीवन साथी चुनने का अवसर प्राप्त कराता है। घोटुल में युवक-युवतियाँ नाचते-गाते हैं एवं किस्से कहानियां सुनते-सुनाते हैं। लगातार एक दूसरे के साथ रहने के कारण उन्हें एक दूसरे को समझने का अवसर प्राप्त होता है एवं वे यहीं विवाह सूत्र में बंध जाते हैं। बाहरी लोगों के लगातार हस्तक्षेप फोटो खींचना, वीडियो फिल्म बनाना एवं प्रदर्शन ही इस घोटुल परम्परा के बन्द होने का कारण बना है।

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घोटुल में सोलह वर्ष तक के युवक-युवती रह सकते हैं। हालांकि उम्र का ऐसा कोई विशेष बंधन नहीं होता किंतु विवाह पश्चात आम तौर पर युवक-युवती घर के काम-काज में व्यस्त हो जाते हैं एवं पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते घोटुल नहीं आ पाते। युवक-युवतियों की इच्छा जानकर उनका विवाह सामाजिक रीति रिवाजों के साथ कर दिया जाता है। घोटुल में रहते हुए भी यदि कोई युवती गर्भवती हो जाती है तो उससे उसके साथी का नाम पूछ कर उसका विवाह उस से कर दिया जाता है। छोटी आयु के लड़के-लड़कियां घोटुल की साफ-सफाई के साथ लकड़ी बीन कर लाने, आग जलाने इत्यादि का काम भी करते है। साथ ही ये अपने से बड़ों के क्रिया-कलाप देख स्वयं भी वैसे ही बनते चले जाते हैं।

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