ताड़मेटला से तर्रेम तक…11 साल में क्या बदला…नेताओं के दावे से क्या वाकई जमीन पर कुछ बदलता है?

ताड़मेटला से तर्रेम तक...11 साल में क्या बदला...नेताओं के दावे से क्या वाकई जमीन पर कुछ बदलता है?

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  • Publish Date - April 6, 2021 / 05:51 PM IST,
    Updated On - November 29, 2022 / 08:29 PM IST

रायपुर: हर नक्सल हमले के बाद अमूमन हम सुनते आए हैं, जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। जब-जब नक्सल वारदात में बड़ी संख्या में जवानों की शहादत हुई है, प्रदेश से लेकर देश के आला नेताओं ने यहां आकर कहा है अब अंतिम संघर्ष होगा…लड़ाई अंजाम तक पहुंचेगी। लेकिन क्या वाकई जमीन पर कुछ बदलता है? 6 अप्रैल 2010 को ताड़मेटला कांड में CRPF के 76 जवानों की शहादत की आज 11वीं बरसी है और तीन दिन पहले तर्रेम में 22 जवानों के शहीद होने का जख्म अभी बिल्कुल ताजा है। अब सवाल बिल्कुल साफ और सीधा है कि क्या बदला इन 11 सालों में? 

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तर्रेम नक्सली मुठभेड़ में 22 जवानों की शहादत के बाद केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह खुद हालात का जायजा लेने जगदलपुर पहुंचे। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल फोर्स के सीनियर ऑफिसर्स के साथ नक्सलियों के खात्मे को लेकर रणनीति पर चर्चा की। मीटिंग के बाद जब अमित शाह बाहर निकले, तो उन्होंने नक्सलियों को सीधे-सीधे चुनौती दी कि लड़ाई को हम अब अंजाम तक पहुंचाएंगे। हालांकि लड़ाई को अंजाम तक कैसे पहुंचाएगा जाएगा इसे लेकर कोई खुलासा नहीं अमित शाह ने नहीं किया।

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ताड़मेटला की इस वारदात ने देश को झकझोर दिया। नक्सलियों ने दुनिया के सबसे बड़े अर्ध सैनिक बल सीआरपीएफ की पुलिस पार्टी पर हमला किया, जिसमें 76 शहीद हो गए। तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम घटना के बाद बस्तर पहुंचे और ऐलान किया कि हम नक्सलियों को उनके मंसूबों को कामयाब नहीं होने देंगे। जरूरत पड़ी तो सेना के इस्तेमाल नहीं करने के निर्णय पर सरकार पुनर्विचार कर सकती है।

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कुल मिलाकर जब-जब बस्तर में नक्सल हिंसा में तेजी आई, तो केंद्र से लेकर राज्य ने शहादत का बदला लेने की कसम खाई। नक्सलवाद को जवाब देने की बात कही, लेकिन ताड़मेटला हमले के बाद पी चिदबंरम के दौरे से न तो तर्रेम मुठभेड़ के बाद अमित शाह के दौरे से ज्यादा कोई फर्क पड़ा। कम से कम केंद्रीय गृह मंत्री के दौरे के अगले दिन जारी प्रेस नोट से तो यही लगता है कि नक्सलियों के हौसले पस्त नहीं है। 2010 के बाद अलग-अलग हुई घटनाएं भी इसी तरफ इशारा करती है।

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2013 में जब नक्सलियों ने कांग्रेस के काफिले पर हमला कर जीरम कांड को अंजाम दिया तो लगा कि तो उन्होंने बड़ी गलती कर दी और अब नक्सलवाद पर अंतिम प्रहार होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अगले साल जीरम के नजदीक टाहकवाड़ा में नक्सली हमले में 15 जवान और एक नागरीक मारे गए। इसके बाद 6 मई 2017 को कसालपाड़ में नक्सलियों की मांद में घुसी पुलिस पार्टी पर किए हमले में 14 जवान शहीद हो गए। इसी तरह 24 अप्रैल 2017 को सुकमा के बुर्कापाल में नक्सलियों ने 32 CRPF जवानों की जान ले ली। 

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हालांकि 2016 के बाद केंद्र और राज्य सरकारों ने नक्सलियों के खात्मे के लिए सिलसिलेवार कई ऑपरेशन लांच किए, जिसमें ऑपरेशन ग्रीनहंट, ऑपरेशन प्रहार जैसे ऑपरेशन काफी सफल भी रहे। वहीं गोरिल्ला वॉर के लिए मल्टी ब्रांड स्ट्रेटजी के तहत पुलिस ने आत्मसमर्पण पर जोर दिया। लोकल कैडर के सरेंडर ने नक्सलियों के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी, फोर्स की इंटेलिजेंस मजबूत हुई। 2016 के बाद से सबसे ज्यादा नक्सलियों को आमने-सामने की मुठभेड़ में मारा, लेकिन कभी भी एक साथ बड़ी संख्या में नक्सली मारे नहीं गए इससे नक्सली कमजोर तो पढ़ते दिखाई दिए, रणनीति बदलते हुए उन्होंने समय-समय पर अपनी ताकत का प्रदर्शन जारी रखा।

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साल 2017 के बाद नक्सलियों के बड़े हमले में कमी देखी गई है। लेकिन जब-जब नक्सलियों के बटालियन नंबर 1 के इलाके में फोर्स ने ऑपरेशन चलाया, तब-तब बड़े नक्सली हमले हुए। 3 अप्रैल को तर्रेम में फिर यही घटना हुई। इतनी बड़ी संख्या में फोर्स के पहुंचने के बाद नक्सली जवानो को नुकसान पहुंचाने में कामयाब रहे। ताड़मेटला से लेकर तर्रेम मुठभेड़ को 11 साल बीत गए। इस दौरान जो गौर करने वाली बात है, पहले जहां नक्सली बाहर निकलकर बड़े हमले करते थे। अब वो अपनी जनताना सरकार के इलाके में दाखिल होने पर फोर्स को निशाना बना रहे हैं और उसमें बार-बार पुलिस के रणनीतिकारों को शिकस्त खानी पड़ रही है। 

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