रायपुरः पिछले 3 दशक से आंध्रप्रदेश के गोदावरी नदी में आकार ले रहा पोलावरम बांध को लेकर जारी विवाद किसी से छिपा नहीं है। राज्य गठन के बाद से ही इसे लेकर सवाल उठते रहे हैं कि सरकार प्रभावित लोगों के लिए क्या इंतजाम कर रही है। हालांकि इसे लेकर कभी स्पष्ट जवाब नहीं आया। इसी बीच विधानसभा के शीत सत्र में पोलावरम का मुद्दा एक बार फिर उठा। जेसीसीजे विधायक रेणु जोगी के सवाल पर मंत्री रविंद्र चौबे के जवाब दिया कि मामला सुप्रीम कोर्ट में है, लिहाजा कोर्ट के फैसले के बाद ही स्थिति स्पष्ट होगी।
आंध्रप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा पर बन रहा है पोलावरम बांध नींव रखे जाने के बाद से ही लगातार विवादों में है। बीते तीन दशक से गोदावरी नदी पर निर्माणाधीन पोलावरम बांध के पूरा हो जाने से सुकमा जिले के कोंटा समेत 9 गांवों के प्रभावित होने का अनुमान है। दशकों से यहां रह रही आबादी इसी चिंता में जीवन यापन कर रही है कि बांध बनने के बाद उनका क्या होगा? क्या उन्हें उचित मुआवजा मिलेगा, विस्थापन या रहने के लिए जगह मिलेगी? ऐसे कई सवाल हैं हैं जो आज भी उन्हें उतना ही परेशान कर रहा, जितना तीन दशक पहले करता था।
सरकारें बदली, आंदोलन-प्रदर्शन हुए, यहां तक कि मंत्री कवासी लखमा ने बस्तर के सभी कांग्रेसी विधायकों के साथ पोलावरम बांध बनने पर अंतिम लड़ाई की बात भी कही..बड़े-बड़े दावों के बावजूद पोलावरम बांध का काम जारी है। हालांकि छत्तीसगढ़ ने 2011 में स्थानीय जनजाति के विस्थापन, पुनर्वास और बांध की अधिकतम ऊंचाई निर्धारण सहित कई बिंदुओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है, जिस पर फैसला आना अभी बाकी है। इधर विधानसभा में प्रश्न काल के दौरान जेसीसीजे विधायक रेणु जोगी ने पोलावरम बांध का मुद्दा उठाते हुए सरकार से कई सवाल पूछे, जिसपर मंत्री रविंद्र चौबे ने जवाब देते हुए साफ किया कि बांध से सुकमा जिले के कोंटा विकासखंड के 9 गांव पूरी तरह से डूब जाएंगे। इससे दोरला जनजाति के आदिवासी बड़ी संख्या में प्रभावित होंगे। सरकार ने दावा किया है कि वो नागरिक हितों को लेकर गंभीर है। हालांकि विपक्ष इससे इत्तेफाक नहीं रखता।
बहरहाल छत्तीसगढ़ सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार है। कोर्ट का निर्णय आने के बाद ही आगे की स्थिति स्पष्ट होगी, लेकिन आंध्रप्रदेश में जैसे-जैसे बांध का काम आगे बढ़ रहा है। वैसे-वैसे सुकमा जिले के कई गांवों में उजड़ने की चिंता बढ़ रही है। यूं तो बड़ी बांध परियोजनाओं की देश को बड़ी बड़ी कीमतें चुकानी पड़ी हैं। लेकिन ये शायद पहली बार होगा जब एक पूरी जनजाति का अस्तित्व ही खतरे में है।
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