Taj Mahal of Tribes : केशकाल। आदिवासियों का ताजमहल जहाँ अपनों की याद में गाड़ा जाता है पत्थर , हजारों साल पुरानी है यह अनोखी परंपरा। मृतक की याद में आदिवासी शव दफनाने के बाद लगाते हैं पाषाण स्तंभ। छत्तीसगढ़ का आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र बस्तर अपनी अनोखी परंपरा, आदिवासी रीति रिवाज, कला, संस्कृति के लिए पूरे देश विदेशों में पहचाना जाता है। बस्तर के आदिवासियों में जो परंपरा देखने को मिलती है वह शायद ही किसी अन्य जगहों पर देखने को मिलेगी। आदिवासी अपनी परंपरा को अपना मुख्य धरोहर मानते हैं।
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यही वजह है कि आदिवासियों में सदियों से चली आ रही परंपरा आज भी कायम है और आदिवासी ग्रामीण अपने इस परंपरा को बखूबी निभाते आ रहे हैं। वैसे तो बस्तर के आदिवासियों की ऐसी कई सारी परंपरा है जो केवल बस्तर में ही देखने को मिलेगी और उनमें से एक है मृतक स्तंभ। दरअसल आदिवासी अपने परिवार के किसी व्यक्ति की मौत हो जाने पर उसकी की याद में पत्थर के स्तंभ की स्थापना करते हैं जो सदियों तक सुरक्षित रहती है समय के साथ बढ़ता भी है। बस्तर के आदिवासी संस्कृति में जनजाति के लोग प्राचीन काल से ही गांव के प्रमुख व्यक्तियों की याद में उनकी मृत्यु के बाद पाषाण पत्थर के स्तंभ स्थापित करते आए हैं जानकरों कहना है कि मौत के तकरीबन एक दशक बीत जाने के बाद परिजन मृतक के आत्मा को शांति दिलवाने के लिए स्तंभ लगाने की आदिवासियों में परंपरा है।
Taj Mahal of Tribes : आपको बता दें कि केशकाल विधानसभा क्षेत्र के फरसगांव ब्लाक अंतर्गत भोंगापाल में आज भी दाता पत्थर गाढ़ने का पारंपरा आदिवासी समाज के कौडों (नाग) समेत अन्य परिवार में देखने को मिला। इस दौरान गांव की महिला पुरुष बच्चे सभी लोग इस कार्यक्रम में शामिल होते हैं। ग्राम भोंगापाल के निवासी रामसाय नाग ने बताया कि आदिवासी समाज में आदिवासी समाज मे मृत्यु के बाद मृतक के याद में दाता पत्थर (पत्थर गढ़ा) जैसे स्तंभ लगाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। परिवार के मुख्या की मौत हो जाने के बाद सगे संबंधी और ग्रामवासी मिलकर क्रियाकर्म करते हैं। इस दौरान आदिवासी परंपराओं के साथ बाजे गाजे बजा कर पूजा अर्चना किया जाता है जिसके बाद गांव से लगभग 2 किमी दूर पहाड़ से परिवार के एक सदस्य पूजा अर्चना कर 2 से 3 फीट ऊंचा पत्थर को लाते हैं।
इस दौरान उस पत्थर को एक ही व्यक्ति 2 किलो मीटर तक चल कर लाते हैं जिसके बाद पूजा कर स्मृति को संजोते हैं। पत्थर का यह स्तंभ सदियों तक सुरक्षित रहता है। ग्रामीण यह भी बताते हैं कि जब पत्थर को पहाड़ से लाते हैं तो बहुत छोटा रहता है और सालों साल बीत जाने के बाद यहां पत्थर बढ़ते बढ़ते एक चट्टान के रूप में बढ़ जाता है जिससे प्रमाणित होता है कि हमारे द्वारा पूजा अर्चना को स्वीकार करते हैं। इसी तरह आदिवासी समाज अपना परंपरा को बनाये रखते हैं।