CG Ki Baat: रायपुर। पहले 2018 फिर 2023 के विधानसभा चुनाव में जिन मुद्दों पर सबसे ज्यादा एक-दूसरे को घेरा गया उनमें पूर्ण शराबबंदी सबसे ऊपर है। कांग्रेस ने 2018 में पूर्ण शराबबंदी का वायदा किया, 2023 में बीजेपी ने उसे कांग्रेस के खिलाफ बड़ा मुद्दा बनाया। अब देश-प्रदेश दोनों जगह बीजेपी सरकार है। प्रदेश में शराब नीति को लेकर सरकार ने कुछ फैसले लिए हैं, जिसके बाद अब से ठेकों, होटलों के अलावा रेस्टोरेंट्स और ढाबों पर भी बार की सुविधा हो सकेगी। कैबिनेट ने इस पर मुहर भी लगा दी है। सरकार के इस कदम पर विपक्षी दल कांग्रेस हमलवार है। सवाल उठा रहा है तो बीजेपी ने कांग्रेस पर तंज कसते हुए याद दिलाया, 5 साल तक सत्ता में रहकर वो शराबबंदी लागू नहीं कर पाए थे। ऐसे में सवाल ये है कि क्या वाकई किसी दल को पूर्ण शराबबंदी में इंटरेस्ट है?
छत्तीगढ़ की साय सरकार ने अपनी नई शराब नीति तय कर ली है। सरकार ने शराब नीति को लेकर फैसला किया है कि, अब तक सिर्फ होटलों को मिलने वाला बार लाइसेंस, अब रेस्टॉरेंट और ढाबों को भी दिया जाएगा। यानी, होटल्स में ही नहीं अब से प्रदेश के रेस्टॉरेंट्स और ढाबों में भी शराब परोसी जा सकेगी। साय कैबिनेट ने इसे मंजूर कर दिया है, इसके लिए आबकारी विभाग पूरी तैयारी भी कर चुका है।बात शराब नीति की है सो फैसले पर सियासी घमासान छिड़ना तय है।
विपक्षी दल कांग्रेस ने बीजेपी को निशाने पर लेते हुए कहा कि, एक तरफ तो भाजपा शराबबंदी की बात करती थी। लेकिन, अब सत्ता में आते ही जगह-जगह शराब परोसनी की तैयारी है। सत्ता पक्ष के तर्क भी नए नहीं हैं मंत्री टंकराम वर्मा का दावा है कि नई व्यवस्था शराब की अवैध तस्करी रोकने के लिए है। वैसे, शराबबंदी पर पक्ष-विपक्ष के हमले और सफाई नए नहीं है। प्रदेश में शराब की भारी खपत का अपराध और अपराधियों से कनेक्शन को हर पार्टी स्वीकारती है, लेकिन कोई भी पार्टी सत्ता में रहते पूर्ण शराबबंदी जैसा साहसी कदम नहीं उठा पाई है।
पूर्ण शराबबंदी से बचने कई तर्क दिए जाते हैं, मसलन जिन राज्यों में पूर्ण शराबबंदी है, शराब की खपत तो वहां भी है, शराबबंदी हुई तो शराब तस्करी बढ़ेगी, लीगली ना मिले तो लोग जहरीली शराब पीकर मरेंगे, प्रदेश के बस्तर, सरगुजा जैसा बड़ा क्षेत्र आदिवासी बहुल है जहां की संस्कृति का हिस्सा है लोकल कच्ची शराब परोसा जाना। इस सब से इतर तर्क ये है कि अकेले शराब बिक्री से इसी साल 12 हजार करोड़ रुपये सरकारी खजाने में पहुंचेंगे। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या राजस्व के इस बड़े सोर्स को खोने की हिम्मत किसी भी सत्तासीन दल में है?