नयी दिल्ली, 22 जुलाई (भाषा) भारत को बच्चों की परवरिश के समय महिला श्रम बल भागीदारी दर में गिरावट के रूप में ‘मातृत्व दंड’ की चुनौती का सामना करना पड़ता है। इससे बचने के लिए देश में देखभाल से संबंधित एक ठोस अर्थव्यवस्था बनाने के लिए रणनीतिक सुधारों की जरूरत है।
सोमवार को संसद में पेश आर्थिक समीक्षा 2023-24 में इसका जिक्र किया गया है। इसके मुताबिक, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के दो प्रतिशत के बराबर प्रत्यक्ष सार्वजनिक निवेश से बच्चों की देखभाल से संबंधित 1.1 करोड़ नौकरियां पैदा की जा सकती हैं, जिनमें से लगभग 70 प्रतिशत महिलाओं के हिस्से में आएंगी।
आर्थिक समीक्षा के मुताबिक, देखभाल सेवाओं को सब्सिडी देने पर विचार किया जा सकता है। इस क्षेत्र में ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना, ब्राजील और अमेरिका के सफल अंतरराष्ट्रीय मॉडल भारत के लिए मददगार हो सकते हैं। इन देशों में देखभाल कर्मियों को उनकी आय, बच्चे की आयु, संतानों की संख्या के आधार पर खरीद और कर में छूट दी जाती है।
समीक्षा में कहा गया, ”देखभाल क्षेत्र विकसित करने का दोहरा आर्थिक मूल्य है। महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर (एफएलएफपीआर) में वृद्धि के अलावा उत्पादन एवं रोजगार सृजन को बढ़ावा भी मिलता है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (2018) के अनुसार देखभाल क्षेत्र वैश्विक स्तर पर सबसे तेजी से बढ़ने वाले क्षेत्रों में शामिल है।”
देखभाल सेवा क्षेत्र में निवेश से वर्ष 2030 तक वैश्विक स्तर पर 47.5 करोड़ नौकरियां पैदा होने का अनुमान है।
समीक्षा के मुताबिक, ”भारत में जीडीपी के दो प्रतिशत के बराबर प्रत्यक्ष सार्वजनिक निवेश करने से 1.1 करोड़ रोजगार पैदा किए जा सकते हैं। इनमें से लगभग 70 प्रतिशत रोजगार महिलाओं को मिलेंगे।”
आर्थिक समीक्षा कहती है कि प्रसव और बच्चों की देखभाल का महिलाओं के करियर पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। प्रसव के आसपास के समय में महिला श्रम भागीदारी में गिरावट और आय में कमी के रूप में ‘मातृत्व दंड’ के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
इसमें एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहा गया है कि इस ‘मातृत्व दंड’ की वजह से महिलाएं खेती और अनौपचारिक नौकरियों में काम की तलाश करती हैं, क्योंकि ये कार्यस्थल उनकी व्यक्तिगत जिम्मेदारियों के निर्वहन के अनुकूल होते हैं।
भाषा पाण्डेय प्रेम
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