नई दिल्ली। गलवान घाटी की झड़प के बाद भारत और चीन के संबंधों पर काफी तल्खी आ गई है। भारत के ज्यादातर लोग चीन के सामानों और कंपनियों पर प्रतिबंध तक लगाने की मांग करने लगे हैं। वहीं इसके पहले ही मोदी सरकार ने कोरोना के बहाने ही सही लेकिन आत्मनिर्भर भारत का नारा देकर और FDI नियम कड़ा करके सबसे ज्यादा चीन पर निर्भरता कम करने की पहल कर दी थी। इस समय मोदी सरकार का पूरा फोकस चीन पर निर्भरता कम करने को लेकर है।
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अब हम एक ऐसे डेटा पर बात करेगें जिसके बारे में गंभीरता से विचार करना सरकार के लिए जरूरी हो गया है। देश के स्टार्टअप में पिछले चार सालों में चीनी निवेश में 12 गुना वृद्धि हुई और 2019 में यह बढ़कर 4.6 अरब डॉलर ( 35 हजार करोड़ रुपये के करीब) पहुंच गया। यह 2016 में 38.1 करोड़ डॉलर था। आंकड़ों और उसके विश्लेषण से जुड़ी कंपनी ग्लोबल डाटा के अनुसार वृद्धि के लिहाज से अच्छी संभावना वाले ज्यादातर स्टार्टअप (यूनिकॉर्न) को चीनी कंपनियों और वहां की पूर्ण रूप से निवेश इकाइयों का समर्थन है। यूनिकॉर्न उन स्टार्टअप को कहा जाता है जिनका मूल्यांकन एक अरब डॉलर या उससे ऊपर है। यह मामला गंभीर इसलिए है, क्योंकि ये कंपनियां भारत की भविष्य हैं।
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इस डेटा के मुताबिक देश में ज्यादातर ‘यूनिकॉर्न’ (24 में से 17) को चीन की कंपनियों तथा शुद्ध रूप से निवेश फर्मों का समर्थन प्राप्त है। इसमें अलीबाबा और टेनसेंट मुख्य रूप से शामिल हैं। अलीबाबा तथा उसकी सहयोगी एंट फाइनैंशल ने अन्य के साथ चार भारतीय यूनिकॉर्न (पेटीएम, स्नैपडील, बिग बास्केट और जोमैटो) में 2.6 अरब डॉलर निवेश किया है। टेनसेंट ने अन्य के साथ मिलकर पांच यूनिकॉर्न (ओला, स्विगी, हाइक, ड्रीम 11 और बायजू) में 2.4 अरब डॉलर का निवेश किया है। देश के स्टार्टअप में निवेश करने वाली चीन के अन्य प्रमुख निवेशकों में मेटुआन-डाइनपिंग, दिदी चुक्सिंग, फोसुन, शुनवेई कैपिटल, हिलहाउस कैपिटल ग्रुप और चीन-यूरेसिया एकोनॉमिक कोअपरेशन फंड शामिल हैं।
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गौरतलब है कि पिछले साल तक चीन भू-राजनीतिक तनाव से बेपरवाह मध्यम से दीर्घकाल में अच्छी वृद्धि की उम्मीद में भारतीय प्रौद्योगिकी स्टार्टअप पर उल्लेखनीय रूप से दांव लगा रहा था। हाल ही में सीमा पर तनाव और भारत द्वारा FDI (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) को कड़ा किये जाने से चीनी निवेशकों के लिये थोड़ी अड़चन पैदा हुई है। कोविड-19 संकट के बीच दबाव वाली कंपनियों के पड़ोसी देशों की कंपनियों द्वारा अधिग्रहण की आशंका को दूर करने के लिये यह कदम उठाया गया। हालांकि यह अस्थायी उपाय है और दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय निवेश संबंधों को देखते हुए भविष्य में ही दीर्घकालीन प्रभाव देखने को मिल सकता है।
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