बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जदयू राष्ट्रीय अध्यक्ष बनना और राजीव रंजन ऊर्फ ललन सिंह का अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देना क्या एक पार्टी का अंदरूनी मामला भर है या इसके गहरे मायने हैं? दिल्ली में जिस तरह से जदयू राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में ये सियासी पटाक्षेप हुआ, उसने फिलहाल के लिए तो जदयू टूटने की अफवाहों को विराम दे दिया, लेकिन 2024 लोकसभा चुनाव और फिर उसके अगले साल 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव के समीकरणों को लेकर अटकलों का एक नया सिलसिला शुरू कर दिया है।
ललन सिंह को नीतीश कुमार का बेहद करीबी बताया जाता है, लेकिन पिछले 2-3 महीनों में ये दबे-छिपे तौर पर ये सामने आने लगा कि नज़दीकियां दूरियों में बदलती जा रही हैं। इसी दौरान नीतीश कुमार के कुछ सार्वजनिक बयानों को लेकर विवाद भी सामने आए, जिन्हें लेकर उनके किसी गंभीर बीमारी की चपेट में आने की अफवाहें भी सामने आईं। बात यहीं नहीं थमीं, बल्कि ये चर्चा भी चल निकली कि अब नीतीश कुमार का मानसिक स्वास्थ्य उनका साथ नहीं दे रहा इसलिए जिन निर्णायक फ़ैसलों के लिए वो जाने जाते हैं, जिस तरह से अपनी पार्टी पर उनकी मज़बूत पकड़ हमेशा रहती है, वो निकट भविष्य में संभव नहीं है। इन्हीं चर्चाओं के बीच एक चर्चा ये भी चली कि जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह महागठबंधन के सहयोगी दल राजद से निजी नज़दीकी बढ़ा रहे हैं। इस नज़दीकी को तेजस्वी यादव को बिहार का मुख्यमंत्री बनाए जाने की कोशिशों से जोड़कर देखा गया, जिसका दूसरा पहलू ये था कि नीतीश कुमार का तख्ता पलट किया जा सकता है।
दिलचस्प बात ये है कि नीतीश कुमार का तख्ता पलट करने की सियासी कोशिशों की अफवाहें पहले भी सामने आईं थीं, जब महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार गिराई और एकनाथ शिंदे की सरकार बनाई गई थी। उस वक्त बिहार में एनडीए की सरकार थी और जदयू, बीजेपी के साथ सरकार में थी। बताया जाता है कि नीतीश सरकार बचाने के लिए रातों-रात बीजेपी को सरकार से बाहर निकालने और राजद के साथ सरकार बनाने में मुख्य भूमिका ललन सिंह ने ही निभाई थी। अभी की मौजूदा स्थिति में बीजेपी की जगह राजद ने ले रखी है और जो भूमिका उस वक्त जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष आर सी पी सिंह निभा रहे थे। उनकी जगह उसी पद पर रहे ललन सिंह ने ले रखी थी। बताया जाता है कि नीतीश कुमार ने ललन सिंह का इस्तीफ़ा मुख्य रूप से इसी वजह से लिया है।
ललन सिंह से इस्तीफ़ा लेने की दूसरी वजह जो सामने आई है, वो नीतीश कुमार को विपक्षी गठबंधन के प्रधानमंत्री दावेदार पेश कर पाने में जदयू का पिछड़ना बताया जाता है। ऐसा माना जा रहा है कि जिस दमखम और रणनीति के साथ जदयू को नीतीश कुमार के पक्ष में विपक्षी गठबंधन के बाकी दलों के बीच सहमति बनानी थी, उसमें बतौर राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह अनफिट साबित हो रहे थे।
साल 2024 का आगाज़ हो चुका है और नए साल में सबसे बड़ा सियासी घटनाक्रम है लोकसभा चुनाव। नीतीश कुमार अब बतौर अध्यक्ष अपने फैसले खुले तौर पर ले सकते हैं और इन फ़ैसलों में शामिल होगा, विपक्षी गठबंधन के साथ अपनी शर्तों पर बने रहना, सीटों को लेकर तालमेल और अपनी पार्टी के उम्मीदवारों के चयन में खुला हाथ होना।
नीतीश कुमार का अब तक का जो सियासी सफर रहा है, उनमें एक-दो बार नहीं, बल्कि कई बार ऐसे फैसले सामने आए हैं, जिनके बारे में पहले से किसी को कोई अंदाज़ा नहीं होता। साल 2015 में जब बिहार विधानसभा के चुनाव होने थे, उस वक्त शरद यादव जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। बिहार में महागठबंधन बना, जिसने एनडीए को हराया और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने। सरकार बनने के बाद अप्रैल 2016 में नीतीश कुमार जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और इसके अगले साल 2017 में राजद से नाता तोड़कर बीजेपी के साथ मिलकर एनडीए सरकार बना ली। एनडीए छोड़कर महागठबंधन में आना या महागठबंधन से निकलकर एनडीए सरकार बनाना, नीतीश कुमार के इन दोनों ही फ़ैसलों के पीछे जिन पार्टी नेताओं पर उनका भरोसा था, उन्हीं पर भरोसा कमज़ोर होना बताया गया।
अभी जदयू में दो धड़े सक्रिय हैं, जिनमें से एक धड़ा का मानना है कि नीतीश कुमार को महागठबंधन के साथ ही बने रहना चाहिए और तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने के ऐलान पर अमल करते हुए राष्ट्रीय राजनीति में आगे बढ़ना चाहिए। ललन सिंह को इसी धड़े का मुख्य किरदार बताया जाता है। दूसरा गुट वो है, जिसका मानना है कि राजद के साथ राजनीतिक गठबंधन जदयू के आगे बढ़ने में बाधक है, ऐसे में बीजेपी के साथ गठबंधन कर एनडीए में शामिल होना ही समय की मांग है। अशोक चौधरी जैसे नेता इस सोच के पक्षधर बताए जाते हैं। अब राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद नीतीश कुमार पूरी तरह स्वतंत्र हैं कि वो इन दोनों में से किस धड़े की सोच के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं।
नीतीश कुमार के जदयू राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता के सी त्यागी का एक बयान चर्चा में है कि राजनीति में कोई किसी का दुश्मन नहीं होता और भाजपा हमारी दुश्मन नहीं है। वैसे तो इस तरह का बयान सामान्य माना जाता है, लेकिन वक्त और हालात के मुताबिक के सी त्यागी का ये बयान कतई सामान्य नहीं है। अब इस बयान के दो मायने बिल्कुल साफ नज़र आते हैं, पहला तो ये कि राजद को चेतावनी है कि अगर उसने जदयू में तोड़फोड़ की कोशिश की तो पार्टी के सामने बीजेपी के साथ जाने का विकल्प भी खुल सकता है। दूसरा ये कि बीजेपी और जदयू पहले भी साथ रहकर चुनाव लड़ चुके हैं, सरकार चला चुके हैं तो भविष्य में भी अगर ऐसा होता है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि दुश्मनी नहीं है।
बीजेपी के छुटभैये नेताओं से लेकर शीर्ष नेतृत्व तक अब नीतीश कुमार के साथ किसी भी तरह के गठबंधन या समझौते से सीधे तौर पर इनकार करते रहे हैं। सार्वजनिक रूप से ये घोषणा कर चुके हैं कि नीतीश कुमार के लिए एनडीए के दरवाज़े अब हमेशा के लिए बंद हो चुके हैं। ऐसी ही घोषणा 2015 चुनाव प्रचार के दौरान भी की गई थी, लेकिन 2017 में दोनों दल ना सिर्फ़ साथ आए बल्कि सरकार भी चलाई और चुनाव भी एनडीए में रहते हुए लड़ा। अब 2024 का लोकसभा चुनाव सामने है।
2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर हुए पहले ओपिनियन पोल में बिहार में बीजेपी+ को सीटों के भारी नुकसान का आंकलन किया गया है। नीतीश कुमार को उम्मीद है कि ये एक ऐसा तथ्य है, जिसे भांपते हुए बीजेपी बिहार के लिए अपनी रणनीति बदल सकती है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर जदयू एनडीए का हिस्सा बन जाए तो बिहार को लेकर ओपिनियन पोल के आंकड़े भी बदल सकते हैं क्योंकि महागठबंधन से जदयू के बाहर होने से राजद सीधे तौर पर कमज़ोर होगा।
नीतीश अभी उस तिराहे पर खड़े हैं, जहां से कोई एक राह उन्हें चुननी है। तिराहे के एक राह की एक मंजिल बिहार में महागठबंधन सरकार बरकरार रखते हुए केंद्र में विपक्षी गठबंधन की सरकार है। दूसरी राह, बिहार और केंद्र दोनों में एनडीए सरकार के गठन की है। फिलहाल नीतीश कुमार पहली राह का सफर करते हुए तिराहे तक पहुंचे हैं। दूसरी राह पर बीजेपी का बैरियर है, जो अपनी राजनीतिक ज़रूरत मानते हुए जदयू को एनडीए में शामिल कर लेती है तो फिर विपक्षी गठबंधन का नेता बनने का सपना नीतीश को छोड़ना होगा। तीसरी और अंतिम राह की मंजिल है नीतीश का राजनीतिक संन्यास, क्योंकि एक साथ दो नावों की सवारी में ये भी नामुमकिन नहीं कि राजद और बीजेपी दोनों उनसे किनारा कर ले, जो नीतीश कुमार की अब तक की सियासी चालों को देखते हुए फिट नहीं बैठता। कुल मिलाकर हालात का इशारा यही है कि नीतीश कुमार फिलहाल पहले विकल्प को तलाशे और तराशेंगे, साथ ही दूसरे विकल्प की भी गुंजाइश बनाए रखेंगे क्योंकि उन्हें इस बात का बखूबी अंदाज़ा है कि बिहार की राजनीति में अभी भी वो ज़रूरी भी हैं और दोनों ही गठबंधनों की ज़रूरत भी हैं।
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