परमेंद्र मोहन,
एग्जीक्यूटिव एडिटर, IBC24
The Horror Stories of Live In: प्रयागराज की राजकेसर 7 साल से आशीष के साथ लिव-इन में थी, जो 24 मई को अचानक लापता हो गई। परिवार की सबसे बड़ी बेटी को तलाशने में आशीष भी मदद कर रहा था। चार दिन गुज़र गए, राजकेसर नहीं मिली, लेकिन जैसे ही आशीष ने किसी दूसरी युवती से शादी की, पुलिस का शक उस पर गहरा गया। इसके बाद जब पुलिस ने सख्ती की तो आशीष से सच उगलवाते देर नहीं लगी। आशीष ने कबूल किया कि राजकेसर लिव इन को शादी में बदलने का दबाव डाल रही थी, जिससे तंग आकर आशीष ने अपने दो दोस्तों के साथ मिलकर राजकेसर की गला घोंटकर हत्या कर दी। पुलिस ने आशीष की निशानदेही पर लाश सेप्टिक टैंक से बरामद कर लिया और तीनों आरोपी को गिरफ्तार कर लिया। मुंबई की मीरा भायंदर इलाके के गीता-आकाशदीप सोसाइटी में मनोज साने नाम के आरोपी ने जिस खौफ़नाक तरीके से 3 साल से अपनी लिव इन पार्टनर सरस्वती वैद्य की हत्या की, उसने तो पूरे देश को ही दहला दिया था। मनोज साने ने जिस तरह से सरस्वती की हत्या के बाद उसके शव के टुकड़े-टुकड़े कर थैलियों में रख कर पूरे घर में अलग-अलग रखा था, उससे दिल्ली में मई 2022 को हुए श्रद्धा मर्डर केस के खुलासे की याद आ गई। आफताब पूनावाला ने अपनी लिव इन पार्टनर श्रद्धा वालकर की हत्या कर उसके टुकड़े-टुकड़े कर जंगल में अलग-अलग इलाकों में फेंक दिए थे। इसी साल साहिल गहलोत ने वैलेंटाइन डे के दिन ही अपनी लिव इन पार्टनर निक्की यादव की दिल्ली में हत्या कर उसकी लाश फ्रिज में छिपा दी थी। एक-दो नहीं, बल्कि लिव इन पार्टनर की नृशंस हत्या की एक लंबी फेहरिस्त है और हाल के दिनों में जिस तरह से ऐसी घटनाओं में तेज़ी आई है, उसने समाज को बुरी तरह झकझोड़ कर रख दिया है।
लिव-इन को लेकर भारत में कोई विशिष्ट कानून नहीं है क्योंकि संसद ने इस पर कोई कानून पारित ही नहीं किया है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने अलग-अलग मामलों में जो फ़ैसले सुनाए हैं, उन्हीं को आधार मान लिया गया है। लिव-इन है क्या, इसकी परिभाषा भी साफ़ नहीं है। भारत में मुख्य रूप से लिव-इन की तीन कैटेगरी देखी जा रही है। पहली श्रेणी में पुरुष और महिला दोनों एक ही छत के नीचे साथ रहते हों, लेकिन शादीशुदा नहीं हैं। दूसरी श्रेणी में महिला और पुरुष साथ रहते हों और उनके बीच शारीरिक संबंध भी हों, लेकिन शादीशुदा नहीं हैं। तीसरी श्रेणी में वो होते हैं, जो एक ही सेक्स के हों, यानी पुरुष और पुरुष या फिर महिला और महिला। एक अनुमान के मुताबिक सबसे बड़ी संख्या पहली कैटेगरी की हो सकती है, लेकिन समाज में सबसे ज़्यादा अस्वीकार्यता दूसरी और तीसरी कैटेगरी की है। इसकी वजह है भारतीय पंरपरा, संस्कृति और सामाजिक परिवेश में विवाह को एक पवित्र रिश्ता माना जाना और लिव-इन को विवाह संस्कार को चुनौती के रूप में देखा जाना।
ऐसा नहीं है कि लिव इन 21वीं सदी के भारत में ही सामने आया है। सुप्रीम कोर्ट ने 1978 में ही लिव इन के एक मामले में ये फ़ैसला सुनाया था कि अगर लिव इन पार्टनर लंबे समय से साथ रह रहे हैं तो भले ही उनकी शादी नहीं हुई हो, लेकिन इस रिश्ते को विवाह की तरह ही माना जा सकता है। जस्टिस कृष्ण अय्यर ने कहा था कि चूंकि विवाह नहीं हुआ है, इसलिए इस रिश्ते को चुनौती तो दी जा सकती है, लेकिन ये रिश्ता था ही नहीं, इसे साबित करने का दायित्व लिव-इन पार्टनर्स में से उसका होगा, जो इसे मानने से इनकार कर रहा है। बीसवीं सदी के आठवें दशक के भारत में ये एक ऐतिहासिक फैसला था। साल 2001 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पायल शर्मा बनाम नारी निकेतन केस में ये फ़ैसला सुनाया कि एक पुरुष और महिला अगर साथ रह रहे हों तो ये गैरकानूनी नहीं है। इस केस में कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में नैतिकता और कानून के बीच की साफ-साफ रेखा भी खींची। साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा ही एक और ऐतिहासिक निर्णय दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि दो व्यस्क बिना किसी दबाव के और अपनी मर्जी से साथ रहने के लिए स्वतंत्र हैं। कोर्ट ने ये भी कहा कि भले ही भारतीय समाज इसे अनैतिक करार दे, लेकिन ये किसी भी तरह से अपराध की श्रेणी में नहीं आता है।
लिव-इन पार्टनर्स को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीने का अधिकार उसी तरह उपलब्ध है, जिस तरह बाक़ी नागरिकों को और कोर्ट की नज़र में लिव इन रिलेशनशिप को पर्सनल ऑटोनॉमी है, सामाजिक नैतिकता के नज़रिये से अदालत ऐसे रिश्तों को नहीं देखती। कोर्ट ने लिव-इन को विवाह तो नहीं माना है, लेकिन a relationship in the nature of marriage यानी शादी की प्रकृति के एक रिश्ते की तरह ही माना है। 2022 में एक और ऐतिहासिक फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला सुनाया कि गैरशादीशुदा जोड़ों से हुई औलाद को भी वैध माना जा सकता है। कोर्ट के मुताबिक अगर लंबे समय से आदमी और औरत साथ रह रहे हों तो शादी नहीं होने की स्थिति में भी उन्हें शादीशुदा की तरह देखा जा सकता है। ऐसे बच्चे को कानून संपत्ति का अधिकार भी देता है, जैसे कि शादीशुदा जोड़ों के बच्चों को पैतृक संपत्ति में हिस्से का अधिकार है।
इन तमाम स्थितियों के बावजूद भारत में ज़मीनी सच ये है कि बिना विवाह के साथ रहने वाले इस रिश्ते को सामाजिक स्वीकृति नहीं मिल पाई है। यहां तक कि महानगरों के बाद छोटे शहरों में भी लिव इन में रहने वालों की संख्या बढ़ने के बावजूद ऐसे जोड़ों को चरित्रहीन, अल्ट्रा एडवांस्ड माना जाता है। कोर्ट ने अपने फैसलों में भले ही बार-बार ये साफ किया है कि लिव इन रिश्ते को मान्यता सशर्त है, ये विवाहेतर संबंधों की श्रेणी में नहीं आता है कि दोनों में कोई भी पार्टनर एक ओर वैवाहिक रिश्ते में हो और दूसरी ओर किसी दूसरे से लिव इन में हो। ये रिश्ता लंबे समय का हो ना कि वन नाइट स्टैंड जैसा हो।
लिव इन को लेकर समाज की सबसे बड़ी आपत्ति प्री मैरिटल सेक्स के मुद्दे पर है और चूंकि लिव इन का मतलब ही है कि बिना विवाह के पति—पत्नी की तरह रहना तो स्वाभाविक रूप से ऐसे रिश्तों को पारिवारिक या सामाजिक मान्यता नहीं है। प्री मैरिटल सेक्स को भारतीय समाज में कभी भी अच्छा नहीं माना जाता और पारिवारिक-सामाजिक बंधन ऐसे रिश्तों को पनपने से रोकते रहे हैं। दूसरी ओर, लिव इन में प्री मैरिटल सेक्स को छिपाने की ज़रूरत ही नहीं होती, पार्टनर्स खुले तौर पर एक साथ उसी तरह रहते हैं, जैसे शादीशुदा दंपति रहते हैं। विवाह में जो सीधी जिम्मेदारियां होती हैं, लिव इन में काफी हद तक उनका अभाव होता है। एक तरह से लिव इन एक समझौता है, जिसमें दोनों पार्टनर पति-पत्नी की तरह रहना तो चाहते हैं, लेकिन उन जिम्मेदारियों के बोझ से खुद को बचाना चाहते हैं, जो आम पति-पत्नी को उठाना होता है। लिव इन का एक फ़ायदा ये होता है कि दोनों पार्टनर जब चाहें तब अलग हो सकते हैं, इसके लिए उन्हें उन कानूनी प्रक्रियाओं का सामना नहीं करना पड़ता, जो शादीशुदा जोड़ों को करना होता है। बदलते वक्त में अपने घरों से दूर रहकर करियर संवारना, कम आय की चुनौतियां और भागदौड़ की व्यस्त ज़िंदगी में एक पार्टनर की ज़रूरत होती है, जो लिव इन के रूप में विकसित होती जा रही है। पूरी ज़िंदगी जिसके साथ गुज़ारनी है, उसे परखने की भी एक सोच सामने आई है, लेकिन साथ ही सामने आती जा रही हैं इस तरह के रिश्ते की ऐसी खौफ़नाक कहानियां जो रूह कंपा देती हैं।