Open Window Special: अगर इन कदमों को उठाए सरकार तो भारत में कभी नहीं होंगे अग्निपथ की खिलाफत जैसे उग्र आंदोलन, खत्म हो जाएगी आरक्षण की सियासत

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  • Publish Date - June 21, 2022 / 01:28 PM IST,
    Updated On - November 29, 2022 / 06:34 AM IST

बरुण सखाजी, (सह- कार्यकारी संपादक, आईबीसी-24)

सरकारी नौकरी का मतलब सिर्फ अच्छा वेतन नहीं है, बल्कि वेतन व काम से जुड़ी सुरक्षा भी है। सरकारी नौकरी का आकर्षण कोई नई बात नहीं  है। अस्सी के दशक में तो यही सिर्फ नौकरी होती थी। जब प्रतिस्पर्धी निजी क्षेत्रों में भी काम के अवसर आने लगे तो भी सरकारी का आकर्षण कम क्यों नहीं हुआ, सोचने की बात ये है। अफसोस है कि इस पर अब तक किसी सरकार ने सोचा नहीं और सोचा है तो कुछ किया नहीं। इसके नतीजे हैं, अग्निपथसे उपजे विद्रोह या आरक्षण संबंधी आंदोलन। इसे चुनावी मंत्र के रूप में ही लिया। किसी ने रोजगार को चुनावी मुद्दा बनाया तो किसी ने मुद्दा बनने नहीं दिया। बस यही सिर्फराजनीतिक उपलब्धि दिखाई देती है। वर्तमान की मोदी सरकार इसे मुद्दा नहीं बनने देने के लिए प्रयासरत है और विपक्ष इसे हर हाल में चुनावी गर्मागर्म मुद्दा बनाना चाहता है। इसी बीच यह सवाल कहीं खो जा रहा है कि इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था में आखिर रोजगार क्यों सृजित नहीं हो पा रहे या हो रहे हैं तो वे इतने स्पर्धी क्यों नहीं हो पा रहे कि सरकारी नौकरी का आकर्षण कम हो। याद नहीं आता किसी ने सरकारी नौकरी इसलिए छोड़ी हो कि वह निजी क्षेत्र में बड़ी नौकरी में चला गया।

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श्रम संबंधी कानून जिम्मेदार

श्रम संबंधी कानूनों के अनुपालन को इसके लिए सबसे बड़ा दोष दिया जा सकता है। वर्तमान में कानून तो बहुत हैं, लेकिन इनका अनुपालन नहीं है। निजी क्षेत्र में काम के घंटे, ईपीएफ, छुट्टी आदि को लेकर अनुपालन हो रहा है या नहीं, कोई ऐसा पारदर्शी सिस्टम ही नहीं है। इन क्षेत्रों में नियोक्ता अपने कामगारों को वेतन संबंधी वायदे पर खरा उतर रहा  है या नहीं। श्रम के मामले न्यायालय तक भी सीमित पहुंचते हैं और जो पहुंचते हैं वे कितना न्याय पाते हैं, हम सब जानते हैं? इसके ठीक उलट सरकारी क्षेत्र में काम के घंटे भी तय हैं। वेतन संबंधी नियमों में भी पारदर्शिता है। छुट्टियों आदि के नियम सुस्पष्ट और अनुपालित हैं। अपीलीय श्रेणियां भी बनी हुई हैं, जो क्रियाशील हैं। न्यायालयों की संस्तुतियां भी बाध्यकारी हैं। निजी क्षेत्र में इस बाध्यता का तोड़ है। ऐसे में नौकरी एक आजीविका के साथ सुगम जीवन की परिचायक भी है। किंतु निजी क्षेत्रों में ऐसी कई विंडबनाएं हैं। इन पर नजर रखने के लिए श्रम विभाग के पास पर्याप्त न टीम है न ऐसे ऑटो-सिस्टम जिनसे वह जान सके। पहले तो इसे कसने की जरूरत है। निजी इकाइयों को आउटसोर्स करवाकर भी निजी क्षेत्रों की मॉनीटरिंग करवाई जा सकती है। या कोई अर्ध-शासकीय बोर्ड, निगम या एजेंसी खड़ी करके भी श्रम विभाग यह कर सकता है।

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श्रम संबंधी कायदों में यह भी जोड़ें

मौजूदा श्रम संबंधी कायदों में आईआईएम जैसे संस्थानों की मदद से निजी क्षेत्र में नौकरियों का ऑडिट करवाना चाहिए। इसमें वित्त मंत्रालय के माध्यम से यह भी सुनिश्चित करवाना चाहिए कि कोई नियोक्ता अपने उपक्रम से अर्जित आय का कितना प्रतिशत कर्मचारियों के लिए खर्च कर रहा है। यह सिर्फ लाभ-हानी वाले गणित से नहीं तौलना चाहिए। साथ ही साथ इसमें एक नया विचार यह भी रखना चाहिए कि नियोक्ता अपने व्यवसाय में कहीं 2 लोगों की जगह एक आदमी से काम तो नहीं चला रहा। व्यवसाय भले ही निजी लोगों के हाथ में हो, लेकिन इनका एंपलॉयी ट्री या स्ट्रक्चर बनाने का काम सरकारी एजेंसी के माध्यम से होना चाहिए। वामपंथी विचारों में इस बात को  सुनिश्चित करने की वकालत की जाती है। यह स्वागतेय विचार है। कर्मचारी इसी समाज का हिस्सा है। आयकर के माध्यम से एक कर्मचारी सरकार को अपने पैसों का हिसाब देता है। हिसाब नियोक्ता भी देता है, लेकिन  इसमें यह बाध्यता नहीं है कि उसने कर्मचारी वेलफेयर के लिए क्या किया।

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सरकारी दखल से रोजगार बढ़ेगा और सरकारी नौकरी का आकर्षण भी होगा कम

अगर इस दिशा में सरकारी दखल बढ़ाया जाता है। किसी भी व्यवसाय के लिए स्टैंडर्ड मैन पॉवर की संख्या श्रम मंत्रालय या रोजगार नाम का नया कोई मंत्रालय बनाकर उसके द्वारा दी जाती है तो यह अच्छा होगा। एक तरफ जहां सरकार के ऊपर से लाइबिलिटी घटेगी, वहीं निजी क्षेत्र की नौकरियां भी सरकारी की तरह सुरक्षा वाली हो सकेंगी। इसका अर्थ यह नहीं कि निजी क्षेत्र का दमन होने लग जाए। परंतु दोनों क्षेत्रों को समानांतर चलने की जरूरत रहनी चाहिए। तब देश में न तो आरक्षण कोई बड़ा मुद्दा रहेगा न ही नौकरियों के नाम पर प्रदर्शन और न ऐसे आग जलाऊ अभियान। इसके साथ ही सरकारें भी साफतौर पर बता सकेंगी कि उसकी कुल आबादी में से कितनों के पास क्या काम है और वह काम उसकी आजीविका के अनुरूप है या नहीं।

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