बरुण सखाजी, राजनीतिक विश्लेषक
नवरात्रि गरबा को लेकर हिंदू संगठनों के आ रहे बयान अचरज में डालते हैं। गरबा में लव जिहाद की आशंका को इतना बड़ा खतरा मान लिया गया कि हर दिन नए आइडिया दिए जा रहे हैं। नए बयान जारी किए जा रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे गरबा शुरू होते ही अफगानी कुर्द आक्रमण करेंगे। गरबा कर रही सभी युवतियों पर मोहनी पाश फेंकेंगे और ले उड़ेंगे। कोई बिधर्मी कह रहा है तो कोई आसामाजिक तत्व। ये दोनों ही शब्द सिर्फ कही-सुनी बातों की बुनियाद पर कहे जा रहे हैं। फिलहाल सारी कौम के लिए यह शब्द कहने का न कोई आधार है न कोई सभ्य संवाद की पहचान।
बेशक, कुछ ऐसे मामले आए हैं, जिनमें हिंदू युवतियों को मुस्लिम युवकों ने अपने प्यार के फंदे में फंसाया और शादी के नाम पर दैहिक शोषण किया। उन्हें किसी अंतरराष्ट्रीय आतंकी गतिविधि में धकेल दिया। बावजूद इसके पूरी कौम के युवा इसके लिए कॉमन कल्प्रिट नहीं माने जा सकते।
अभी हिंदू संगठनों को यह मीडिया चमक अच्छी लग रही होगी, किंतु समाज वास्तव में ऐसा नहीं है। सनातन सशक्त है। विचारवान है। बुद्धिमान है। सत्य को खुली और विज्ञानिक आंखों से देखना जानता है।
ऐसा ही वर्षों तक उन मुसलमानों ने किया जो आतंकी घटनाओं पर मौन रहे। 72 हजार हूरों की थ्योरी का न आधार देखा न प्रमाण और सच मानते हैं। कोई कमजोर बुद्धि का मुसलमान नहीं बना फिदायीन बल्कि अच्छे-खासे विज्ञानिक बुद्धि वाले, तार्किक सोच वालों ने पेंटागन में विमान घुसाया, भारत की संसद को बंधक बनाया, इसी बुनियाद पर दूसरे धर्मावलंबी मुक्त पाकिस्तान का निर्माण कराया, बांगलादेश में हसीना को कुर्सी से हटाया, फिलिस्तनी आतंकियों के साथ सहानुभूति रखी। इस दौरान आम मुसलमान अपनी रोज की रोटी चबाते हुए इन सब घटनाओं पर मौन रहा। मौन समर्थक बना रहा। मूकदर्शक बना रहा। उसने नहीं सोचा यह एक दिन सारी कौम पर सदा-सदा के लिए धब्बा बन जाएगा। कौम की पहचान बन जाएगा। पूरी दुनिया में मुसलमानों को लेकर जो परसेप्शन है वह किसी से न छिपा है न इसमें कोई छिपाने की जरूरत ही है। हर उस देश में शंका के दायरे में हैं जहां भी मुस्लिमों की आबादी मैटर करती है। यानि निर्णयों को प्रभावित कर पा रही है। इसका कारण वे पोंगा मुस्लिम हैं जो 72 हजार हूर, पीड़ित मुसलमान, उपेक्षित मुसलमान, इस्लाम की खातिर, मुसलमान की खातिर, मुस्लिम ब्रदरहुड और भी न जाने क्या-क्या। कभी मानवता की बात नहीं की। सिर्फ उसी पर ऐतबार लाया गया जो अल्लाह को मानता है। अल्लाह मतलब सिर्फ अल्लाह न उसका पर्याय ईश्वर न जीसस न राम न कृष्ण न कुछ और। चाहे वह प्रेम से माने, परंपरा से माने, तलवार से माने, बलात माने, रोकर माने, मरकर माने। इसी दकियानूसियत ने कौम पर धब्बे ही धब्बे लगा डाले। अब भी बहुत समझदारी आई नहीं। जितनी कुछ भी सद्बुद्धि दिखाई दे रही है वह संघर्ष में कमजोर पड़ने के चलते चालाकी जैसी लग रही है।
इन दिनों ठीक ऐसा ही व्यवहार हिंदू संगठन कर रहे हैं और इन्हें आम हिंदू मौन समर्थन दे रहा है। हालांकि हिंदुओं की थोड़ी तारीफ भी की जा सकती है, क्योंकि इन्होंने हाल ही में हुए देश के चुनावों में इस तरह के मन-मानस को सियासी संरक्षण देने वाले विचारों को नियंत्रित किया है। धर्म को इस तरह से तोड़-मरोड़कर अपवित्र कर रहे विचारों को हतोत्साहित करने की जरूरत है। हिंदू एक महान विचार है। ऐसा धर्म है जहां वीरता, शूरता, दया, करुणा, विमर्श, सम्मान, प्रेम, आस्था, विश्वास, विज्ञान, विविध रूप में ईश्वर जैसी चीजें एक साथ चलती हैं। यह बंदबुद्धियों का समूह नहीं है। यह अपने जीवन चरित्र को संयमित करने के लिए नरक-स्वर्ग की अवधारणाओं को मानता है, किंतु उन्हें लेकर किसी को मारता या खुद नहीं मरता। सत्कर्म का कॉन्सेप्ट मानता है और इसका दायरा सिर्फ हिंदू नहीं रखता बल्कि समग्र मानव समाज रखता है। यहां किसी एक ही ईश्वर को महान कहकर दूसरे के अनुयायियों के गले नहीं रेते जाते। मगर जैसा हो रहा है तो वैसा ही चलता रहा तो फर्क न बचेगा कुछ बंद बुद्धियों और खुली बुद्धियों में।