#NindakNiyre: तुलसी ने शैव-वैष्णव का भेद मिटाया तो निशाने पर रहे, अब फिर भंग हो रहे भेद तो कौन है निशाने पर?

तुलसीदास ने रामचरित मानस के जरिए शैव-वैष्णव का एकाकार किया, अब तमिल-हिंदी को एक करने का समय। तुलसी निशाने पर थे तो अब के प्रयास हैं निशाने पर

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  • Publish Date - June 5, 2023 / 04:44 PM IST,
    Updated On - June 5, 2023 / 04:44 PM IST

बरुण सखाजी. राजनीतिक विश्लेषक

छत्तीसगढ़ का वनांचल जनजातिय प्रभाव वाला क्षेत्र है। हमारे पूर्वज बताया करते हैं, भारतीय हिंदू का ओरीजिन जनजाति समाज है। विवाह, अंतिम संस्कार, बाल जन्म आदि की रस्में जनजातिय प्रभाव वाली हैं। इतिहास कहता है जनजाति समूह मुख्यतः शैव हैं। इनका विस्तार अखंड भारत के नक्शे में 70 फीसद इलाकों में दिखाई देता है। यानि 70 फीसद वे हैं जो जनजाति समाज से सीधे ताल्लुक रखते हैं और 30 फीसद हम सब हैं जिनके पूर्वज जनजाति समाज के रहे हैं।

इस घुमावदार परिभाषा के हिसाब से समग्र भारत जनजातिय समाज के वर्चस्व वाला रहा है और जनजातिय समाज हिंदू कहलाते हैं। हिंदुओं के सबसे बड़े आराध्य राम हैं। राम दैनिक पूजा-पाठ में शिव का ध्यान करते थे। छत्तीसगढ़ के गहन वनांचल क्षेत्रों में अनेक छोटे-बड़े शिवलिंग स्थापित मठ, मढ़िया, मंदिर, शिवालय हैं। यह राम ने अपनी दैनिक पूजा के दौरान अस्थायी रेत, मिट्टी या जहां जो उपलब्ध हुआ उससे बनाए थे। समय के साथ बहुतेरे अपने पूर्व रूप में चले गए होंगे यानि मिट्टी के मिट्टी बन गए होंगे या रेत के रेत। कुछ हैं जिन पर समय का प्रभाव नहीं है। यह प्रमाण कहते हैं राम शिवोपासक थे। यानि शैव, वैष्णव और शाक्त में कोई फर्क नहीं होता। शैव समग्र है, वैष्णव व्यवस्था, आस्था का समन्वित रूप और शाक्त कालखंड को अपने अनुरूप बनाने का यांत्रिक, मांत्रिक तरीका हुआ।

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मध्यकाल में शैव, शाक्त और वैष्णव की मान्यताओं में अंतर का फायदा उठाकर अलगाव पैदा करके राज किया गया। कालांतर में यह अलगाव खत्म करने में महाकवि तुलसीदास जैसे विद्वानों के सदग्रंथ सहायक रहे हैं। इन ग्रंथों ने पौराणिक कथानकों के दार्शनिक हिस्से को रिराइट किया। जैसे कि राम शैव थे। बाल्मीकी रामायण भी राम को शिव और शक्ति उपासक बताती है और रामचरित मानस भी।

राम के शैव होने पर धुंधलका पैदा करके वैष्णव, शाक्त और शैव की खाई पैदा हुई। वैष्णव मत मूलतः जाति आधारित व्यवहार, विज्ञान, आधार, व्यवस्था और लोक जैसे पंच मूल सिद्धांतों पर टिका है। जबकि शैव आध्यात्मिक परमतत्व पर। शाक्त मनोनुकूल, जनकल्याणपरक, सिद्धि और तंत्र पर अवलंबित मत है। इस तकनीकी और बारीक विभेद का खूब फायदा उठाया गया। राज-काज और राजनीति में हर वर्ग में फर्क पैदा किया गया।

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तुलसीदास ने राम के चरित्र को फिर से लिखा। मानस में कोई अलग से कथानक नहीं जोड़ा गया। जो था उसे समसामयिक करते हुए और प्रासंगिक बना दिया। जैसे राम शिव के उपासक थे। इस तथ्य को प्रामाणिक तौर पर पेश किया। राम शक्ति पूजक भी थे इसे भी राम की शक्तिपूजा के रूप में पेश किया गया। जैसा मैंने ऊपर बताया राम शिव उपासक थे। शक्ति के पूजक थे। जिस रीति, नीति से वे राजा बने, जिस राज-काज परिवार में जन्मे, जिन गुरु-शिष्य परंपरा में विद्यार्जन किया, जिस युद्धकला में पारंगत अस्त्रविद बने, जिस दैनिक परिचर्या का अनुसरण किया वह सब वैष्णव परंपरा का हिस्सा है। इसलिए वे वैष्णव भी हुए। यानि राम संसार चलाने में सबसे ज्यादा सक्षम और प्रामाणिक व्यवस्था वैष्णव के अनुयायी हुए और शक्ति संचय का महास्रोत शक्ति के उपासक भी हुए। साथ ही मुक्ति, मोक्ष का प्रामाणिक महामार्ग शिव उपासक भी हुए। तुलसी ने शैव-वैष्णव-शाक्त का भेद भंग किया। नतीजे में मध्यकाल के आक्रांता मुगल ढह गए। उत्तर-दक्षिण का बोया गया भेद फीका होने लगा।

तुलसी इन्हीं सब कारणों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर टार्गेटेड पर्सनैलिटी बने। उनके प्रशंसक, समर्थक 90 हुए तो 10 महाआलोचक भी बने। उन्होंने दक्षिण-उत्तर को एक किया, शैव-वैष्णव को एक किया, राम-शिव उपासकों को एक किया, आकार-निराकार को एक किया, आस्थावान-निर्आस्थावानों को एक किया। 500 वर्ष पहले शैव-वैष्णव-शाक्त को एक करके राम स्वरूप बना दिया। यह श्रेय तुलसीदास को जाता है। भारत में राज करने के लिए शैव-वैष्णव-शाक्त की असहमतियां मुगलों को काम आईं। लेकिन तुलसी के इन प्रयासों ने इस असहमति को विभाजन बनने से रोक दिया। इसीलिए तुलसीदास सदा ही निशाने पर रहते आए हैं। आज भी, कल भी और आगे भी रहेंगे।

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जब शैव-वैष्णव-शाक्त की असहमतियां विभाजन बनने से रुक गईं तो बाद में हिंदू-मुसलमान बनाकर ब्रिटिश अंग्रेजों ने सत्ता चलाई। जब इस्लाम की बुनियाद पर बांग्लादेश, पाकिस्तान बन गए तो आजाद भारत के राजनीतिक दलों को हिंदुओं में कर्म व्यवस्था वर्ण और दैहिक शुचिता के लिए स्थापित प्योर-डीएनए ट्रैकर जाति व्यवस्था के बीच के सहज अंतराल अवसर दिखने लगे। दलों, नेताओं ने खूब फाड़ा समाज को। बांटा वर्गों में। नई सदी आते तक 50-60 सालों में समूचा भारत शर्मा, कुर्मी, वर्मा, शूद्र आदि में बंटकर दरक गया।

तुलसी ने शैव-वैष्णव-शाक्त को राम के चरित प्रकाश से दूर कर दिया लेकिन हिंदु-मुसलमान का भेद जिंदा रहा। भारत में जन्मे तबके नेताओं ने इस भेद को और फाड़कर प्रशासनिक सीमाओं में बदल दिया। पाकिस्तान, बांग्लादेश के रूप में राष्ट्र के राष्ट्र बना डाले। ब्रिटिश अंग्रेजों के शासित समाज के तबके बौने नेता, अगुवाओं ने राष्ट्र को तोड़-मोरड़कर 1947 तक की शकल में ले आए। यानि आजाद, किंतु किनसे आजाद सिर्फ ब्रिटिश अंग्रेजों से। तुलसी विहीनता का सबसे बड़ा खामियाजा अखंड भारत को हुआ।

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अब जब 1947 के बाद के भारत में हिंदू-मुसलमान मसला नहीं रहे तो जाति को विभाजित करके राज का रास्ता खोल लिया गया। 60-70 साल तक भारत में विचार हीनता के शिकार बौने नेताओं ने सुंदर भारत की सूरत बिगाड़ी। 2000 के बाद की सियासत में परिवर्तन देखने को मिले, लेकिन बहुत मामूली।

2014 के बाद के भारत में जातियों की असहमितयों को मिटाकर एक संपूर्ण सनातन की स्थापना की ओर बढ़ने जैसे कदम दिखाई दे रहे हैं। दक्षिण-उत्तर के भेद समाप्त होते दिख रहे हैं। तमिल को दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा माना गया। काशी-चेन्नई के सेतु बनाए जा रहे हैं। ब्राह्मण-शूद्र के भेद खत्म होते दिख रहे हैं। नतीजतन वर्तमान शासक भी निशाने पर है। जैसे तुलसी पर दुनिया के हर विभाजक विद्वान ने खराब लिखा, खराब माना, खराब ढंग से उनके लेखन को पेश किया वैसे ही वर्तमान शासक के विरुद्ध हो रहा है।