बरुण सखाजी. राजनीतिक विश्लेषक
आज बात करूंगा नॉर्थ-ईस्ट के सबसे महत्वपूर्ण राज्य त्रिपुरा की। त्रिपुर सुंदरी महादेवी के इस राज्य में भाजपा ने दूसरी बार जीत दर्ज की है। यह जीत यूं तो सामान्य चुनावी जीत है, लेकिन इसे थोड़ा अंदर से समझने की जरूरत है। दशकों तक सियासत में अलग-थलग पड़े रहे अगरतला में भगवा का दोबारा जीता जाना भारत की सियासत में बड़ा अहम है। यहां की जीत के मेघालय, नागालैंड से अधिक मायने हैं।
पहला मायना, त्रिपुरा से केरल का रास्ता प्रशस्त
त्रिपुरा में अब हंसिया, हथौड़ा सियासत का अंत मानना चाहिए। क्योंकि यहां पर लेफ्ट पार्टियों ने 2018 से भी ज्यादा वोट परसेंट खोया है। पिछली बार जहां भाजपा और लेफ्ट की प्रमुख पार्टी सीपीआई (एम) के बीच की जंग में महज 1.5 फीसद वोट का अंतराल था, अब वह लगभग 16 परसेंट पर आ गया है। 2018 में सीपीआई (एम) ने 42.22 फीसद वोट के साथ 16 सीटें जीती और भाजपा ने 43.59 फीसद वोट के साथ 36 सीटें हासिल की थी। अब 2023 में भाजपा ने जहां 39 फीसद वोट हासिल करके 32 सीटें जीती हैं, तो सीपीआई (एम) ने 24.6 फीसद वोट हासिल करके महज 11 सीटें ही जीती हैं। अगर गठबंधन की भाषा में बात करें तो भाजपा ने आईपीएफटी के साथ गठबंधन करके 6 सीटें दी थी, बाकी 54 पर वह खुद लड़ी थी। भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए को 40.25 फीसद वोट मिले हैं, जबकि सीपीआई (एम) के नेतृत्व वाले गठबंधन जिसमें कांग्रेस शामिल है को 36 फीसद वोट मिले हैं। वैसे तो यहां भाजपा को लगभग साढ़े 4 परसेंट वोट और 4 सीटों का सीधा नुकसान हुआ है, लेकिन सीपीआई को हुए भारी नुकसान के मुकाबले बहुत कम है। यहां से यह कहना कोई जल्दबाजी नहीं कि अब भगवा त्रिपुरा में स्थायी रूप से लाल रंग को धोने में सक्षम हो चुका है। यानि अब वह केरल का लाल रंग धोने की तरफ काम करेगा।
त्रिपुरा में तीसरे दल के लिए जगह
भाजपा के लिए एक और राहत की बात है। भाजपा सरकार में आई है, लेकिन उसे सबसे ज्यादा नुकसान देने वाला दल सिद्ध हुअ त्रिपुरा मोथा पार्टी। बर्मन राजपरिवार की यह आदिवासी वोटरों वाली पार्टी है। इसने राज्य में पहली बार में ही 13 आरक्षित सीटों पर 20 फीसद वोट के साथ धमक दिखाई है। जाहिर है टीएमपी ने भाजपा को डैमेज किया है, लेकिन उतना नहीं जितना उम्मीद की गई थी। 2018 में त्रिपुरा की 20 जनजाति आरक्षित सीटों में से भाजपा के पास 10 थी। जबकि 8 सीटें उसकी सहयोगी आईपीएफटी के पास थी। 2 सीटों पर सीपीआई (एम) का कब्जा था। अब जब 2023 के नतीजे देखते हैं तो भाजपा के पास 6 बरकरार हैं, आईपीएफटी को सबसे बड़ा नुकसान 1 ही बचा पाई है जबकि सीपीआई (एम) का सूपड़ा साफ है। तो कह सकते हैं टिपरा मोथा ने भाजपा को 4, आईपीएफटी को 7 और सीपीआई (एम) को 2 सीटों की सीधा नुकसान पहुंचाया है। ऐसे में यह भाजपा को बाकियों की तुलना में कम नुकसान है।
टिपरा, सीपीआई का अघोषित गठजोड़ हुआ फेल
जिस टिपरालैंड की बात कहकर प्रद्युत देबबर्मन की टिपरामोथा आगे बढ़ी थी, वह भाजपा को सबसे बड़ा डैमेज करने जैसी लग रही थी। इसी बीच सीपीआई (एम) का सेकुलर डेमोक्रेटिक फ्रंट भी दमखम से आगे बढ़ा। अनुमान था टीएमपी सभी 20 में से 15-16 आदिवासी सीटें जीतेगी, सीपीआई 15 तक पहुंच जाएगी, कांग्रेस 2-3 ले लेगी और इक्का-दुक्का गठबंधन की दीगर पार्टियां ले आएंगी। इस गणित से सीपीआई (एम) के नेतृत्व में त्रिपुरा में सरकार बन जाएगी। लेकिन सीपीआई (एम) का दांव उल्टा पड़ गया। टिपरा मोथा ने सीटें तो अनुमान के लगभग हासिल कर ली, लेकिन सीपीआई (एम) को 16 फीसद वोटों का बड़ा नुकसान हो गया और वह 11 से आगे नहीं निकल पाया। जबकि कांग्रेस ने ठीक कर दिया। उसे 2018 में सिर्फ 1.79 फीसद वोट के साथ कोई सीट नहीं मिली थी। इस बार वह साढ़े 8 परसेंट वोट के साथ 3 सीटों पर पहुंच गई। जबकि उसे लड़ने को सिर्फ 13 सीटें मिली थी।
भाजपा के लिए राहत, आदिवासी समाज खिसका पर पूरा नहीं
इसमें भाजपा के लिए राहत यह है कि जिन आदिवासी वोटरों को बिखराने के मकसद से टिपरा मोथा पार्टी बनाई गई थी वह बिखरने की बजाए टीएमपी और भाजपा में बंट गए। नतीजा ये हुआ कि टीएमपी ने 20 एसटी आरक्षित सीटों में से 13 जीत ली और भाजपा ने 6 जबकि एक भाजपा की ही सहयोगी पार्टी आईपीएफटी ने जीती है। जाहिरए इसका फायदा जो कांग्रेस या लेफ्ट ने सोचा था वह नहीं मिल सका। गणित देखें तो टीएमपी ने भाजपा को सिर्फ 4 सीटों का नुकसान दिया, जबकि आईपीएफटी को 7 का और सीपीआई (एम) को 2 का। भाजपा अपने लिए यह मतलब निकाल सकती है कि उसके महज 4 आदिवासी सीटों के प्रत्याशी ही हारे हैं। यानि आदिवासी भावनाओं को भड़काकर राजनीति की कोशिश की तुलना में आदिवासियों के लिए किए जा रहे काम, उनके साथ सांस्कृतिक जुड़ाव की भाजपा की रणनीति ज्यादा कारगर और टिकाऊ है।
तो भाजपा यह मान ले
त्रिपुरा से भाजपा यह मान ले कि उसे 2023 में होने जा रहे 9 राज्यों की आदिवासी सीटों पर तमाम प्रयासों के बाद भी कोई बड़ा नुकसान नहीं होगा। बल्कि एमपी जैसे बड़े राज्य में 2018 में हारी आदिवासी सीटों पर भाजपा अच्छा कर सकती है, जबकि छत्तीसगढ़ की 29 में से सिर्फ 2 ही आदिवासी सीट जीतने वाली भाजपा अब अच्छा प्रदर्शन कर सकती है।
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