Barun Sakhajee
बरुण सखाजी श्रीवास्तव, राजनीतिक विश्लेषक
औरंगजेब विवाद के बीच ख्याल आया कि अगर मैं भी धर्म से मुसलमान होता तो क्या औरंगजेब की खिलाफत करता। खुद से किया गया यह खुद का ही अत्यधिक आंतरिक प्रश्न है। मैं नहीं जानता इसका उत्तर आप क्या सोचेंगे, लेकिन मैं जो सोच रहा हूं वह आपके साथ साझा करना चाहता हूं। अपनी विरासत, अपनी पहचान पर गौरव करना इंसान का मूल स्वभाव होता है। इस स्वभाव में हीनता भी पाई जाती है, लेकिन यह हीनता उस समय विद्रोह बन जाती है जब कोई इस पहचान, विरासत को चुनौति देने लगे। यानि जब कोई कहने लग जाए तुम जाहिल हो, गंवार हो, तुम्हारी विरासत उचक्कों वाली है, तुम गलत हो आदि-आदि। तब एक इंसान के रूप में मैं विद्रोही हो जाऊंगा। पहचान, विरासत की समीक्षा बाद में की जाएगी, पहले इसके जरिए जो मुझे हिट किया जा रहा है उसका जवाब दूंगा। फिर यह बात भी पीछे चली जाएगी कि मैं कितना धार्मिक हूं या अपने धर्म या पहचान या विरासत को कितना समझता हूं।
मैं अगर मुसलमान होता तो औरंगजेब का समर्थन कर रहा होता। कारण यह नहीं कि मैं औरंगजेब को देवता मानता हूं, न यह कारण यह कि आप उसे गालियां दे रहे हैं। बस आपने मेरी पहचान, विरासत को चुनौति दे डाली है। अब तो मैं धर्म को समझता या न समझता, पांच की बजाए एक बार भी नमाज न पढ़ता, कुरान की एक आयत भी मेरी जिंदगी में न होती, एक रोजा भी न रखता, एक दिन भी मस्जिद में सजदा नहीं करता, तब भी मैं मुसलमान होकर औरंगजेब का समर्थन कर रहा होता।
मैं अगर मुसलमान होता तो हो सकता था कि डरकर भीतर ही भीतर कुढ़ रहा होता, लेकिन ये भी हो सकता था कि मैं औरंगजेब के बदले किसी भारतीय नायक की छवि पर हमला कर रहा होता। या अंत में कुछ न होता तो मेरे पास बदन में बहुबम बांधने का आक्रोष और पर्याप्त कारण तो होता ही।
क्या सच में एक मुसलमान की तरह सोचा जा सकता है? एक मुसलमान होकर सोचना बड़ा कठिन है। इतनी ज्यादा असहमतियां हैं, इतना ज्यादा अंतर हो चला है। यह अंतर इस काया में रहकर उस पार की काया में जाकर सोचने का साहस और क्षमता खत्म कर चुका है। यह फर्क इस ईश्वरीय अवधारणा को उस अवधारणा के साथ बिठाने में नाकामयाब कर रहा है। यह दूरी मजबूरी नहीं, जरूरी जैसी लगने लगी है। मैं आज हिंदू काया में हूं, हिंदू ईश्वरीय अवधारणा में हूं तो इसके पार या परे जाकर अल्लाह ही इकलौता परमेश्वर है के कॉन्सेप्ट को ठीक-ठीक उसी रूप में नहीं मान पाऊंगा, जिस रूप में मुसलमानों ने मान रखा है। मैं इसे स्वीकारता हूं, किंतु सनातन में वर्णित निरंकार अवधारणाओं के माध्यम से। ईश्वर को मानना भी एक प्रकार का अहंकार है ठीक वैसे ही जैसे ईश्वर को न मानना। मैं हिंदू काया और माया से जो देख पा रहा हूं वह सिवाय सनातन के कुछ भी नहीं, क्योंकि अब मैं भी 1400 साल पुराने मुसलमानों की तरह सोचने लगा हूं। वे तो जन्म से ही ऐसा सोच रहे हैं, तभी तो दुनियाभर में झगड़े का केंद्र बने हुए हैं। उन्हें मतलब नहीं मंगल, चंद्र कौन गए कौन आए, कहां से नेटवर्क आया, मोबाइल डिवाइस पर कैसे बात हुई, उन्हें मतलब नहीं अर्थव्यवस्थाओं में आ रहे उतार-चढ़ाव और सामाजिक योगदान से।
एक मुसलमान बनकर मैं जब सोचता हूं तो यही सोच पाता हूं, अब नहीं सहा जा रहा। औरंगजेब लुटेरा था, उचक्का था, आक्रांता था, जाहिल था पर मेरा था। मैं उससे अपनी पहचान जोड़ता हुआ महसूस होता, क्योंकि मैं औरंगजेब के जजिया, काफिर, बर्बरताओं को अपने में पाता हूं। बस इतनी सी बात है। मुझे भी चौदह सौ सालों के इस झगड़े, सदा असहमति, अपनी और सिर्फ अपनी शब्दशः थोपने वाले मुस्लिम मन मानस ने सनातन से डिगा दिया। अब मैं भी सोचता हूं, मैं मुसलमान होता तो वही सोचता जो मुसलमान सोचते हैं।