#NindakNiyre: छत्तीसगढ़ कांग्रेस में जोगी पैटर्न कहीं से फिर से तो नहीं हो रहा हावी, बंटकर नहीं एकजुटता से लड़ना होगा 2023

Bhupesh Baghel style of politics: छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने इकतरफा सीटें देकर कांग्रेस सरकार की बहाली की थी, लेकिन बाद के सालों में गुटबाजी इतनी ज्यादा हावी रही कि यह जनाधारा सत्ता तक नहीं ले जा सका। इस बार 2023 के लिए कांग्रेस कमर तो कस रही है, लेकिन जोगी युग की छाया नजर आ रही है। आइए समझते हैं

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  • Publish Date - March 22, 2023 / 08:54 PM IST,
    Updated On - March 22, 2023 / 08:58 PM IST

बरुण सखाजी. राजनीतिक विश्लेषक

छत्तीसगढ़ मूलतः तो कांग्रेस का स्थायी जनाधारा वाला प्रदेश है, लेकिन इतिहास बताता है जब-जब कांग्रेस ने गुटों में बंटकर चुनाव लड़ा, वह हारी लेकिन इसके ठीक उलट जब वह एकजुट हुई तो नतीजे सब पर भारी साबित हुए हैं। 1998 में जब अविभाजित मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह का किला हिल रहा था, तब भी छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने इकतरफा सीटें देकर कांग्रेस सरकार की बहाली की थी, लेकिन बाद के सालों में गुटबाजी इतनी ज्यादा हावी रही कि यह जनाधारा सत्ता तक नहीं ले जा सका। इस बार 2023 के लिए कांग्रेस कमर तो कस रही है, लेकिन जोगी युग की छाया नजर आ रही है। आइए समझते हैं, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का जनाधार और चुनाव लड़ने की रणनीति।

1998 में सिमटी 24 पर भाजपा

1998 में अविभाजित मध्यप्रदेश के लिए चुनाव हुए। इनमें छत्तीसगढ़ की 90 में से 61 सीटों के बूते एमपी में दिग्विजय सिंह की दूसरी बार सरकार बनी। यानि कांग्रेस ने एमपी में 189 सीटें जीती। जबकि भाजपा छत्तीसगढ़ में महज 24 सीटों पर और एमपी में 83 सीटों पर अटक गई थी। यानि अविभाजित मध्यप्रदेश की 320 सीटों में से कांग्रेस ने 189 और भाजपा ने 106 सीटें जीती। बाकी 25 सीटों पर अन्य की जीत हुई थी। मतलब जब एमपी में कांग्रेस 128 पर अटक गई तब भी छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने ट्रेमंडस विक्ट्री हासिल की। यह दौर इसलिए और भी मायने रखता है, क्योंकि इसी समय सोनिया एमर्ज हो रही थी और अटल विहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा लंबी पारी की तैयारी कर रही थी।

2003 में बुरी हार के बाद भी कांग्रेस ने जीती 37 सीटें

वर्ष 2000 में छत्तीसगढ़ बनते ही अजीत जोगी मुख्यमंत्री बन गए और कांग्रेस ने सुपर मेजोरिटी के साथ सरकार बनाई। लेकिन यह सरकार सिर्फ 3 साल चली। 2003 के चुनावों में भाजपा ने 39.26 फीसदी वोटों के साथ 50 सीटों पर जीत दर्ज की। कांग्रेस ने 36.71 फीसदी वोटों के साथ 37 सीटें जीती। यहां भाजपा और कांग्रेस के बीच वोट का अंतराल सिर्फ 2.55 फीसदी थी। जबकि मध्यप्रदेश में भी भाजपा जीती थी। यहां वोटों का अंतर 10.89 फीसदी था। यानि एमपी में कांग्रेस की बुरी हार हुई थी जिसमें 230 में से सिर्फ 38 सीटें ही जीत पाई थी। जबकि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सम्मानजनक सीटों और वोटों के साथ फाइट में थी। यानि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का जनाधार मजबूत बना रहा।

गुटबाजी में हारी 2008, जीतते-जीतते चूकी

2008 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 50 सीटें जीती। कांग्रेस 38 पर अटक गई। लेकिन कांग्रेस-भाजपा के बीच वोटों का फासला घटकर 1.7 रह गया। यह जीतकर भी भाजपा के लिए खतरे की घंटी थी। भाजपा 40.33 और कांग्रेस 38.63 पर थी। यानि 2003 की तुलना में भाजपा ने दशमलव 97 फीसदी वोट की बढ़त हासिल की, जबकि कांग्रेस ने 1.92 फीसदी वोट ज्यादा हासिल किए। मतलब कांग्रेस ने भाजपा की तुलना में प्रतिशत के मामले में दोगुना अधिक बढ़त हासिल की। कांग्रेस में इसका कारण आंतरिक झगड़े और गुटबाजी माना गया। इस समय अजीत जोगी पार्टी के सर्वेसर्वा थे। महेंद्र कर्मा, चरणदास महंत, धनेंद्र साहू, सत्यनारायण शर्मा समेत कई शक्ति केंद्र थे। यहां तक कि पार्टी में कार्यकारी अध्यक्षों की संख्या भी 3 थी। इन चुनावों से साफ हुआ, कांग्रेस छत्तीसगढ़ में बहुत गहरे तक जुड़ी है, क्योंकि समानांतर मध्यप्रदेश में 2008 के चुनाव में कांग्रेस ने सीटें जरूर 38 से बढ़ाकर 71 कर ली, लेकिन वोट परसेंटेज में 1.82 फीसदी ही वृद्धि हुई। भाजपा ने यहां लगभग साढ़े 5 फीसदी वोट खोए, लेकिन ये सब कांग्रेस को नहीं मिले। जबकि छत्तीसगढ़ में यह उसके अपने वोट ही वापस हुए।

2013 में मुंह को आया हाथ नहीं लगा

2013 के चुनावों में कांग्रेस को बहुत उम्मीदें थी। यहां तक कि नतीजों वाले दिन दोपहर 12 बजे तक कांग्रेस आगे थी। रायपुर के प्रदेश कांग्रेस कार्यालय गांधी मैदान में कार्यकर्ताओं ने जश्न मनाना शुरू कर दिया। लेकिन यह खुशी जल्दबाजी सिद्ध हुई और पार्टी हार गई। परंतु यह हार कांग्रेस के लिए फिर सबक साबित हुई। पार्टी ने ऐसी चोट दी कि भाजपा सीटें तो 49 जीतने में कामयाब हो गई, लेकिन वोट परसेंट का अंतर सिर्फ दशमलव 75 फीसदी का रह गया। इसके बाद भाजपा बेचैन हो गई और कांग्रेस उससे भी ज्यादा परेशान। क्योंकि यह जीत के बिल्कुल करीब पहुंचकर हारना था। 2013 में कांग्रेस के पास झीरमकांड जैसी जनसंवेदी सहानुभूति भी थी, लेकिन जीत न सकी। इसका कारण भी जोगी को ठहराया गया और अबकी कांग्रेस ने ऊपर से तय कर लिया, इसका स्थायी इलाज जरूरी है। जोगी की विदाई की बाजीगरी दिखाई भूपेश बघेल ने। इसके बाद पार्टी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और एकजुटता से चुनावों की तरफ बढ़ी।

एकजुट थी कांग्रेस, तो नतीजों में दिखा असर

बीते 2018 के चुनावों में कांग्रेस ने एकजुटता दिखाई। नेताओं की आपसी लड़ाई दबा दी गई। पार्टी ने 68 सीटों पर शानदार जीत हासिल की और भाजपा की तुलना में 10.7 फीसदी वोट ज्यादा हासिल किए। कांग्रेस जहां जीती हजारों मतों से जीती। भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बन गए, क्योंकि पीसीसी के रूप में यह उनकी और टीएस सिंहदेव की साझा मेहनत थी। यहां एमपी से तुलना करें तो वहां भी कांग्रेस जीती, लेकिन वोट परसेंट भाजपा को ज्यादा मिला और सीटों में भी महज 5 का फर्क रहा। यहां भी कांग्रेस एकजुट होकर लड़ी थी। बाद में 2020 में पार्टी में बगावत हो गई जिसका फायदा भाजपा को मिला। यानि कह सकते हैं छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का जनाधार अधिक मजबूत है, जबकि एमपी में सिर्फ भाजपा को सबक सिखाने के लिए बतौर राजनीतिक रिलीवर कांग्रेस को सत्ता में लाया गया था।

अब 2023, फिर कांग्रेस में 2008 जैसे फाड़

अब कांग्रेस सरकार में है। धीरे-धीरे चुनाव की तरफ बढ़ रही है। बघेल एक सरकार के रूप में नेतृत्व दे रहे हैं और मोहन मरकाम पीसीसी चीफ के रूप में। ऊपर ताकतें भी 10 जनपथ, 17 अकबर रोड तो कभी प्रियंका वाड्रा के बीच मूव कर रही हैं। देश में कांग्रेस के पास वंशवाद से निपटने के लिए राष्ट्रीय अध्यक्ष भी गांधी परिवार से बाहर के हैं। यानि बाकी सब तो ठीक है, लेकिन पार्टी प्रदेश में फिर गुटबाजी शुरू हो गई है। यहां हालात 2008 और 2013 जैसे हो चले हैं। हाल ही के विधानसभा सत्र में भी यह देखने को मिला और पाटन-अंबिकापुर की जंग जगजाहिर है ही। इसमें अब तीन कोण और नए जुड़ गए। एक चौथा कोण उनका भी बड़ा हो रहा है जो मौके की तलाश में हैं।

संक्षिप्त यह कह सकते हैं, साल 2003 से शुरू हुई जोगी युग की गुटबाजी से लेकर 2013 तक जोगी के अवसान तक कांग्रेस भारी आंतरिक झगड़े से जूझती रही तो सत्ता मामूली अंतर से दूर रह गई। जब 2016 में जोगी अलग हो गए तो कांग्रेस ने 2018 में अपना जौहर दिखा दिया। लेकिन अब 2023 जीतना है तो फिर देखना होगा कांग्रेस में कहीं फिर से तो जोगी पैटर्न हावी नहीं हो गया।

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