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बरुण सखाजी श्रीवास्तव, सह कार्यकारी संपादक, IBC24
बरुण सखाजी श्रीवास्तव
भाजपा की दिल्ली में जीत से ज्यादा केजरीवाल की हार की चर्चा है। ऐसा क्यों? इसका जवाब एक शब्द में संभव नहीं। यह स्पष्ट है कि केजरीवाल देश की उन तथ्यों के जागृत स्वरूप थे जो आम आदमी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी। कोई किराना दुकान चलाने वाला, कोई पत्रकार, कोई नौकरी करने वाला, कोई शिक्षक कभी राजनीति में फर्स्ट शॉट में ही विधायक बन सकता है। विधायक के साथ मंत्री बन सकता है। ऐसा हुआ था 2013 में पहली बार, 2015 में दूसरी बार और 2020 में तीसरी बार भी। सियासत में भारी वीआईपी और धनातंक के बीच आशा की किरण बने थे केजरीवाल। इसलिए इन नतीजों को सिर्फ केजरीवाल की हार के रूप में नहीं, बल्कि यह भी देखना चाहिए कि अब भारत में कोई प्रयोग विश्वास हासिल नहीं कर पाएंगे। यही बात मैंने अपने ब्लॉग में 2014 में भी लिखी थी, जब केजरीवाल दिल्ली की जिम्मेदारी छोड़ बनारस लड़ने गए थे। नीचे लिंक दे रहा हूं।
केजरीवाल ने जिस तरह से रंग बदले। सुर बदले। चाल बदली। ढाल बदली। टकशाल बदली यानि अपना सिक्का चलाना चाहा। उससे यह बात स्पष्ट थी कि वे गिरेंगे, औंधे मुंह गिरेंगे और उन्हें कोई भाजपा, कोई मोदी, कोई राहुल, कोई कांग्रेस नहीं बल्कि वे खुद गिरेंगे और जनता उन्हें गिराएगी।
साठोत्तर की सियासत को देखें तो देश ऐसे प्रयोगों के लिए निरंतर अपने आपको तैयार कर रहा था। पर साहस जुटा नहीं पा रहा था। कुछ तैयार किया भी तो वह मायूस हुआ, जब देश में लालू यादव, पासवान, नीतीश, शरद यादव, मुलायम सिंह जैसे लोगों ने सियासत में कदम रखा। मगर ये लोग देश के गैर भाजपा-कांग्रेस वाले विकल्प पर खरा नहीं उतर पाए। सब वही निकले जिनसे देश बचना चाह रहा था। अंततः देश ने पॉज लिया। इस विरामकाल में बहुतेरे लोगों को आजमाया, किंतु यूपीए के दोनो टर्म से परेशान देश ने एक बार फिर रिस्क ली। प्रयोग किया। इस प्रयोग का नाम बने केजरीवाल। किंतु केजरीवाल ने अपने 10 वर्ष के इस शक्ति, सत्ता और सियासत के खेल में आरापों को अपनी कोर वैल्यू बनाया, फिर इसमें झूठ, फरेब, भ्रम को मिला दिया। जनता समझ गई, सियासत में वह एक बार फिर रंगे सियार की शिकार बन गई। ज्यों जेपी आंदोलन से निकले तबके नेता थे जो बाद में भारी भ्रष्टाचार का कारण बने और अब ये केजरीवाल भी वही साबित हुए।
केजरीवाल बारंबार जताते और बताते रहे कि भ्रष्टाचार उन्होंने नहीं किया बल्कि भाजपा उन्हें झूठा फंसा रही है। मगर जनता इतनी न तो मासूम होती है न मूर्ख। आज के सूचना युग में जब सबको सब कुछ पता होता है। किसी फॉर्मल मीडिया की जरूरत नहीं, किसी पत्रकार की जरूरत नहीं, किसी इंटरप्रिटर की जरूरत नहीं, लोग खुदबखुद सूचनाओं को प्रोसेस करके समझ लेते हैं। ऐसे में केजरीवाल के ये आधारहीन आरोप, झूठ से ज्यादा और कुछ भी नहीं सिद्ध हुए। जनता भ्रमित नहीं हुई। परेशान नहीं हुई। व्यर्थ ही व्यग्र नहीं हुई। स्पष्टता से छाना, बीना, खोजा, खंगाला, 10 साल तक संभाला, संभालने का मौका दिया, किंतु केजरीवाल इसे ही अपनी सियासी ताकत समझ बैठे। बस मामला यहीं से बिगड़ा। नेता ड्रामेबाज होते हैं, होना पड़ता है, किंतु इतने भी ड्रामेबाज नहीं हो सकते कि हर शब्द में अभिनय हो, हर गतिविधि में एक्टिंग हो और हर वक्त किसी एक दल को और उसके लोकप्रिय से लोकप्रिय लोगों पर कीचड़ उछालते रहिए। केजरीवाल यही करते रहे। वे हैं तो समझदार, सियासी सुजना भी हैं। तभी 2013 में लोगों ने चुना, किंतु अधूरा तो 2015 में इतनी मेहनत और भरोसा जमाया कि फिर से चुनते वक्त प्रचंडतम बहुमत लेकर आ गए। 2019 में रिपीट हुई मोदी की सरकार के बावजूद 2020 में फिर दिल्ली में चुने गए। यह दिल्ली की तरफ से दिया गया आखिरी अल्टीमेटम था। इस आस में कि शायद ये समझ जाएं, लालू, मुलायम न बनने पाएं। प्रयोग सफल हो जाए।
देश अब मैच्योर हो चुका है। मोदी को चाहता है किंतु मोदी पर अंकुश भी चाहता है। अंकुश के लिए कम से कम कांग्रेस के परिवार पर तो भरोसा नहीं करता, हालांकि कांग्रेस पार्टी पर थोड़ा-थोड़ा करता है। इन सब बातों के बीच यह नहीं मानना चाहिए कि अब केजरीवाल खत्म हैं, क्योंकि पिक्चर अभी बाकी है।
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