असल मुद्दे’ की चर्चा क्यों नहीं ?

असल मुद्दे' की चर्चा क्यों नहीं ?

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  • Publish Date - May 5, 2018 / 08:08 AM IST,
    Updated On - November 29, 2022 / 05:48 PM IST

मीडिया का हिस्सा होते हुए भी आजकल अक्सर हैरानी होती है…कई बार..बार-बार..हर दिन…मन में सवाल उठता है,एक नागरिक,एक पत्रकार दोनों के मन में कचोटता है ये सवाल…आखिर कोई भी असल मुद्दे की चर्चा क्यों नहीं करता..? पक्ष को सुनिये..विपक्ष को सुनिये…सरकार की सुनिए या सरकार बनाने के लिए बेकरारों की सुनिये…थोड़ी देर के लिए आप भी अपने असल मुद्दों को भूल जाएंगे..आपको भी लगेगा की ‘हां’ इस पर तो जवाब मिलना चाहिए…मसलन क्या कांग्रेस अध्यक्ष ‘विश्वेश्वरैया’ समेत किसी भी विषय पर 15 मिनिट बोल सकते हैं?…क्या प्रधानमंत्री कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष की चुनौती का सामना करने से बच रहे हैं ? क्या सत्ता पक्ष वाकई राहुल गांधी को सदन में 15 मिनिट बोलने की अनुमति नहीं देता ? या फिर,ये सवाल कि देश के संविधान निर्माता बाबा भीमराव अंबेडकर को ‘ब्राह्मण’ कहा जा सकता है ? क्या एक मंच और माहौल में ज्ञानवान और मार्गदर्शक होने के आधार पर गुजरात स्पीकर द्वारा डॉ भीमराव अंबेडकर जी को ‘ब्राह्मण’ कहना अनुचित है,षड़यंत्र है या किसी वर्ग विशेष का अपमान है? दरअसल,ये सारे सवाल ऐसे सामने आए या यूं कहें लाए जाते हैं कि आप और हम इस कदर उलझ कर रह जाते हैं कि थोड़ी देर के लिए सही इन्हें ही देश के समक्ष मुद्दे मान लेते हैं । आप सब भी देश के तकरीबन समूचे मीडिया मंच पर इन विषयों पर बड़े-बड़े पैनल के साथ डिबेट शोज देखकर इन मुद्दों को बेहद गंभीर मान बैठते हैं । पर साहब,आप भी ये जानते हैं कि आपकी निजी जिंदगी,आप-पास और समाज सबके लिहाज से ये सारे विषय और मुद्दे सिर्फ और सिर्फ टीवी डिबेट के ‘हॉट टॉपिक’ ही हैं । क्योंकि आपकी हमारी असल चुनौतियां तो कुछ और ही हैं जिनके समाधान के लिए हम दिन-रात धन,श्रम और समय लगाते हैं। आपमें से ज्यादतर के ज़हन में ये सवाल और थोड़ा गुस्सा ये सोचकर भी आ सकता है कि ये सब तो मीडिया का ही करा-धरा है,खुद वही तो बनाते हैं ये ‘छद्म मुद्दे’…। पर साहब ये अधूरा सच है…हकीकत ये है कि आज के दौर में मीडिया खुद ‘शेर की सवारी’ कर रहा है..कोई भी व्यक्ति जो शेर की सवारी तभी तक कर सकता है जब तक वो शेर के सिर पर सवार रहे और चलता रहे..अगर वो गिरा या रुका तो खुद शेर का ग्रास बन जाएगा…ठीक वैसे ही आज के दौर में मीडिया/चैनल्स/पत्र-पत्रिकाएं तभी तक जीवित रह सकती हैं जब तक वो इस ‘ब्रेकिंग कल्चर’ में यूं अचानक जन्में मुद्दों को ना सिर्फ खुद भी दिखाएं,जल्दी से जल्दी दिखाएं बल्कि इन ‘छद्म मुद्दों’ पर अनुसंधान-पड़ताल करें और बेहतर पैकेजिंग के साथ दिखाएं,इनपर बड़े डिबेट मंच सजाएं। याद कीजिए आपमें से भी ज्यादातर लोगों को किसी विवादित मुद्दे के बीच में जारी डिबेट शोज के साथ किसी भी चैनल पर सादगी भरे खालिस समाचार देखना शायद ही भाया होगा। इसे आप मीडिया के लिए वैसी ही मजबूरी भी कह सकते हैं कि जब दौर दीवाली का तो कोई होली नहीं खेल सकता। इस मजबूरी का एक सिरा अगर मीडिया है तो दूसरा सिरा बड़ा सनसनीखेज पसंद दर्शक वर्ग भी है । 

खैर,लौटते हैं ‘असल मुद्दों’ पर…सुबह उठते ही शांत चित्त या कोरी स्लेट जैसे मन से जब आप सोचना शुरू करेंगे तो आप जरूर इस बात से सहमत होंगे कि इन दिनों ज्यादातर जिन विषयों को उठाया जा रहा है वो आपके-हमारे असल मुद्दे नहीं हैं। तो फिर ‘असल मुद्दे’ क्या हैं…? साहब असल मुद्दा है घर में बड़ी होती जनरेशन की सही शिक्षा का,उसके करियर का,उसके जॉब का ,हमारे प्रमोशन का। असल मुद्दा है आय का,बचत का,अपनी छत-अपने घर का,आय से जुड़े उचित कर का,व्यवसाय के लिए लोन का,उचित बीमा और सेविंग का। असल मुद्दा है सही और सस्ती चिकित्सा व्यवस्था का। थोड़ा सा और गौर करेंगे तो इन सभी मुद्दों की राह में सबसे बड़ा कंटक या रोड़ा नजर आते हैं…करप्शन,पॉलिटिकल इच्छाशक्ति और जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था जैसे कारण।  

हर एक मुद्दे की तह तक जाने के लिए अथाह तथ्य हैं,बारिकियां हैं…बाकी सारी बातों को छोड़ दीजिए,आपसे-हमसे हर किसी से जुड़े सबसे ज्वलंत और असल मुद्दे को ही लीजिए…’जाति आधारित आरक्षण’। इस मुद्दे पर बात करने के लिए बहुत साहस चाहिए,बहुत दृढ़ता चाहिए और धीरज से पूरी जानकारी के साथ ब्रॉड विज़न भी । वैसे आप इसे लेकर कोई राय कायम करें इसे किसी चश्मे से देखें और आरक्षण समर्थक या विरोधी होने का ठप्पा लगा दें उससे पहले एक बार ये जरूर सोचें कि इस विषय को लेकर कितना दोहरा रवैया है । वैसे आरक्षण बहुत की उदार और जरूरी व्यवस्था है लेकिन जैसे ही ये ‘वर्ण’ या ‘जाति’ आधार पर होती है इसमें दोष,खामियां,वैमनस्य और वर्ग संघर्ष की गुंजाइश दिखने लगती है जिसे ‘संवैधानिक अधिकार’ और ‘शासन व्यवस्था’ का डंडा दिखाकर शांत जरूर कर दिया जाता है लेकिन कहीं ना कहीं इस ‘जाति आधारित’ व्यवस्था के प्रति गुस्सा भीतर ही भीतर बहता रहता है । आप इसे किसी चश्मे से देखते हुए इसे खारिज करें या जायज ठहराएं इससे पहले चंद सवाल खुद से जरूर पूछें कि जिस ‘वर्ण/जाति व्यवस्था’ के दोष ने समाज को बांटा,बड़ी क्षति पहुंचाई,जिस जाति सिस्टम ने शासन व्यवस्था और समाज में ऊँच-नीच,अगड़े-पिछड़े,सवर्ण-दलित जैसी घृणित वर्गों में बांटकर विकार बनाए रखा उस आधार पर ‘आरक्षण’ क्यों ? जिस जाति व्यवस्था के संघर्षों में पीढ़ियां चुक गईं उसे अब भी क्यों ढोया जा रहा है ? वो भी तब जबकि आज के जीवन का आधार,आज की व्यवस्था का आधार,आज की योजनाओं का आधार ‘अर्थ वर्ग’ / ‘Income Class’ हैं। दुनिया के सबसे मजबूत और बड़े लोकतंत्र में जहां सरकारों की हर योजना,विकास,समृद्धि का पैमाना जब आय है,आय वर्ग हैं तो फिर उसे आरक्षण का आधार बनाने से गुरेज क्यों ? जब खुद सरकार की खुद की आय का जरिया कर प्रणाली, उसकी ऋण योजनाओँ का आधार ‘आय वर्ग’ यानि ‘Income Class’ हैं तो फिर उसे आधार बनाने में भला क्या आपत्ति है ? बिना इस बहस में पड़े कि किसने ये व्यवस्था दी,किसके हित में रही,किसे ज्यादा राजनैतिक फुटेज मिला इससे इतर विकास का विजन रखने वाले तमाम दल आखिर इस पर डिबेट और विचार क्यों नहीं करते जबकि संविधान में वक्त और जरूरत के मुताबिक संशोधन का प्रावधान है तो फिर इस अहम विषय पर सुधार के लिए पहल क्यों नहीं, कम से कम चर्चा की शुरूआत क्यों नहीं ? आखिर ‘आरक्षण’ व्यवस्था का मूल मकसद तो वंचित को उसका अधिकार देने का ही है , तो फिर उस वंचित को जाति के दोगले पैमाने पर रखकर उसपर किसी जाति विशेष का टैग क्यों ? कोई वंचित…कोई जरूरतमंद किसी जाति के आधार पर लाभ का पात्र या अपात्र हो क्या ये सबके ‘समान अधिकार’ की मूल भावना के उलट नहीं है ? जबकि ये सबको पता है और विश्वास है कि आपको-मुझको,सिस्टम को, समाज को किसी को भी किसी वंचित की मदद करने में कोई गुरेज या आपत्ति नहीं है। पर अफसोस…इस जैसे असल मुद्दे को छोड़कर.. किसकी फोटो लगनी चाहिए,किसकी मूर्ति की पूजा होनी चाहिए,कौन कितनी देर बोल पाएगा इन मुद्दों पर मीडिया,देश और समाज का टाइम वेस्ट किया जा रहा…। वैसे ‘असल मुद्दे’ और भी हैं जैसे एक साथ चुनाव,एजुकेशन सिस्टम,स्वास्थ्य सेवाएं…पर इनमें शायद सियासी स्कोप और झूठ का ग्लैमर नहीं है जो आए दिन के ‘छद्म मुद्दों’ में होता है ।

पुनीत पाठक, असिस्टेंट एडिटर, IBC24