– सौरभ तिवारी,
डिप्टी एडिटर, IBC24
भाजपा के ‘कांग्रेसीकरण’ ने भाजपा के सम्मुख उन संकटों के संकेत देने शुरू कर दिए हैं, जो उसे भविष्य में उसी ठिकाने पर पहुंचा सकते हैं जहां आज कांग्रेस पहुंच चुकी है। कैसी बिडंबना है कि कांग्रेस को राष्ट्रीय परिदृष्य में हासिये पर पहुंचाने के लिए जो तमाम कारक जिम्मेदार रहे हैं, उन्हीं कारकों को भाजपा अपनी चुनावी रणनीति का हिस्सा बनाने के फेर में फंसी है। इस प्रयास में भाजपा अपने परंपरागत वोट बैंक को ‘फूफा बिरादरी’ में परिवर्तित करती जा रही है। इन ‘फूफाओं’ की मुंहफुलाई को हल्के में लेने का खामियाजा भाजपा को कुछ मौकों पर चुकाना भी पड़ा है। ये फूफा मध्यप्रदेश में ‘माई के लाल’ बनकर शिवराज मामा को सबक सिखा चुके हैं तो राजस्थान में ‘मोदी तुझसे बैर नहीं लेकिन वसुंधरा तेरी खैर नहीं’ का उद्घोष करके भाजपा को सत्ता से दूर कर चुके हैं। लेकिन जरा सोचिए कि अगर अगले लोकसभा चुनाव में यही फूफा कहीं मोदी से ही बैर कर बैठे तब…?
चलिए समझने की कोशिश करते हैं कि भाजपा को आगाह करने लायक ये परिस्थिति क्यों आन पड़ी? दरअसल भाजपा ये मान बैठी है कि हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर एक बड़ा वोट बैंक तो पहले से ही सधा हुआ है और अगर परंपरागत विरोधी माने जाने वाले मुस्लिम वोटबैंक को भी थोड़ा-बहुत ही साध लिया जाए तो ये समीकरण बहुमत की गारंटी बन जाएगा। इस कठिन लक्ष्य को साधने की शुरुआत 2014 में सत्ता संभालने के साथ ही ‘सबका साथ-सबका विकास’ के लुभावने नारे के साथ हो चुकी थी। लक्षित वर्ग का भरोसा और पुख्ता बनाने के लिए बाद में नारे का विस्तार करते हुए ‘सबका विश्वास’ भी जोड़ दिया गया। साथ, विकास और विश्वास में कोई कमी नजर ना आए तो ‘अब्बास’ से बचपन की मित्रता का भी हवाला तक दे दिया गया।
भाजपा की लोकसभा चुनाव की पिछली जीत में लाभार्थी वोटबैंक का बड़ा हाथ था। इस लाभार्थी वोट बैंक ने जाति, धर्म की दीवारों को तोड़कर एकतरफा भाजपा के पक्ष में वोटिंग की थी। वोटरों के मिजाज में आए इस बदलाव से उत्साहित भाजपा अब अपने इस वोट बैंक के विस्तार में जुट चुकी है। इस कोशिश में आमादा भाजपा पसमांदा वर्ग पर डोरे डाल रही है। सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के जरिए पसमांदाओं को अपने साथ जोड़ने के लिए ‘मोदी मित्र’ अपनी मुहिम पर निकलने वाले हैं। मुहिम को मजबूत बनाने के लिए भाजपा की मातृ संस्था के मुखिया मोहन भागवत पहले ही सबका डीएनए एक बता चुके हैं।
लेकिन भाजपा की ये कोशिश उसके कट्टर समर्थक वर्ग को रास नहीं आ रही है। ये वो वर्ग है जो पिछले लोकसभा चुनाव तक ‘भक्त’ का तमगा लगने की तोहमत सहने के बावजूद अपने स्तर पर भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने में जुटा था। सोशल मीडिया के जरिए माहौल बनाने में इन ‘भक्तों’ की निर्णायक भूमिका थी। ये वो लोग थे जो ‘आएगा तो मोदी ही’ का दावा करते हुए फैमली और फ्रैंड्स के वाट्सअप ग्रुप और आपसी बतकहाव में अपने सगे संबंधियों और मित्रों से उलझ जाते थे। लेकिन इधर जब इन भक्तों को बदले-बदले से उनके सरकार नजर आने लगे तो उन्होंने भी मन मसोस कर अपने मिजाज बदल लिए हैं। मिजाज में आई इस तब्दीली को सोशल मीडिया में परिलक्षित होते महसूसा जा सकता है। कुछ पूर्व भक्तों ने सोशल मीडिया में अपनी सक्रियता कम कर दी है तो कुछ इसके उलट सबक सिखाने की मुहिम में जुट चुके हैं। ये नहीं भूलना चाहिए कि मौजूदा समय में जनमत और माहौल बनाने की असली लड़ाई सोशल मीडिया पर आकर सिमट गई है। ऐसे में अगर विपक्ष अपने सोशल मीडिया इनफ्लूंएसर्स के जरिए भाजपा के समर्थकों में सुलग रही फूफाबाजी की आग को भड़काने में कामयाब हो गई तो ये नाराजगी भाजपा को भारी पड़ सकती है।
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दरअसल सबको साधने के फेर में फंसी भाजपा इस लोकोक्ति को बिसरा बैठी है कि एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाए। कभी सबको साधने की यही गलती कांग्रेस ने भी की थी। कांग्रेस ने ‘तुष्टिकरण’ के चक्कर में अपना वोट बैंक खोया तो भाजपा ‘तृप्तिकरण’ के फेर में अपने कोर वोटबैंक की नाराजगी मोल लेने की नासमझी कर रही है। कांग्रेस जिनके तुष्टिकरण के लिए बदनाम हुई, उन्होंने कालान्तर में अलग-अलग प्रदेशों में अपने अलग-अलग रहनुमा तलाश लिए। हुआ ये कि ना खुदा ही मिला ना विसाल-ए-सनम। ‘तृप्तिकरण’ का परिणाम भी भाजपा के लिए कांग्रेस सरीखा ही होना है। भाजपा के फूफाओं की पीड़ा भी तो यही है कि अपनों की नाराजगी मोल लेकर जिनके तृप्तिकरण की कोशिश की जा रही है वो ना कभी भाजपा के हुए थे और ना कभी होंगे। इस दावे की तस्दीक करने के लिए अल्पसंख्यकों की बहुलता वाले इलाकों में भाजपा उम्मीदवारों को मिले वोटों का हवाला दिया जाता है।
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की चौसर में बाजी मारने के लिए चली जाने वाली चालों को अंतिम रूप देने में पार्टियां जुट चुकी हैं। चुनावी चौसर में वोटों की सेंधमारी निर्णायक चाल साबित होती है। सेंधमारी को दो तरीके से अंजाम दिया जाता है, पहला भड़का कर और दूसरा लुभा कर। भाजपा के कोर वोटबैंक को लुभाने के लिए साफ्ट हिंदुत्व की आजमाइश है तो भड़काने के लिए भाजपा में हालिया पनपे मुस्लिम प्रेम की नुमाइश है। अपने कोर वोट बैंक को विपक्ष की भड़काऊ सेंधमारी से बचाए रख पाना ही भाजपा के लिए असली चुनौती साबित होने वाला है। दरअसल एक साथ दो विपरीत ध्रुवों को साधते हुए संतुलन बनाए रख पाने की नटबाजी इतनी आसान नहीं है। अब देखना है कि भाजपा अपने साध्य को हासिल करने के लिए इस संतुलन को कितना साध पाती है?