बिहार में सामने आया जातिगत जनगणना के नतीजों का असर सिर्फ़ बिहार तक सीमित नहीं रहने वाला है। (Bihar Mein Jatigat Janganana) बहुत जल्द और संभवत: अगले साल की शुरुआत में होने वाले आम चुनाव में भी ये बड़ा मुद्दा बनने जा रहा है, जिसके पीछे नीतीश कुमार का चेहरा सबसे ज़्यादा उभर कर सामने आया है। जिस तरह मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद भारतीय राजनीति में बड़ा बदलाव आया था, ठीक उसी तरह के बदलाव की बुनियाद बन सकती है ये जातिगत जनगणना रिपोर्ट, जिसे पिछड़ा वर्ग की राजनीति की एक नई शुरुआत के तौर पर देखा जा सकता है।
बिहार में जो जातिगत जनगणना रिपोर्ट सार्वजनिक की गई है, उसके आंकड़ों के मुताबिक यहां 81.99 फीसदी हिंदू आबादी है, जबकि मुस्लिम आबादी 17.7 फीसदी है। अब हिंदू आबादी की बात करें तो इनमें अत्यंत पिछड़ा वर्ग 36.1 फीसदी है, जबकि पिछड़ा वर्ग 27.1 फीसदी। इस तरह पिछड़ा और अति पिछड़ा मिलकर कुल आबादी के कुल 63.2 फीसदी हैं। पिछड़ों में सबसे बड़ी आबादी यादव की है, जो 14 फीसदी हैं। इनके बाद दूसरे नंबर पर हैं अनुसूचित जाति यानी SC, जिनकी आबादी 19.65 फीसदी है, जबकि अनुसूचित जनजाति यानी ST 1.68 फीसदी हैं। दोनों मिलाकर एससी-एसटी आबादी 21.33 फीसदी हैं।
अनारक्षित वर्ग की बात करें तो ये 15.52 फीसदी हैं, जिनमें ब्राह्मण 3.66 फीसदी, राजपूत 3.45 फीसदी और भूमिहार 2.86 फीसदी हैं। यानी सभी सवर्ण जातियों की कुल आबादी पिछड़ों में सिर्फ एक जाति यादव से सिर्फ़ 1.5 फीसदी ही ज्यादा है।
जातीय जनगणना जारी के पीछे नीतीश कुमार की क्या मंशा?
अब सवाल ये है कि आख़िर इस जातीय जनगणना को सार्वजनिक करने के पीछे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मंशा क्या है? दरअसल बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण की बड़ी भूमिका मानी जाती है। लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के नेतृत्व में 15 साल राजद सरकार चली तो इसके पीछे माय यानी मुस्लिम और यादव गठजोड़ का साथ मुख्य कारक था। मुस्लिम 17 फीसदी और यादव 14 फीसदी मिलकर 31 फीसदी वोट बैंक होते हैं। दूसरी ओर, नीतीश कुमार जिस कुर्मी जाति से आते हैं, उसकी आबादी सिर्फ 2.87 फीसदी है। यही वो जातीय समीकरण है, जिसने नीतीश कुमार को हमेशा से कोई ना कोई मज़बूत गठबंधन सहयोगी पर निर्भरता बनाए रखने पर मज़बूर कर रखा है। अपना जनाधार बढ़ाने के लिए नीतीश कुमार बिहार में कर्पूरी फॉर्मूले की वकालत करते रहे हैं, जिसमें 1978 में तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने आबादी के हिसाब से आरक्षण लागू करते हुए 12 फीसदी अति पिछड़ों को और 8 फीसदी पिछड़ों को आरक्षण लाभ देने का प्रावधान किया था। पहली बार देश में कोटा के भीतर कोटा का ये फॉर्मूला तभी सामने आया था। नीतीश कुमार इसी फॉर्मूला को आगे बढ़ाते हुए 50 फीसदी से ज़्यादा आरक्षण की मांग करते रहे हैं और उनकी यही मंशा है कि इसी मांग को लेकर ना सिर्फ बिहार बल्कि दूसरे राज्यों में भी जाकर पिछड़ों के लिए ज़्यादा आरक्षण की मांग बुलंद करें। सुप्रीम कोर्ट ने 50 फीसदी की उच्चतम सीमा तय कर रखी है क्योंकि इस सीमा को खत्म करने का कोई ठोस आधार अभी तक नहीं था। अब बिहार सरकार ने जब अपने राज्य की जातिगत जनगणना रिपोर्ट जारी कर दी है तो इसे चुनौती देने का ठोस आधार तैयार हो चुका है।
बिहार की जातिगत जनगणना का राष्ट्रीय राजनीति पर क्या असर?
बिहार हमेशा से राष्ट्रीय राजनीति की प्रयोगशाला रहा है, जिसने बड़े बदलावों की बुनियाद रखी है। महात्मा गांधी के नेतृत्व में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत चंपारण सत्याग्रह से हुई तो थी तो इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के ख़िलाफ़ संपूर्ण क्रांति का बिगुल भी पटना से लोकनायक जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में ही फूंका गया था। 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाले बीजेपी के विजयरथ का पहिया भी बिहार में जाकर थम गया था, जब 2015 में बीजेपी महज 53 सीटों पर सिमट गई थी।
अब एक बार फिर जातीय जनगणना रिपोर्ट राष्ट्रीय राजनीति में एक अहम मुद्दा बनकर सामने आ रही है। जेडीयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने रिपोर्ट जारी होने के फौरन बाद जिस तरह से नीतीश कुमार को कर्पूरी ठाकुर और मंडल सिफारिश लागू करने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह के नाम के साथ जोड़ा है, उससे इसके साफ संकेत भी मिल रहे हैं। अब खुद पिछड़े वर्ग से आने वाले नीतीश कुमार ये मुद्दा बनाएंगे कि आबादी के हिसाब से पिछड़ों-अति पिछड़ों को उनका हक मिलना चाहिए। दूसरे शब्दों में बिहार में अगर 63 फीसदी आबादी पिछड़ों और अति पिछड़ों की है तो उन्हें उसी अनुपात में आरक्षण भी मिलना चाहिए। राजनीतिक रूप से देखें तो चुनावों में भी ये मांग शामिल हो सकती है, जिसके बाद सवर्णों यानी अनारक्षितों 15 फीसदी पर ही सिमटना पड़ सकता है।
देश के ज्यादातर राज्यों में सबसे बड़ी आबादी पिछड़ों और अति पिछड़ों की ही है, इसलिए इस वोटबैंक को लुभाने के लिए ये मांग कारगर हो सकती है। नीतीश कुमार इसे लेकर देश में माहौल बनाने के दौरे पर निकल सकते हैं और अपने लिए ना सिर्फ बिहार बल्कि दूसरे राज्यों में भी एक जनाधार बनाने की कोशिश करेंगे।
I.N.D.I.A. के लिए ये तुरूप का पत्ता साबित हो सकता है क्योंकि आमतौर पर सवर्णों को बीजेपी का वोटबैंक माना जाता है ऐसे में पिछड़े नेताओं को आगे करके विपक्षी गठबंधन आबादी के हिसाब से आरक्षण की वकालत कर OBC को साधने में पूरा ज़ोर लगा सकता है। पटना में रिपोर्ट जारी हुई और मध्यप्रदेश के ग्वालियर दौरे पर आए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह से कांग्रेस पर हमला बोला कि पहले भी ये जाति में बांटती थी और अभी भी बांट रही है, उसी से ये साफ हो जाता है कि ये जातीय जनगणना अब बिहार तक नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में भी आ चुका है। हाल के दिनों में कांग्रेस के सभी प्रमुख नेताओं ने इसे उठाया है और जेडीयू नेता नीतीश कुमार अब इस नई राजनीति के नए चेहरे के रूप में उभर कर सामने आए हैं।