बतंगड़ः केजरीवाल की ‘आतिशी पारी’ क्या बचा पाएगी फॉलोऑन

Will Kejriwal's 'atishi innings' save the follow-on? 'आपदा को अवसर' में बदलने की जिस रणनीति पर अब तक नरेंद्र मोदी की भाजपा अपना पेटेंट होने का दावा करती थी, उसका अपने हित में इस्तेमाल करके अरविंद केजरीवाल ने वाकई कमाल की चाल चली है।

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  • Publish Date - September 18, 2024 / 04:56 PM IST,
    Updated On - September 18, 2024 / 04:56 PM IST

-सौरभ तिवारी

भारत के राजनीतिक इतिहास में मजबूरी में कुर्सी छोड़ने के बाद खुद को त्याग की मूर्ति के रूप में प्रतिस्थापित करने की कोशिश करने के अनेकानेक उदाहरण हैं। इसी कड़ी में एक नये त्यागी पुरुष का अवतार हुआ है। नाम तो सुना ही होगा- अरविंद केजरीवाल। जी हां! वही केजरीवाल जो अपनी शातिर या सियासी सभ्यता के लिहाज से कहें तो कूटनीतिक चालों से अपने विरोधियों को अक्सर चौंकाते रहे हैं। इस बार भी उन्होंने अपने इस्तीफे का ऐलान करके भाजपा समेत दूसरे दलों को चौंका दिया है। ‘आपदा को अवसर’ में बदलने की जिस रणनीति पर अब तक नरेंद्र मोदी की भाजपा अपना पेटेंट होने का दावा करती थी, उसका अपने हित में इस्तेमाल करके अरविंद केजरीवाल ने वाकई कमाल की चाल चली है।

विगत कुछ चुनावी नतीजों से ये बात प्रमाणित हो चुकी है कि मौजूदा दौर की पॉलिटिक्स में परफारमेंस से कहीं ज्यादा परसेप्सन की अहमियत बढ़ गई है। अरविंद केजरीवाल ने भी अपने इस्तीफे के जरिए परसेप्सन के मोर्चे पर खुद को मजबूत करने की कोशिश की है। शराब नीति को लेकर चल रही जांच कार्रवाई और अदालती कार्यवाही ने इस परसेप्शन को मजबूत किया है कि कभी ‘भ्रष्टाचार का एक ही काल’ माने जाने वाले केजरीवाल की दाल में जरूर कुछ ना कुछ काला है। केजरीवाल ने ये इस्तीफा अपनी दाल में आई परसेप्सन की उसी कालिमा को हटाने की पैंतरेबाजी के तहत दिया है।

दागी होने और जेल जाने के बावजूद राजनीतिक नैतिकता और सियासी शुचिता को दरकिनार करके अपनी कुर्सी से चिपके रहने की जिद से अपनी साख को हुए नुकसान की भरपाई के लिए ही उन्होंने अपना ये ‘आतिशी’ दांव चला है। वैसे भी केजरीवाल ने आतिशी के जीतमराम माझी, चंपई सोरेन या बाबू लाल गौर बनने की सारी आशंकाओं और गुंजाइश पर विचार करने के बाद ही ये फैसला लिया है।

सुप्रीम कोर्ट की ओर से जमानत की ऐवज में लादी गई शर्तों ने केजरीवाल को तो वैसे भी ‘डमी सीएम’ बना दिया था। लिहाजा उन्होंने अपना डमी सीएम बनाकर कई मकसदों को साध लिया है। केजरीवाल ने इस्तीफा देकर खुद को कुर्सीलोलुप होने के तोहमत से बरी करने के अलावा अगले महीनों में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए भी मुक्त करा लिया है।

अरविंद केजरीवाल की राष्ट्रीय राजनीति में प्रभुत्व स्थापित करने की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और आतुरता किसी से छिपी नहीं है। आतुरता तो इतनी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रतिद्वंद्वी के तौर पर खुद को स्थापित करने के लिए उनके खिलाफ बनारस से चुनाव लड़ने की नासमझी तक कर बैठे हैं।

लेकिन तब से लेकर अब तक केजरीवाल की सियासी तौरतरीके में काफी घाघपन आ चुका है। पांच महीने बाद दिल्ली में होने वाला विधानसभा चुनाव उनके इसी घाघपन के परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। खुद के खिलाफ हो रही कार्रवाई और जेलयात्रा के खिलाफ चले गए विक्टिम कार्ड के लोकसभा चुनाव में फेल हो जाने के बाद अब उनके सामने असली चुनौती विधानसभा चुनाव में साबित करने की है। ये बात केजरीवाल एंड कंपनी को भलीभांति पता है दिल्ली के विधानसभा चुनाव के नतीजे आम आदमी पार्टी के सियासी वजूद के लिहाज से जीवन-मरण साबित होने वाले हैं। अपने इसी वजूद को बचाने की कोशिश के तहत केजरीवाल ने अब खुद को जनता की अदालत में पाक-साफ साबित करने का सियासी पांसा फेंका है। केजरीवाल का ये दांव सियासी भंवर में फंसी उनकी नाव को पार लगाएगा या डुबाएगा, इसी से आम आदमी पार्टी के भविष्य का निर्धारण होना है।

लेकिन केजरीवाल के मंसूबों की पहली परीक्षा तो दिल्ली से पहले हरियाणा में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में हो जानी है। हरियाणा केजरीवाल का गृह राज्य है। कांग्रेस से टिकटों की सौदेबाजी नहीं हो पाने के बाद आम आदमी पार्टी ने सभी 90 सीटों पर अपने बलबूते चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। तमाम क्षेत्रीय दलों की मौजूदगी में हरियाणा में होने वाले बहुकोणीय चुनाव में आम आदमी पार्टी का परफारमेंस दिल्ली के अलावा राष्ट्रीय राजनीति में आम आदमी पार्टी की संभावनाओं के लिहाज से काफी अहम साबित होने वाला है।

दिल्ली से पहले महाराष्ट्र और झारखंड में भी विधानसभा चुनाव होने हैं। हालांकि इन दोनों राज्यों में आम आदमी पार्टी की हैसियत मामूली है लेकिन ये बात नहीं भूलनी चाहिए कि एक नेता के तौर पर अरविंद केजरीवाल की राष्ट्रीय अपील है। अगर इन दोनों राज्यों में इंडिया गठबंधन ने केजरीवाल का इस्तेमाल प्रमुख भाजपा विरोधी नेता के तौर पर करने की समझदारी दिखाई तो ये गठबंधन के लिए काफी फायदेमंद साबित हो सकता है। केजरीवाल की इस उपयोगिता के चलते महाराष्ट्र और झारखंड में आम आदमी पार्टी के हिस्से में गठबंधन की कुछ सीटें आ सकती हैं।

कुल मिलाकर अगले आने वाले छह माह आम आदमी पार्टी के राजनीतिक अस्तित्व के लिहाज से काफी अहम साबित होने वाले हैं। देखना है कि विपरीत राजनीतिक परिस्थितियों में सियासत के पिच पर खेली गई अरविंद केजरीवाल की ये ‘आतिशी पारी’ उन्हें फॉलोऑन खेलने से बचा पाती है या नहीं।

– लेखक IBC24 में डिप्टी एडिटर हैं।