-सौरभ तिवारी
#Batangad: कांग्रेस ने अपने सबसे बड़े चेहरे राहुल गांधी को इस बार अमेठी की बजाए रायबरेली से आजमाया है। वहीं अमेठी में गांधी परिवार से जुड़े के एल शर्मा को टिकट दी गई है। इन दोनों सीटों पर उम्मीदवारों के नाम का ऐलान होने के बाद ‘कौन’ से जुड़ा सवाल तो खत्म हो गया लेकिन अब नया सवाल ‘क्यों’ का खड़ा हो गया है। यानी कांग्रेस ने ये फैसला ‘क्यों’ लिया? पिछली बार अमेठी से हारने वाले राहुल को कांग्रेस ने अमेठी से दोबारा मैदान में ‘क्यों’ नहीं उतारा? एक ‘क्यों’ का सवाल ये भी पूछा जा रहा है कि आखिर सारी कयासबाजी को दरकिनार करते हुए प्रियंका गांधी को रायबरेली से सोनिया गांधी के उत्तराधिकारी के तौर पर ‘क्यों’ मौका नहीं दिया गया? कुल मिलाकर ‘कौन’ को लेकर अटकलबाजी तो थम गई लेकिन इन तमाम ‘क्यों’ को लेकर बयानबाजी शुरू हो गई है। बयानबाजी की इसी कड़ी में प्रधानमंत्री मोदी ने राहुल पर वो तंज कसते हुए कहा है कि, ‘मैंने पहले ही ये भी बता दिया था कि शहजादे वायनाड में हार के डर से अपने लिए दूसरी सीट खोज रहे हैं। अब इन्हें अमेठी से भागकर रायबरेली सीट चुननी पड़ी है। ये लोग घूम-घूम कर सबको कहते हैं – डरो मत! मैं भी इन्हें यही कहूंगा- डरो मत! भागो मत!’
पॉलिटिक्स में परसेप्शन की काफी अहमियत होती है। भाजपा की तो इसमें महारथ हासिल है। राहुल गांधी के अमेठी की बजाए रायबरेली से नामांकन भरने के बाद अब भाजपा नया परसेप्शन और नैरेटिव गढ़ने की कोशिश में जुट भी गई है। कोशिश राहुल गांधी को भगोड़ा और डरपोक साबित करने की है। प्रधानमंत्री मोदी समेत दूसरे तमाम नेताओं की ओर से दिए जा रहे बयान भाजपा के इसी कवायद की गवाही दे रहे हैं। अमित शाह ने रायबरेली से राहुल के नामांनक भरने को उनकी 21वीं लॉन्चिंग करार देते हुए इस बार भी इसके फेल होने की भविष्यवाणी कर दी है। वहीं राहुल की अमेठी की परंपरागत प्रतिद्वंद्वी रहीं केंद्रीय मंत्री स्मृति इरानी समेत तमाम भाजपा नेताओं ने राहुल को रणछोड़दास करार देते हुए चौतरफा हमला बोल दिया है। भाजपा की कोशिश ये नैरेटिव गढ़ने की है कि जो नेता अपने कार्यकर्ताओं को ‘बब्बर शेर’ बताकर उन्हें ‘डरो मत’ का संदेश देता है वो खुद अपनी परंपरागत सीट अमेठी से लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
राहुल गांधी के वायनाड़ के बाद अब रायबरेली से भी चुनाव मैदान में उतरने के फैसले ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस भविष्यवाणी को सच साबित कर दिया है जो उन्होंने प्रचार अभियान के दौरान की थी। प्रधानमंत्री मोदी ने तंज कसते हुए कहा था कि,’ शहजादे वायनाड़ में हार रहे हैं और इसीलिए उनके लिए कोई दूसरी सुरक्षित सीट भी तलाशी जा रही है।’ वैसे देखा जाए तो रायबरेली से ज्यादा सुरक्षित सीट भला राहुल गांधी के लिए कौन सी हो सकती थी। रायबरेली गांधी परिवार की परंपरागत सीट रही है। 1952 के चुनाव में फिरोज गांधी को मिली जीत से शुरू हुआ ये सिलसिला पिछले चुनाव में सोनिया गांधी तक जारी रहा है। रायबरेली में कांग्रेस केवल तीन बार ही हारी है। रायबरेली में गांधी परिवार की पकड़ इसी बात से समझी जा सकती है कि पिछले लोकसभा चुनाव में पूरे उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के सफाया होने के बावजूद रायबरेली ही एकमात्र वो सीट थी जहां से सोनिया गांधी के रूप में कांग्रेस के हिस्से में एक सीट आई थी।
लेकिन भाजपा दावा कर रही है कि इस बार रायबरेली में गांधी परिवार की दाल नहीं गलने वाली। वैसे पिछले नतीजों के आंकड़े कांग्रेस को भाजपा के इस दावे को हल्के में नहीं लेने के लिए आगाह कर भी रहे हैं। बेशक सोनिया गांधी यहां सन 2004 से लगातार जीतती आ रहीं हैं, लेकिन पिछले दो चुनावों से उनकी जीत का अंतर कम होता गया है। 2014 के चुनाव में सोनिया गांधी को 63.8 फीसदी वोट मिले थे जो उससे पहले 2009 में हुए चुनाव में वोटों से 8.43 फीसदी कम थे। वोटों में ये गिरावट अगले चुनाव में भी जारी रही और 2019 में सोनिया गांधी का वोट परसेंट गिरकर 55.8 फीसदी हो गया। कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी ये है कि जहां उसके वोटों में चुनाव दर चुनाव की गिरावट आ रही है वहीं भाजपा के वोटों में बढ़ोतरी हो रही है। 2014 में भाजपा उम्मीदवार अजय अग्रवाल को 21.05 फीसदी वोट मिले थे जबकि 2019 में भाजपा उम्मीदवार दिनेश प्रताप सिंह को 38.36 फीसदी वोट मिले। यानी पिछले दो चुनाव से भाजपा तकरीबन 18 फीसदी की बढ़ोतरी के साथ आगे बढ़ रही है। रायबरेली लोकसभा के अंतर्गत आने वाली विधानसभाओं में पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजे भी कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी बजा रहे हैं। रायबरेली लोकसभा क्षेत्र अंतर्गत आने वाली 5 विधानसभाओं में से 4 में सपा का कब्जा है जबकि रायबरेली विधानसभा से भाजपा की अदिति सिंह ने जीत हासिल की है।
आंकड़ों और परिस्थितियों की इसी उधेड़बुन के चलते कांग्रेस ने रायबरेली से गांधी परिवार के किसी सदस्य का नाम घोषित करने के लिए नामांकन दाखिले के ऐन आखिरी दिन तक का वक्त लिया। और शायद रायबरेली में जीत की संभावना में चुनाव दर चुनाव हो रही कटौती के चलते ही सोनिया गांधी ने संसद में राज्यसभा के जरिए पिछले दरवाजे से इंट्री लेने की समझदारी दिखाई। तो ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सशंकित सियासी माहौल के बावजूद राहुल गांधी के रायबरेली से चुनाव लड़ने के फैसले को उनके हिम्मती मिजाज की बानगी माना जाना चाहिए? जरूर माना जाता अगर वे अमेठी से ही दोबारा चुनाव लड़ते। लेकिन अमेठी की बजाए रायबरेली को चुनकर उन्होंने भाजपा को ये हमला करने का मौका तो दे ही दिया है कि वे वायनाड़ हार रहे हैं, इसीलिए विकल्प के तौर पर उन्होंने रायबरेली से भी हाथ आजमाने का फैसला लिया है।
बहरहाल राहुल गांधी ने भले अमेठी से दूरी बना ली हो, लेकिन अब रायबरेली जीतना उनके लिए बेहद जरूरी हो गया है। अब सारा दरोमदार राहुल गांधी पर है कि वे उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के आखिरी गढ़ को बचाने के लिए कितना जोर लगा पाते हैं। रायबरेली का नतीजा ना केवल कांग्रेस बल्कि खुद राहुल गांधी के सियासी भविष्य और साख के लिए किसी कसौटी से कम नहीं है। अब देखना है कि राहुल गांधी इस कसौटी पर कितना खरा उतर पाते हैं।
– लेखक IBC24 में डिप्टी एडिटर हैं।
बतंगड़ः हम दो, हमारे कितने….?
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