-सौरभ तिवारी
Batangad: कहां तो दावा था, अबकी पार 400 पार का और कहां 300 पार के भी लाले पड़ गए। कहां तो भाजपा का दावा था खुद अपने बलबूते 370 सीटें हासिल करने का और कहां वो बहुमत के आंकड़े 272 से भी काफी पीछे छूट गई। नतीजे बता रहे हैं कि भाजपा की अबकी बार बस नैया पार हुई है। हालांकि भाजपा अपने गठबंधन के साथियों की बदौलत बहुमत के जादुई आंकड़े को पार करने में सफल हो सकी है।
नरेंद्र मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनकर पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की बराबरी करके इतिहास तो रच देंगे, लेकिन उनके मन में ये कसक रह जाएगी कि वे इस बार पूर्ण बहुमत की सरकार के नहीं बल्कि गठबंधन सरकार के मुखिया हैं। विपक्षी नेता तो इस चुनाव परिणाम के जरिए मोदी मैजिक को फ्लॉप साबित करने में जुट भी गए हैं। विपक्षी दल के नेता जिन दलीलों के जरिए ब्रॉन्ड मोदी पर सवाल उठा रहे हैं, उसकी विवेचना करना लाजिमी होगा।
सवाल उठता है कि आखिर एग्जिट पोल्स के अनुमानों के विपरीत आखिर बॉन्ड मोदी अपना जादू चलाने में नाकाम क्यों रहा। इसकी तहकीकात करने से मालूम पड़ता है कि भाजपा को अपने बलबूते बहुमत के आंकड़े से दूर रखने में उसी उत्तरप्रदेश का हाथ रहा, जहां से होकर दिल्ली की सत्ता का रास्ता जाता है। 80 लोकसभा सीट वाले उत्तरप्रदेश से भाजपा को इस बार पिछली बार से करीब आधी सीटें ही मिलीं। भाजपा को उत्तरप्रदेश में इस बार जितनी सीटें कम मिली हैं, लगभग उतनी ही सीटें उसको पूर्ण बहुमत तक पहुंचने में कम पड़ गई हैं। यानी अगर भाजपा उत्तरप्रदेश में अपना पुराना प्रदर्शन दोहरा देती तो वो अपने बलबूते ही पूर्ण बहुमत तक पहुंच जाती। दिलचस्प बात ये है कि ये वही उत्तरप्रदेश है जहां के अयोध्या में प्रभु राम के मंदिर निर्माण का श्रेय लेकर भाजपा पूरे देश में अपने पक्ष में माहौल बनने की उम्मीद पाले बैठी थी। लेकिन भाजपा के लिए इससे ज्यादा निराशाजनक बात भला क्या होगी कि खुद अयोध्या की फैजाबाद लोकसभा सीट के मतदाताओं ने ही उसे वोट देना जरूरी नहीं समझा।
Batangad: उत्तरप्रदेश के अलावा हिंदी हार्टलैंड के राज्य राजस्थान और हरियाणा में भी भाजपा की पिछली सीटों में कटौती हो गई। इन राज्यों में हुई सीटों की एकमुश्त कटौती ने भाजपा को बहुमत के आंकड़े से दूर रखने से बड़ी भूमिका निभाई। सियासी पंडित हिंदी हार्टलैंड में होने वाले इस नुकसान की भरपाई पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और दक्षिण से कर रहे थे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। उड़ीसा ने तो खैर भाजपा का मान रख लिया लेकिन पश्चिम बंगाल ने भाजपा की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। दक्षिणी राज्यों से इस दफा प्रधानमंत्री मोदी को काफी उम्मीद थी। उन्होंने दक्षिणी राज्यों में मेहनत भी काफी करी थी। कर्नाटक और तेलंगाना से तो जरूर आशा के अनुरूप सीटें मिलीं लेकिन तमिलनाडू से भाजपा के हाथ कुछ नहीं लगा। महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी में की गई तोड़फोड़ भी वैसा नतीजा नहीं दे सकी, जैसी उम्मीद की जा रही थी।
बीजेपी के आशा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाने के पीछे विपक्षी गठबंधन की ओर से गढ़े गए नैरेटिव की काट नहीं ढूंढ पाना भी माना जा रहा है। विपक्षी गठबंधन अपने प्रचार अभियान में प्रधानमंत्री मोदी को तानाशाह निरूपित करते हुए लगातार ये प्रचारित करने में जुटा रहा कि अगर एनडीए को 400 सीट मिल गई तो भाजपा आरक्षण खत्म करने के साथ ही संविधान भी बदल डालेगी। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने एससी, एसटी और ओबीसी के आरक्षण के अलावा संपत्ति को मुसलमानों में बांट देने जैसे आरोपों के जरिए विपक्षी नैरेटिव को न्यूट्रलाइज करने की कोशिश की, लेकिन लगता है कि उनकी ये कोशिश भाजपा के वोटों के विभाजन को रोक नहीं सकी। इसके अलावा कांग्रेस की पहली नौकरी पक्की और महालक्ष्मी योजना के जरिए खाते में खट्टाखट रुपए भेजने की काट भी ढूंढ पाने में भाजपा नाकाम रही।
Batangad: चुनावों में नारों की जीत-हार में निर्णायक भूमिका होती है। 2014 में ‘अबकी बार- मोदी सरकार’ और 2019 में ‘एक बार फिर मोदी सरकार’ के नारे ने कमाल दिखाया था लेकिन लगता है कि ‘अबकी बार 400 पार’ का नारा बैकफायर कर गया। प्रधानमंत्री मोदी की ओर से अबकी बार 400 पार कर जाने के दावे से लगता है कि भाजपा का मतदाता कुछ ज्यादा ही कॉन्फिडेंस का शिकार हो गया और इस भरी गरमी में वोट डालने मतदान केंद्र तक जाना जरूरी नहीं समझा। इसका अहसास प्रधानमंत्री मोदी को पहले दो चरणों के मतदान में आई गिरावट के बाद लग भी गया था। आशंका को भांपते हुए वो अपने कोर वोटर को घर से निकालने के लिए चुनावी कैंपेन को हिंदू-मुस्लिम ट्रैक पर भी लाए लेकिन लगता है कि ध्रुवीकरण की ये कोशिश भी बैकफायर कर गई। दूसरे समुदाय ने तो अपना वोट विपक्षी गठबंधन को ट्रांसफर कर दिया लेकिन इसके उलट भाजपा के परंपरागत वोटरों के साथ ऐसा नहीं हो सका।
बहरहाल कारण चाहे जो भी रहा हो लेकिन सच्चाई यही है कि एनडीए गठबंधन का विजय रथ 400 के आंकड़े से काफी पहले ही जाकर रुक गया। इस रथ के सारथी चूंकि प्रधानमंत्री मोदी थे, और उन्होंने ही पिछली दो बार भाजपा को बहुमत के पार कराया था, लिहाजा पिछली दो सफलताओं का श्रेय उनके हिस्से में आने के बाद इस बार पूर्ण सफलता में रह गई कसक का दंश भी उनके हिस्से में आना लाजिमी है। लेकिन नतीजे का दूसरा पहलु ये भी है कि अगर भाजपा ने ये चुनावी महासमर नरेंद्र मोदी के सेनापतित्व के बगैर लड़ा होता तो शायद परिणाम और भी बुरा होता।