बतंगड़ः 'एक देश-एक चुनाव', मोदी सरकार का नया दांव |

बतंगड़ः ‘एक देश-एक चुनाव’, मोदी सरकार का नया दांव

बतंगड़ः 'एक देश-एक चुनाव', मोदी सरकार का नया दांव | Batangad: 'One country-one election', new bet of Modi government

Edited By :   Modified Date:  September 4, 2023 / 03:55 PM IST, Published Date : September 4, 2023/3:54 pm IST

सौरभ तिवारी, डिप्टी एडिटर, IBC24

सौरभ तिवारी, डिप्टी एडिटर, IBC24

एक पल के लिए जरा कल्पना कीजिए कि 2024 में लोकसभा चुनाव के साथ ही राज्यों के भी चुनाव हो रहे हैं। अब ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए बने I.N.D.I.A. के घटक दलों के बीच छिड़ने वाले घमासान की कल्पना कीजिए। संभावित परिस्थिति को समझने की सहूलियत के लिए अब आप अपनी सुविधानुसार गुजरात, पश्चिम बंगाल, पंजाब, केरल जैसे सियासी चरित्र वाला कोई एक राज्य ले लीजिए। आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं कि इन राज्यों में तब सियासी नजारा क्या होगा ? एक बारगी तो I.N.D.I.A. के घटक दल केंद्र से नरेंद्र मोदी की बेदखली के लिए एकजुट होकर सीट शेयरिंग को राजी हो भी जाएंगे लेकिन बात जब विधानसभा चुनाव की आएगी तो इन दलों के बीच बनी सहमति और एकता का क्या हश्र होगा इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है?

इस कल्पना से निर्मित होने वाली संभावित तस्वीर में ही ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ के कवायद की मंशा छिपी है। हो सकता है कि केंद्र सरकार ने I.N.D.I.A.के आइडिया और विजन को ध्वस्त करने के लिए ही ‘वन नेशन- वन इलेक्शन’ के रूप में ये बड़ा दांव चला हो। ‘एक देश-एक चुनाव’ के खिलाफ I.N.D.I.A.के नेताओं की प्रतिक्रिया बताती है कि तीर निशाने पर लगा है। लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष अधीर रंजन चौधरी का पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनाई गई समिति में शामिल होने से इंकार करना विपक्ष की इस आशंका का ही परिचायक है कि वो लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाने को अपने खिलाफ रची गई संवैधानिक साजिश मान रहा है।

विपक्ष भले देश में एक साथ चुनाव कराने से कतरा रहा है लेकिन देखा जाए तो ये कोई नई या अनोखी अवधारणा नहीं है। संविधान लागू होने के बाद के 16 साल तक लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ ही कराए जाते थे। हालांकि 1968 और 1969 में कुछ विधानसभाओं और फिर 1970 में लोकसभा भंग हो जाने के कारण एक साथ चुनाव कराए जाने का चक्र बाधित हो गया। 1983 में पहली बार एक साथ चुनाव की मांग उठी थी। चुनाव आयोग ने तब अपनी रिपोर्ट में लोकसभा और विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश की थी। हालांकि तब की इंदिरा गांधी सरकार ने इस रिपोर्ट पर ना कोई कार्रवाई की गई और न ही इसे आगे की चर्चा के लिए रखा। साल 1999 में भारत के लॉ कमीशन ने भी अपनी रिपोर्ट में चुनावी कानूनों में सुधार की बात कही थी। आगे चलकर नरेंद्र मोदी के शासनकाल के पहले टर्म में 2015 में संसद की स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में लोकसभा और विधानसभाओं में एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश की थी। नीति आयोग ने भी जनवरी 2017 में एक साथ चुनाव कराने के लिए एक वर्किंग पेपर तैयार किया था।

इन तमाम रिपोर्ट में एक साथ चुनाव कराने के पीछे के प्रमुख दलील यही थी कि एक साथ चुनाव कराए जाने से चुनावी प्रक्रिया में होने वाले भारी भरकम खर्च में कटौती की जा सकती है।
2019 के पिछले लोकसभा चुनाव की ही बात की जाए तो इस चुनाव में 60 हजार करोड़ रुपये खर्च किए गए थे। इस राशि में राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग द्वारा खर्च की गई ऑन रिकॉर्ड राशि ही शामिल है। इसके अलावा चुनावों में अप्रत्यक्ष रूप से काफी ब्लैक मनी अवैध तौर-तरीकों पर खर्च की जाती रही है। वहीं चुनाव से पहले लगने वाली आदर्श आचार संहिता की वजह से लोक कल्याण के लिए नई परियोजनाओं के शुरू होने पर प्रतिबंध लग जाता है। इसके अलावा, अलग-अलग समय पर चुनाव कराए जाने पर सरकारी मशीनरी अपना निर्धारित कामकाज छोड़कर चुनावी प्रक्रिया में उलझी रहती है। साथ ही बार-बार चुनाव का एक साइड इफेक्ट ये भी है कि सरकारें और राजनीतिक दल लगातार ‘प्रचार’ मोड में रहते हैं। ऐसे में पांच साल में एक साथ चुनाव कराए जाने पर सरकारें अगले चुनाव की चिंता किए बिना विकास पर ध्यान केंद्रित कर सकती हैं। यानी रेबड़ी कल्चर पर लगाम लगाई जा सकती है।

लेकिन ये सच्चाई है कि एक साथ चुनाव कराने के कई फायदे होने के बावजूद इसे आसानी से लागू करने की राह में कई चुनौतियां भी हैं। सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि इसके लिए राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को लोकसभा के साथ जोड़ने के लिए संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता होगी। इसके अलावा, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के साथ-साथ अन्य संसदीय प्रक्रियाओं में भी संशोधन करना पड़ेगा। सरकार के सामने संसद से दो तिहाई बहुमत से पारित कराने के अलावा आधे से ज्यादा राज्यों की विधानसभाओं से भी इसे पारित कराने की चुनौती है। हालांकि भाजपा की मौजूदा बहुमतीय ताकत को देखते हुए संविधानिक संशोधन कर पाना कोई बड़ी चुनौती नहीं रहेगी।

वैसे देखा जाए तो इन तकनीकी पहलू के अलावा सबसे बड़ी व्यवहारिक चुनौती क्षेत्रीय दलों को इसके लिए राजी करने की है। हालांकि सच्चाई ये भी है कि सरकार और विपक्ष के बीच के
मौजूदा कटु संबंधों को देखते हुए विपक्ष का किसी मुद्दे पर सरकार से सहमत होना और सरकार का विपक्ष की असहमति की परवाह करना दोनों मुमकिन दिखता नहीं है। दरअसल क्षेत्रीय दलों का सबसे बड़ा डर यही है कि विधानसभा के साथ ही लोकसभा चुनाव कराए जाने पर उनके क्षेत्रीय मुद्दों पर राष्ट्रीय मुद्दे हावी हो जाएंगे। और ऐसी स्थिति में जबकि भाजपा विधानसभा का चुनाव भी नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही लड़ रही हो तब विपक्ष के सामने चुनौती दोहरी हो जाएगी। भाजपा तो नरेंद्र मोदी के चेहरे के सहारे एक साथ दो चुनाव लड़ कर फायदा उठा ले जाएगी लेकिन असली समस्या तो विपक्षी दलों के सामने पेश आएगी। इसके साथ ही क्षेत्रीय दलों का एक डर ये भी है कि वे चुनाव खर्च और चुनाव रणनीति के मामले में राष्ट्रीय दलों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएंगे।

सरकार को विपक्ष की इस कमजोरी का भान है और इसीलिए उसने ‘एक देश-एक चुनाव’ की कवायद शुरू करके उसको दुविधा में डाल दिया है। सरकार के मास्टर स्ट्रोक को भांपने के लिए उसकी टाइमिंग पर गौर फरमाइए। केंद्र सरकार ने ठीक उसी दिन पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में कमेटी बनाने की घोषणा की थी जब मुंबई में विपक्षी दलों के गठबंधन इंडिया की तीसरी बैठक हो रही थी। इससे ठीक एक दिन पहले केंद्र सरकार ने बिना एजेंडा का खुलासा किए 18 से 22 सितंबर के बीच संसद का विशेष सत्र बुलाने का एलान करके विपक्ष को सस्पेंस में डाल दिया है। विपक्ष को रणनीति बनाकर उसे अंजाम तक पहुंचाने के पहले ही अपने किसी चौंकाने वाले फैसले से उसे उलझाने की रणनीति पर चलने वाली भाजपा ने एक और बिसात बिछा दी है।