Open Window by Barun Sakhajee: जो जरूरत का नहीं वह भी क्यों ढो रहे हो यार... |

Open Window by Barun Sakhajee: जो जरूरत का नहीं वह भी क्यों ढो रहे हो यार…

Edited By :   Modified Date:  November 28, 2022 / 10:42 PM IST, Published Date : May 22, 2022/7:18 pm IST

Barun Sakhajee

Barun Sakhajee

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-बरुण सखाजी

सुबह दफ्तर के लिए निकलते समय पापा ने कहा, तुम रोज कपड़ों की तरह ही जूते भी बदल-बदलकर क्यों पहनते हो। सच में यह उन्होंने हल्के-फुल्के मूड में कहा था। लेकिन मन में बैठ गया। इसका जवाब दिनभर से खोज रहा हूं। सोच रहा हूं। वास्तव में मैंने ऐसे तो कभी चीजों को सोचा ही नहीं। पापा बहुत सरल जीवन जीने वाले रहे हैं। अपनी न्यूनतम जरूरतों के साथ उन्होंने श्रेष्ठ विचारों और कर्मों के जीवन को बड़ा किया। क्या सच में रोज जूते बदलने की जरूरत है?

मेरे पास इसका जवाब नहीं है। क्या हम एक उपभोक्ता भर रह गए हैं। रोज बदलकर पहनने के तर्क अनेक दिए जा सकते हैं, इसे अंततः जस्टीफाइ भी किया जा सकता है। लेकिन समानांतर इस बात के भी तर्क हैं कि जरूरत नहीं है और इसे भी जस्टीफाइ किया जा सकता है। इसलिए मैं यहां तर्कों की बात नहीं करूंगा। सिर्फ एक मासूम से सवाल का सीधा सा, सरल सा जवाब खोज रहा हूं।
असल में वर्तमान जीवनशैली में आप गौर करेंगे तो हमारे-आपके जीवन में ऐसी बहुत सारी चीजें घुसती चली जा रही हैं जो हमारा खर्च बढ़ा ही रही हैं, कमाने की जरूरत भी बढ़ा रही हैं। और जब हम अपनी जरूरत से अधिक उपभोग करने लग जाते हैं तो यही होता है। कमाने के लिए हमें समझौते भी करने पड़ते हैं। कई बार वे काम भी करते हैं जो नहीं करने चाहिए और वैसी नौकरी भी जो हमारी तासीर को सपोर्ट नहीं करती। मगर पीछे जरूरतों की आर लगी हुई है तो हल खींचते बैल के सामने कोई उपाय नहीं, सिवाय आगे खींचने के।

सब दौड़ रहे हैं। घर में सदस्य संख्या घट रही है, लेकिन निर्जीव वस्तुओं की संख्या बढ़ रही है। एक युगल एक कमरे में अपने निजी पल बिताकर हॉल में सबके साथ आ जाता था। अब एक युगल का अपना हॉल भी अलग है। टीवी, चादर, बाल्टी, बाथरूम सब अलग हैं। कइयों हॉल्स हैं, लेकिन ऐसा हॉल कहीं नहीं दिखता जहां सब बैठकर, मिलकर बातें करते हों। मजाक करें। बड़ी-बड़ी समस्याओं को ठहाकों में उड़ा दें।

जीते तो वे फिर भी थे। और बहुत अच्छे से जीते थे। हम में से कइयों के पैरों में बचपन में एक जोड़ी जूते ही रहे होंगे और हो सकता है कइयों के वो भी न रहे हों। लेकिन किसी ने हमें गरीबी का अहसास नहीं कराया। अब हर गुजरती कार, गुजरते लोग, सहजता से अनावश्यक जरूरत की चीजों को लादे पल-पल अभाव की आभा बिखेर रहे हैं।

घर में जितने सदस्य उतने कमरे। जितने सदस्य उतने वाहन। जितने सदस्य उतने से कइयों गुना अधिक जरूरतों के सामान। ऐसा नहीं है कि ये सब बड़े धनाड्य परिवार हैं। ऐसा भी नहीं कि ये लोग खुलकर खर्चा करते हैं। बल्कि ये सब यह सोचना ही नहीं चाहते कि क्या चीजें जरूरत की हैं और क्या नहीं। बस ले लेना है और ले ही लेना है।

मैं जिस बसाहट में रहता हूं वहां सैंकड़ों परिवार हैं। जिस गली में हूं वहां 5 घर हैं। लेकिन सड़क पर कारें 9 खड़ी दिखाई देती हैं। बाहर गार्डन, पोर्च में झूला, चिड़िया के लिए सकोरा भी है। गार्डन में तुलसी, पीपल भी आज के चलन में फिर शुमार हैं। मगर जीवन इतने बड़े घरों में बमुश्किल 6 से 7 ही दिखाई देते हैं। एक प्लॉट खाली छोड़कर रह रहे सजातीय को जाकर कभी मैंने नहीं पूछा और उन्होंने भी नहीं। सालों यूं रहेंगे। एक दिन सब चले जाएंगे। लेकिन कोई किसी को जानेगा नहीं।

लगभग 30 साल पहले जब गांव छोड़ा था तो गांवभर के लोगों की खबरें चिट्ठियां लिख-लिखकर लेते थे। गांव छोड़कर कोई सैंकड़ों मील नहीं चले आए थे। महज 12 किलोमीटर दूर कस्बे में पढ़ने आए थे। 3 कमरों के घर में चूल्हे से खाना पकाने वाला किचन। एक टूटा पंखा। सिले-बुने बिस्तर, कपड़े, बर्तन। मगर 11 लोगों का परिवार यूं मस्ती और आनंद से रहता था जैसे संसार में कोई कमी ही नहीं होती। ऐसा नहीं कि ऐसे परिवार उस वक्त अभावग्रस्त परिवारों मेंं गिने जाते थे, बल्कि परिवार ऐसे ही होते थे। सब्जियां, गेहूं का आटा और घरेलू किस्म-किस्म की दालें, बड़ी, बिजौड़े, सूखी मिर्च, दही मिर्च, कइयों प्रकार के अचा बस यही खान-पान होता था। किराना दुकान से चाय, शकर, खाने का तेल, कुछ इस्नो पावडर, साबुन, पेस्ट और कुछ मसाले भर आते होंगे। तब भी जीवन अच्छा होता था। जिस घर में देखो लोग दिखते थे। संझा-बिरिया आरती, घंटी बजती थी। नाना के घर के पीछे मस्जिद थी। 5-7 की उम्र से नमाज लगभग रटा सी गई थी। अच्छा लगता था। बताया भी यही गया था कि जैसे हम आरती करते हैं वैसे ये लोग अजान करते हैं। बस। बहुत सरल शब्दों में फर्क। कोई खाई नहीं। कोई रुसवाई नहीं।

छोटे से घर में कइयों लोग। छोटी सी आय में सबका पालन। कोई कमी नहीं। कोई बड़ा भारी कर्ज नहीं। कपड़े की दुकान से कपड़े ले आएं। कुछ सौ रुपए कर्ज हो जाए तो यूं लगता था कि कब पैसा आएं और कब इनका लौटाया जाए।जरूरतों का अंबार है। चौतरफा जरूरतें हैं। बढ़ती जा रही हैं। घर, कार तो फिर भी ठीक है। मगर हम कभी नहीं सोचते कि हमारी आय का बड़ा हिस्सा फोन, रिचार्ज, टीवी, इंटरनेट, बच्चों की फीस, घरेलू गैरजरूरत की सामग्री और नए दौर का फ्रस्ट्रेशन का ड्रेनेज वीकेंड, आउटिंग अलग ही खर्चा बनकर उभर रहा है। इतना सामान क्यों लाद लिया हमने? क्यों इतने बोझिल हो गए हम? क्यों इतने गधे के समान लदान लेकर चल रहे हैं? क्यों का कोई जवाब होगा नहीं। तर्क की कसौटी पर कसकर तो बिल्कुल ही जवाब मत देना।

 

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